scorecardresearch

Colonel AB Tarapore: 1965 के युद्ध में पाकिस्तानियों के छुड़ा दिए थे छक्के, दुश्‍मन सेना के 60 टैंक किए थे ध्‍वस्‍त, जानें परमवीर चक्र विजेता की कहानी

India-Pakistan War:  1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर ने अपने साथी मेजर चीमा को निर्देश दिया कि यदि जंग के दौरान वे इस दुनिया में न रहें तो उनका अंतिम संस्कार युद्ध के मैदान पर ही किया जाए. इस वीर को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.  

परमवीर चक्र विजेता लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर (फोटो सोशल मीडिया) परमवीर चक्र विजेता लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर (फोटो सोशल मीडिया)
हाइलाइट्स
  • 16 सितंबर 1965 को कर्नल तारापोर हुए थे शहीद

  • मरणोपरांत परमवीर चक्र से किया गया सम्मानित 

भारत और पाकिस्तान के बीच 1965 में युद्ध लड़ा गया था. इस युद्ध में हमारे वीर सपूतों ने पाकिस्तानी सेना को धूल चटाई थी. लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर ने युद्ध में गजब का साहस दिखाया था. घायल होने के बावजूद पाकिस्तानी सेना के लिए काल बन गए थे. उनकी टुकड़ी ने जिस तरह से पाकिस्तानी सेना के 60 टैंकों को नेस्तानाबूद किया था, वह इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है. 16 सितंबर 1965 को कर्नल तारापोर शहीद हो गए थे. मरणोपरांत उनको अद्भुत शौर्यता के लिए परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था.

पूर्वज छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना का हिस्सा थे  
18 अगस्त 1923 को मुंबई में पैदा हुए एबी तारापोर का पूरा नाम अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर था. तारापोर के पूर्वज छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना का हिस्सा हुआ करते थे. छोटी सी उम्र में उन्होंने अपनी बहन को गाय के हमले होने से बचाकर दुनिया को अपनी बहादुरी का परिचय दे दिया था.

जब सेना में भर्ती होने का पनपा सपना 
तारापोर स्कूल पहुंचे, तो वहां भी अपने शिक्षकों के फ़ेवरेट बन गए. पढ़ाई, मुक्केबाज़ी, तैराकी, टेनिस और क्रिकेट, तारापोर सब में एक नंबर थे. माता-पिता चाहते थे कि बड़े होकर वह अपने परिवार का नाम रौशन करें. इसके लिए उन्होंने तारापोर को पुणे के बोर्डिंग स्कूल भेज दिया. इसी दौरान उनके अंदर सेना में भर्ती होने का सपना पनपा, जिसे पूरा करने के लिए उन्होंने तैयारी शुरू कर दी. मेहनत रंग लाई और 1940 में तारापोर हैदराबाद सेना का हिस्सा बनने में कामयाब रहे. 

चुनिंदा सैन्‍य अधिकारियों में होने लगी गिनती
द्वितीय विश्‍व युद्ध के दौरान पश्चिम एशिया में उन्‍होंने वीरता और युद्ध कौशल का अद्भुत प्रदर्शन किया. जिसके बाद अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर की गिनती हैदराबाद सेना के चुनिंदा सैन्‍य अधिकारियों में होने लगी. हैदराबाद का भारत में विलय होने के बाद अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर को भारतीय सेना की पूना हॉर्स में स्थानान्तरित कर दिया गया. 

युद्ध में कमांडिंग ऑफिसर बनाकर भेजा गया था
1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध से पहले अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर की पदोन्‍नति बतौर लेफ्टिनेंट कर्नल के तौर पर हो चुकी थी. अगस्‍त 1965 में भारत-पाक के बीच युद्ध का आगाज हो चुका था. इस युद्ध में जीत हासिल करने के इरादे से दुश्‍मन सेना ने 2 लाख 60 हजार की इंफैंट्री, 280 विमान और 756 टैंक जंग के मैदान में उतार दिए थे. 

वहीं, दुश्‍मन सेना को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए भारतीय सेना ने अपनी 7 लाख जवानों की इंफैंट्री, 700 विमान और 720 टैंक उतारे थे. दुश्‍मन सेना के साथ भारतीय सेना का सियालकोट सेक्‍टर में घमासान जारी थी. लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर को इस युद्ध में कमांडिंग ऑफिसर बनाकर भारतीय फौज की अगुवाई करने के लिए भेजा गया था.

फिल्‍लौरा जीतने का मिला आदेश 
11 सितम्बर 1965. यह वह तारीख थी, जब तारापोर के नेतृत्व में पूना हॉर्स रेजिमेंट को चविंडा की लड़ाई के दौरान सियालकोट सेक्टर में फिल्‍लौरा जीतने का आदेश मिला. कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर ने अपने टैंकों के साथ फिल्‍लौरा की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया था. तारापोर ने दुश्‍मनों के लिए ऐसा चक्रव्‍यूह तैयार किया, जिससे दुश्‍मनों का बचकर निकलना संभव नहीं था.

गोलाबारी में घायल हो गए
लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर को रोकने के लिए दुश्‍मन सेना लगातार उनकी बलाटियन पर टैंकों से गोले बरसा रही थी. इस गोलाबारी में तारापोर घायल जरूर हुए लेकिन दुश्‍मन सेना उनके  हौसले को तोड़ने में नाकामयाब रही. दुश्‍मन सेना की गोलाबारी में घायल होने के चलते तारापोर को इलाज के लिए वापस आने के लिए कहा गया, लेकिन उन्‍होंने रण छोड़कर वापस आने से इंकार कर दिया. अपने जख्‍मों की परवाह किए बगैर तारापोर 14 सितंबर 1965 को अपनी रेजीमेंट के साथ वाजिराली पर कब्‍जा करने के लिए आगे बढ़ चुके थे. 

पाकिस्तनी सेना ने अमेरिकी पैटन टैंकों को जंग के मैदान पर उतार दिया
लगातार मिलने वाली हार से पाकिस्तानी आग बबूला हो गया. पाक सेना ने ज़्यादा से ज़्यादा अमेरिकी पैटन टैंकों को जंग के मैदान पर उतार दिया. तारापोर ने इसके जवाब की पूरी तैयारी कर रखी थी. जैसे ही विरोधियों की तरफ़ से गोलाबारी शुरू की गई, भारतीय सैनिक उन पर टूट पड़े. एक-एक करके उन्होंने पाकिस्तानी सेना के टैंकों को नष्ट करना शुरू कर दिया. 

भारतीय सैन्य के 43 टैंकों की टुकड़ी तारापोर की मदद के लिए पहुंचती, इससे पहले ही उन्होंने दुश्मन के 60 टैंकों को नेस्तनाबूत कर दिया था. इसी युद्ध के दौरान, अचानक टैंक में आग लगने के चलते  लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर वीरगति को प्राप्‍त हो गए. अपने लीडर की मौत के बाद भी भारतीय जवानों ने दुश्मनों से जमकर लोहा लिया और अंतत: फिल्लौर पर भारतीय तिरंगा लहराया था. 

...जब बोले थे- अंतिम संस्कार युद्ध के मैदान पर ही किया जाए
तारापोर ने युद्ध के दौरान अपने साथी मेजर चीमा को निर्देश दिया कि यदि इस जंग के दौरान वे इस दुनिया में न रहें तो उनका अंतिम संस्कार युद्ध के मैदान पर ही किया जाए. उन्होंने चीमा से कहा था, मेरी प्रेयर बुक मेरी मां को दे दी जाए. मेरी अंगूठी मेरी पत्नी को और मेरा फाउंटेन पेन मेरे बेटे जर्जीस को दे दिया जाए. साथी जवान से यह बात कहने के पांच दिन बाद वह एक पाकिस्तानी टैंक गोले के शिकार होकर शहीद हो गए थे. लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जारजी तारापुर को फिल्लौर की लड़ाई में अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन करने के लिए 1965 में मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.