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Exclusive: विस्थापित होते घर… धंसता शहर… उजड़ती जिंदगियां, जिम्मेदार कौन? एक्सपर्ट्स ने बताई जोशीमठ के ऐसे हालातों की वजह 

जोशीमठ के हालात आज बेहद खराब हैं. शहर दिन-ब-दिन धंस रहा है, जिसके वजह से लोगों को विस्थापित करना पड़ रहा है. हालांकि, पिछले कई साल से पहाड़ों में चल रहे प्रोजेक्ट्स को रोकने की बात हो रही है. 1976 की मिश्रा कमीशन की रिपोर्ट में इसका जिक्र भी किया गया था.

जोशीमठ के ऐसे हालातों की वजह (फोटो: PTI) जोशीमठ के ऐसे हालातों की वजह (फोटो: PTI)
हाइलाइट्स
  • पिछले कई साल से दी जा रही है चेतावनी 

  • पहाड़ों में चल रहे बड़े-बड़े प्रोजेक्ट हैं इसका बड़ा कारण 

  • जोशीमठ ही नहीं आसपास के शहरों में भी दिखी दरारें 

समुद्र की सतह से 6107 फीट की ऊंचाई पर बसा उत्तराखंड का जोशीमठ शहर बद्रीनाथ और केदारनाथ धाम के दर्शन का मुख्य द्वार माना जाता है. साल 1872 में यहां घरों की संख्या 455 थी, जो देखते ही देखते अब 20 हजार से ज्यादा हो गई है. हमेशा चहचहाने वाले इस शहर के आज कई सौ घरों में दरारें नजर आने लगी हैं. अब लोगों को विस्थापित करने का काम चल रहा है. घरों, होटलों को तोड़ने का काम हो रहा है. हालांकि, इस आपदा के बारे में बरसों से चेतावनी दी जा रही थी. मौजूदा रिपोर्ट्स की मानें तो बढ़ती आबादी, बड़ी तादाद में चल रहा निर्माण कार्य, तमाम सरकारी परियाजनाएं, टाउन प्लानिंग की कमी, जलवायु परिवर्तन, प्रशासन का ढीला रवैया इस शहर के तबाह होने का कारण है.  

इतना ही नहीं, कई विशेषज्ञों के सर्वेक्षण, पिछली कई सौ रिपोर्ट्स, पर्यावरणविदों और एक्टिविस्ट की चेतावनी इस बात का सबूत है कि ये शहर आज नहीं बल्कि कई साल पहले से ही धीरे-धीरे धंसना शुरू हो गया है. हाल ही में इसरो (ISRO) की तरफ से जारी की गई सैटेलाइट तस्वीरें इस बात की गवाह हैं. जिसमें बताया गया था कि जोशीमठ सिर्फ 12 दिनों में 5.4 सेंटीमीटर तक धंस गया है. हालांकि, इस रिपोर्ट को सरकार के कहने पर वापस ले लिया गया है. अब ये इसरो की वेबसाइट पर मौजूद नहीं है.

पिछले कई साल से दी जा रही है चेतावनी 

पिछले कई साल से पहाड़ों में चल रहे प्रोजेक्ट्स को रोकने की बात हो रही है. 1976 की मिश्रा कमीशन की रिपोर्ट में बताया गया था कि जोशीमठ शहर एक प्राचीन भूस्खलन क्षेत्र में स्थित है, इसका मतलब है कि ये क्षेत्र ज्यादा भार नहीं सह सकता है. रिपोर्ट में इस क्षेत्र में जो अनियोजित विकास हुआ है और कुछ कमजोरियों के बारे में चेतावनी दी गई थी. यही नहीं, इससे पहले वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के एक वैज्ञानिक, डॉ. स्वप्नमिता वैदेश्वरन की 2006 की एक रिपोर्ट में खुलासा किया गया था कि जोशीमठ की मिट्टी ऊपर की धाराओं से रिसाव के कारण ढीली हो गई है. कई पर्यावरणविद् भी जोशीमठ और आसपास के क्षेत्रों में संभावित आपदाओं पर विशेषज्ञों द्वारा दी गई चेतावनियों पर कार्रवाई करने में विफल रहने के लिए लगातार सरकारों पर निशाना साध रहे हैं. इतना ही नहीं बल्कि पिछले कुछ साल से तो लोगों द्वारा भी विरोध प्रदर्शन किए जाते रहे हैं. हालांकि, कई फैसले लिए जाने के बाद भी धरातल पर कोई कार्रवाई नहीं की गई.

(फोटो: पीटीआई)
(फोटो: पीटीआई)

पहाड़ों में चल रहे बड़े-बड़े प्रोजेक्ट हैं इसका बड़ा कारण 

केवल मिश्रा कमेटी ही नहीं बल्कि कई साल से अलग-अलग ऑर्गेनाइजेशन इन प्रोजेक्ट्स को रोकने की मांग रही है. उत्तराखंड में साल 2013 में आई बाढ़ में 5,700 से अधिक लोग मारे गए थे. जिसके मद्देनजर, सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड में चल रहे सभी हाइड्रो इलेक्ट्रिसिटी प्रोजेक्ट को रोक दिया था. लेकिन पहले से निर्माणाधीन आठ प्रोजेक्ट को जारी रखने की अनुमति दी थी. 2013 की बाढ़ से पहले, अधिकारियों ने उत्तराखंड में 69 हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट की योजना बनाई थी. उसमें से पर्यावरण मंत्रालय ने बाढ़ आने पर 24 प्रोजेक्ट को मंजूरी दी थी. सभी 24 प्रोजेक्ट पर रोक लगाने के आदेश के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया था और सिफारिशें मांगी थीं. देहरादून स्थित पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट के रवि चोपड़ा ने इस समिति का नेतृत्व किया था. जिसमें 2021 में आई बाढ़ के मद्देनजर, समिति ने 24 हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट में से 23 को बंद करने की सिफारिश की थी जिन्हें पर्यावरण मंत्रालय ने मंजूरी भी दे दी थी.

जाने-माने पर्यावरणविद विमलेंदु झा इसपर कहते हैं, "ये एकदम से नहीं बढ़ा है. पिछले 50 साल से ये धीरे धीरे बढ़ रहा है. मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट में भी कहा गया था कि जोशीमठ पर एक दबाव है जिसके कारण ये शहर धंस सकता है. इससे बचने के लिए सुझाव भी दिए गए थे जिसमें बताया गया था कि किस तरह से ऐसी जगहों पर कंस्ट्रक्शन या निर्माण कार्य हो. जोशीमठ की तीन दिशाओं से नदियां बहती हैं. वो जगह काफी सेंसिटिव है. जहां हमने बहुत सारा निर्माण कार्य साथ ही साथ भारत सरकार वहां 2 बड़े प्रोजेक्ट चला रही है, जिसमें तपोवन हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्लांट और चार धाम प्रोजेक्ट शामिल है. तपोवन हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्लांट के लिए वहां टनल बनाई जा रही है, जो जोशीमठ के नीचे से जा रही है. वहीं चार धाम के लिए जो सड़क निर्माण पूरे उत्तराखंड में होना है, जिसमें 4 लेन हाइवे बनाने की कोशिश चल रही है. इन दोनों मुख्य प्रोजेक्ट के कारण उस पूरे इकोसिस्टम पर काफी दबाव पड़ा है. जिसके कारण आज ये स्थिति बन गई है और पूरा शहर खत्म होने की कगार पर है.

(फोटो: PTI)
(फोटो: PTI)

हिमालयन रेंज और जलवायु परिवर्तन भी है बड़ा कारण 

मैकाफेरी के टेक्निकल मैनेजर और इन जगहों पर अध्ययन करने वाले डॉ रत्नाकर महाजन बताते हैं कि हिमालय पर्वत दुनिया का सबसे यंग माउंटेन है. इसपर अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा कि करीब करीब 2 से 2.5 सेंटीमीटर हिमालय हर साल ऊंचा होता है. ये नई पर्वत श्रृंखला काफी नाजुक है. ये सारा भार सहन नहीं कर सकती है. हिमालयन जियोलॉजी, बारिश का पैटर्न, जंगलों का कम होना इन सबकी वजह से कई बदलाव देखने को मिल रहे हैं. जिसके कारण हमें आपदा का सामना करना पड़ रहा है. हमें इन सबको ध्यान में रखकर निर्माण करना होगा.”

इस पर विमलेंदु कहते हैं, “अपर हिमालयन रीजन एक भूकंप आशंकित जगह है. हम 1999 में चमोली का भूकंप देख चुके हैं, उससे पहले उत्तरकाशी का भूकंप भी देख चुके हैं. जलवायु परिवर्तन से जो आपदा हमने देखी हैं और उनके कारण जो सैंकड़ों मौतें हुई हैं वो गवाह हैं कि हम विनाश की ओर बढ़ रहे हैं. तपोवन वाले प्रोजेक्ट में लगभग 200 से ज्यादा मजदूर फंस गए थे, ऐसे ही केदारनाथ में हमने देखा कि कैसे हजारों लोग केवल विस्थापित ही नहीं बल्कि उनकी मौत हो गई. ये एक इंसान के द्वारा बनाई गई आपदा है.”

जून, 2006 और नवंबर, 2022 के बीच जोशीमठ में इमारतों और बुनियादी ढांचे में हुआ बदलाव (फोटो: PTI)
जून, 2006 और नवंबर, 2022 के बीच जोशीमठ में इमारतों और बुनियादी ढांचे में हुआ बदलाव (फोटो: PTI)

जोशीमठ ही नहीं आसपास के शहरों में भी दिखी दरारें 

बताते चलें कि जोशीमठ जैसे ही हालात आसपास के शहरों में देखने को मिल रहे हैं. इसे लेकर विमलेंदु झा कहते हैं, “दरअसल, जो निर्माण पद्धति हमने अपनाई है वो ठीक नहीं है. सिर्फ उत्तराखंड में ही नहीं बल्कि पूरे हिमालयन रेंज में जिसमें लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश में हमने जिस तरह का इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट मॉडल अपनाया है वो उस जगह के लिए नहीं है. इसीलिए सभी एक्टिविस्ट और पर्यावरणविद् कह रहे हैं कि आज जोशीमठ की ये स्थिति है लेकिन आने वाले साल में आसपास के इलाकों या कई जगहों पर ऐसा ही पैटर्न देखने को मिलने वाला है. आज चमोली, गोपेश्वर, नैनीताल, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग बहुत सारे इलाकों में घरों में दरारे दिखनी शुरू हो गई हैं. हमने विकास का जो रास्ता अपनाया है उसमें ही फॉल्ट है. हमने नदियों को रोक दिया, पहाड़ों को काट दिया, सड़कों का निर्माण किया. 2013 की मिश्रा रिपोर्ट में भी कहा गया था कि यहां कोई बड़े प्रोजेक्ट या बड़े बांध नहीं बनने चाहिए लेकिन उससे पहले ही लगभग 290 बड़े बांधों की स्वीकृति मिल चुकी थी. हमें समझना होगा कि नदी, पहाड़ और जंगल हमारे हिस्सा हैं.”

हालांकि, डॉ रत्नाकर पर्यटन और बढ़ती भीड़ को भी इसका एक कारण मानते हैं. वे कहते हैं, ”जोशीमठ के अगल-बगल नदियां बहती हैं वहां पर कटाव होता है. जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश का पैटर्न बदल गया है. वहीं, जोशीमठ में धीरे-धीरे टूरिज्म बढ़ रहा है, हर साल पर्यटकों की संख्या बढ़ती जा रही है. 2013 के आसपास वहां की जनसंख्या 400-500 थी. यकीन अब धीरे-धीरे वहां होटल और बिल्डिंग बननी शुरू हुए, लैंड पैटर्न एकदम से बदल गया. मुझे नहीं लगता की एनटीपीसी का प्रोजेक्ट पूरी तरह से इसका कारण है. सभी चीजों का मिला-जुला परिणाम है कि जोशीमठ में ये आपदा देखने को मिली है.”  बता दें, उत्तराखंड पर्यटन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2021 में 165,000 से अधिक पर्यटक जोशीमठ आए थे. वहीं, बद्रीनाथ, औली और हेमकुंड साहिब जैसे स्थलों की यात्रा के लिए पांच लाख से अधिक पर्यटक इसी शहर से होकर आए. 

विरोध करते हुए लोग (फोटो: PTI)
विरोध करते हुए लोग (फोटो: PTI)

पहाड़ों में आगे की स्थिति देखकर होना चाहिए निर्माण कार्य 

गौरतलब है कि भारत के पास जलवायु परिवर्तन पर या इसे देखते हुए किस तरह की सड़कों का निर्माण होना चाहिए इसे लेकर पूरी योजना है. नेशनल मिशन फॉर सस्टेनिंग द हिमालयन इकोसिस्टम की रिपोर्ट में "हरित सड़क निर्माण" पर एक पूरा सेक्शन है. जो साल 2010 से ही पब्लिक डोमेन में है. लेकिन हिमालयन रेंज में बन रही किसी भी सड़क पर नजर डालने से पता चलेगा कि इन मानदंडों का पालन नहीं किया जा रहा है. 

डॉ रत्नाकर के मुताबिक, हम किसी शहर का कंस्ट्रक्शन नहीं रोक सकते हैं. वे कहते हैं, “पूरे भारत में जो शहर बसते हैं उनकी प्लानिंग कहीं न कहीं मिसिंग है. जबकि होना ऐसा चाहिए कि अगर कोई शहर टूरिज्म स्पॉट है तो वहां का निर्माण कार्य जनसंख्या के हिसाब से होना चाहिए. आने वाले टाइम में यहां कितने लोग आने वाले हैं इसका ध्यान रखा जाना चाहिए. इसके अलावा वहां नाले कैसे बनाए जाए, बारिश आए तो बचाव कैसे हो, भूकंप आए तो किस तरह लोगों को बचाया जा सके आदि. साथ ही पहाड़ों की मिट्टी के हिसाब से घर बनाने होंगे. कंस्ट्रक्शन डंप कैसे करना है उसे ध्यान रखना चाहिए. हमारी आबादी बढ़ रही है. लैंड पैटर्न यूज बदल रहा है, आगे भी बदलेगा. इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए और भविष्य को देखते हुए निर्माण कार्य होना चाहिए. ”

वहीं, विमलेंदु कहते हैं कि समुद्र में, या बर्फ में या प्लेन एरिया में या फिर रेगिस्तान में जो हम घर बनाएंगे ये चारों अलग होंगे. वो कैसा घर जो 10 साल में धंस जाए? हमें पर्यवरण और जगह को देखते हुए निर्माण कार्य करना होगा. हमें भू-भाग को देखते हुए अपना निर्माण कार्य करना होगा. विमलेंदु आखिर में कहते हैं, “मुझे बहुत दुःख हो रहा है कहते हुए कि अब तो शायद पूरे जोशीमठ शहर को ही विस्थापित करना पड़े. हम जोशीमठ को खत्म कर चुके हैं. हमें अब ये देखना चाहिए कि जो नया जोशीमठ बने वो कैसे बनेगा और उसमें हमें किन चीजों का ध्यान रखना होगा. साथ ही बाकी शहरों को बचाने के लिए हमें किन प्रोजेक्ट को रोका जाना चाहिए इसपर ध्यान देना होगा.”