कुछ लोगों का जीवन और उनके जीवन के अनुभव पूरे समाज के लिए सीख होते हैं. ऐसे लोगों से जितना सीखा जाए उतना कम है. महाराष्ट्र में अमरावती के वरूद तहसील में रवाला गांव के रहने वाले 72 वर्षीय वसंत फुटाणे भी आज पूरे देश के लिए ऐसी ही एक सीख हैं. वसंत उन अग्रणियों में से एक हैं जिन्होंने भारत में जैविक खेती की नींव रखी और आज वह एक प्रगतिशील व सफल जैविक किसान का उदाहरण हैं.
GNT Digital से बात करते हुए वसंत फुटाणे अपने अनुभव और काम के बारे में बताया. उन्होंने कहा, "साल 1985 से हम पूरी तरह से जैविक खेती कर रहे हैं. शुरुआत में हमने फसल चक्र, हरी खाद जैसी तकनीकें अपनाईं. खेत में नाइट्रोजन की मात्रा को ठीक करने के लिए दलहन लगाए और प्रण लिया कि उत्पादन कम हो या ज्यादा लेकिन कभी भी जहर खेत में नहीं डालेंगे."
आज यह वसंत फुटाणे की मेहनत का ही परिणाम है कि पिछले लगभग चार दशकों से उनके खेत फल-फूल रहे हैं. और तो और उन्होंने दूसरे किसानों की भी किस्मत को संवारा है. वह लगातार किसानों को पर्यावरण के अनुकूल खेती करने के लिए जागरूक करते हैं और इसके लिए अलग-अलग तरह से काम कर रहे हैं.
कैसे हुई शुरुआत
किसान परिवार में जन्मे वसंत फुटाणे ने हमेशा से ही किसान बनने का सपना देखा था. स्कूल की पढ़ाई के बाद उन्होंने एग्रीकल्चर कॉलेज में दाखिला लिया. हालांकि, उनका कहना है कि उस समय कॉलेज में अच्छा पढ़ाने वाले शिक्षक नहीं थे. ऐसे में उन्होंने सिर्फ घरवालों के कहने पर पढ़ाई पूरी की लेकिन डिग्री कभी नहीं ली. हालांकि, पढ़ने के दौरान वह बाबा आमटे जैसी हस्तियों के संपर्क में आए और उनके शिविरों में जाकर उन्होंने बहुत कुछ सीखा. वह जयप्रकाश नारायण के संगठन तरुणशांति सेना के शिविर का भी हिस्सा रहे. उनके मन में समाज और पर्यावरण के लिए कुछ करने का जज्बा था.
हालांकि, कई अलग-अलग जगह काम करके वह अपने गांव लौटे और आसपास के आदिवासी इलाकों में काम करने लगे. उस समय वह सरकार के प्रौढ शिक्षा अभियान से भी जुड़े. हालांकि, जल्द ही उन्हें समझ आया कि सरकारी पहलों या किसी फंडिंग एजेंसी के साथ काम करके वह धरातल पर वैसा बदलाव नहीं ला पाएंगे जिसकी जरूरत है. उन्होंने कहा कि मुझे एक महान व्यक्ति की बात याद आई कि अ..सरकारी ही असरकारी होगा. और इसके बाद वह अपने स्तर पर अपने तरीके से काम करने लगे.
उन्होंने साल 1981 से खेती की तरफ रूख किया और धीरे-धीरे साल 1985 तक पूरी तरह से जैविक खेती करने लगे. उनके रास्ते में बहुत सी मुश्किलें आईं लेकिन अपनी पत्नी करूणाताई और कुछ साथियों की मदद से वह लगातार आगे बढ़ते रहे. आज वसंत न सिर्फ महाराष्ट्र बल्कि पूरे देश के सबसे संतुष्ट किसानों में से एक हैं.
खेती में भी जरूरी है बायोडाइवर्सिटी/जैवविविधता
बायोडाइवर्सिटी का मतलब आजकल हर कोई समझता है. बायोडाइवर्सिटी से मतलब है अलग-अलग प्रजाति के जानवर, पक्षी और पौधों का आपसी समन्वय के साथ जीवनयापन करना. वसंत का कहना है कि किसानों को खेती में भी यह सिद्धांत अपनाना चाहिए. सिर्फ एक या दो फसलें लगाकर न तो मुनाफा कमाया जा सकता है और यह पर्यावरण के लिए भी सही नहीं है.
उनके फार्म में सब्जियां, फल, चावल, गेहूं, कपास, दाल, हल्दी, मिलेट्स आदि की खेती होती है. इसके साथ ही, उनका आम का बगीचा भी है. जिसमें उन्होंने लगभग 100 प्रजातियों के आम के पेड़ लगाए हुए हैं. वह अब तक आम की बहुत सी प्रजातियां विकसित भी कर चुके हैं. उन्होंने लक्ष्मण, सुरभि, सुवर्णा, और शेंद्री जैसी प्रजातियां विकसित की हैं. इनके अलावा वह रत्ना, राजापुरी, नीलम, बारामासी, दशहरी, चौसा और केसर आदि प्रजातियों के आम भी अपने बागान में उगा रहे हैं.
हालांकि, उनका इलाका महाराष्ट्र की ऑरेन्ज बेल्ट में आता है जहां ज्यादातर संतरे उगाए जाते हैं. लेकिन कई साल पहले वसंत ने देखा कि इलाके में भूजल स्तर घट रहा है और संतरे को पानी चाहिए होता है. पैंकिग के लिए पेड़ भी काटे जा रहे थे. इसलिए उन्होंने दिमाग लगाया और संतरे की बजाय आम लगाना शुरू किया. उनके खेतों में लगे ज्यादातर आम के पेड़ बीज से लगाए गए हैं क्योंकि ये पेड़ लंबे समय तक चलते हैं. उनका ज्यादातर फोकस बीज से आम लगाने पर ही है. उनका कहना है कि आम की हर वैरायटी की अपनी खासियत है, कोई साइज में बड़ा है तो किसी का उत्पादन ज्यादा है कोई ज्यादा रसीला है.
वसंत के फार्म पर आम बिना किसी केमिकल के पारंपरिक तरीके से ही पकते हैं. आज वह हजारों ग्राहकों को जहर-मुक्त, एकदम शुद्ध आम खिला रहे हैं. उनका कहना है कि उनके खेत से साइज में थोड़े बड़े आम अगर मार्केट में जाते हैं तो छोटे आम पक्षियों और गांव के बच्चों के खाने के लिए हैं.
क्या हैं उनकी खेती के मूलमंत्र
वसंत ने आगे बताया कि उन्होंने देश में अलग-अलग जगह घूमकर, सामाजिक संगठनों के साथ काम करके बहुत कुछ सीखा है. साथ ही, उन्होंने बहुत कुछ पढ़ा है और फिर अपनी शुरुआत करके इस सीख को असल जिंदगी में लगाया है. वह एक जापानी किसान और फिलोसोफर, मसानोबू फुकुओका की किताब, 'One Straw Revolution' के बारे में बताते हुए कहते हैं, "यह किताब दुनिया के हर किसान के लिए उसकी गीता, कुरान, बाइबिल या गुरु ग्रंथ साहिब की तरह है. इस किताब में किसानों के जानने-समझने और सीखने के लिए बहुत कुछ हैं."
उन्होंने बताया कि इस किताब को पढ़ने के बाद उन्होंने अपने खेतों में बहुत से तरीके अपनाए जैसे मल्चिंग करना. सबसे पहला स्टेप यही होना चाहिए कि हमारे खेत में फसलों के अवशेष जैसे पत्ते, फल-फूल और तने आदि को बाहर करने या जलाने की बजाय खेत में ही रहने दें. अगर खेत का दो-तिहाई बायोमास वापिस खेत में ही जाता है तो आपको इसे अलग से या बाहर से कुछ देने की जरूरत नहीं है. इससे आपकी लागत कम से कम होगी और बायोमास खेत में ही रहने से खेतों की उत्पादक क्षमता बढ़ेगी.
वसंत ने कहा कि फुकुओका का एक सिद्धांत है- Zero Tillage- यानी कि खेत की जुताई बिल्कुल भी न करें. लेकिन वसंत का कहना है कि मध्य भारत की जलवायु ऐसी है कि आपको जुताई करनी पड़ती है लेकिन आप कम से कम जुताई करें. सामान्य तौर पर जितनी जुताई आप करते हैं उससे बहुत कम जुताई आपको करनी चाहिए. जितनी कम जुताई होगी उतनी खेत की क्षमता बढ़ेगी. इसके साथ ही, वह कहते हैं कि जिन कामों के बिना आप खेती कर सकते हैं उन्हें छोड़ देना चाहिए. जैसे रसायनों के बिना खेती संभव है तो आपको इनका इस्तेमाल छोड़ देना चाहिए. इससे आपको ही फायदा होगा. वसंत कहते हैं कि किसानों को खेती, पशुओं, जैविक खाद आदि का विज्ञान समझना चाहिए. इनका प्रैक्टिकल इस्तेमाल समझेंगे तो आगे बढ़ पाएंगे.
हर साल आयोजित होता है बीजोत्सव
वसंत न सिर्फ खुद जैविक खेती में सफल हुए बल्कि दूसरे किसानों को भी जागरूक करके लगातार जैविक खेती से जोड़ रहे हैं. वह सिर्फ किसानों को ही नहीं बल्कि ग्राहकों को भी जागरूक कर रहे हैं क्योंकि ग्राहक ही सही खाने की मांग करके समाज को बदलाव की ओर ले जा सकते हैं. उन्होंने बताया कि उनका फोकस भारत में देसी बीजों को प्रमोट करने पर है. इसके लिए वह हर साल बीजोत्सव आयोजित करते हैं. इस आयोजन में देश भर के किसान अपने-अपने देसी बीजों के साथ पहुंचते हैं और एक-दूसरे के साथ बीज शेयर करते हैं.
वसंत कहते हैं कि देसी किस्मों के बीजों से फसलें उगाना सिर्फ पर्यावरण के लिए अच्छा नहीं है बल्कि इन फसलों में बीमारियां भी कम लगती हैं और ये मौसम की मार भी झेल सकते हैं क्योंकि ये स्थानीय और लोकल बीज हैं.
वसंत का एक अभियान गांव के स्तर पर इकॉनोमी को बढ़ाना है. वह कहते हैं कि गांधी जी की सीख पर चलते हुए हम सबको गांवों को आतमनिर्भर बनाने पर जोर देना चाहिए. उनका कहना है कि अगर कपास उगाने वाले गांवों में ही प्रोसेसिंग मशीनें लगा दी जाएं और लोग खुद अपने कपास को प्रोसेस करें, जिससे उन्हें कपास भी मिलेगा और कॉटनसीड भी. कपास से कपड़ा बन सकता है और कॉटनसीड से वह घर के लिए तेल की जरूरत को पूरा कर सकते हैं. साथ ही, तेल निकालने के बाद बचने वाली खल पशुओं का चारा हो सकती है.
GM किस्मों के बारे में जागरूकता अभियान
उनका अभियान है GM यानी कि जेनेटिकली मॉडिफाइड किस्मों के प्रति किसानों और आम लोगों को जागरूक करना. वह कहते हैं कि पश्चिम विदर्भ के इलाके को कॉटन बेल्ट कहते हैं जहां कभी देसी कपास उगता था. लेकिन अब यहां अमेरिकन कॉटन होता है या फिर BT कॉटन. यहां पर BT का मतलब Bacillus thuringiensis से है जो जमीन में रहने वाला एक बैक्टीरिया था जिसके जीन BT कपास में डाले गए. लेकिन यह प्रजाति जमीन में रहने वाले उपयोगी जीव-जंतुओं पर बुरा प्रभाव जालती है. इससे बीमारियां बढ़ी हैं और मिट्टी की उर्वरकता घटी है. उनका कहना है कि इस इलाके में मधुमक्खियां न के बराबर हैं. इसलिए उनकी कोशिश है कि लोगों को इन प्रजातियों के बारे में जागरूक करके इन पर रोक लगाई जाए ताकि हमारा खेतों में पर्यावरण संतुलन बना रहे और जनता को सुरक्षित आहार मिले.
वसंत का कहना है कि GM तकनीक का मुख्य उद्देश्य खरपतवारनाशी सहिष्णू बीजों (Herbicide Tolerant Seeds) को बढ़ाना है. इससे खेती में हर्बीसाइड जैसे जहरीले रसायनों का प्रयोग खेती में कम होने की बजाय बढ़ेगा. बिना जहरीले रसायन भी खरपतवार का प्रबंधन किया जा सकता है. किसानों को खरपतवार को दुश्मन नहीं समझना चाहिए बल्कि हम कई चीजें जैसे वनौषधि, साग-तरकारी, पशुओं के लिए चारा, और जमीन के जैविक पदार्थ आदि खरपतवार से मिलते हैं. इसलिए खरपतवार का प्रबंधन जरूरी है न कि निर्मूलन (Eradication). लेकिन GM बीज और उसके साथ जुड़े खरपतवारनाशी इस वास्तविकता से ठीक उल्टी दिशा में काम करते हैं. जिससे हमारे खेतों की उर्वरकता घटेगी और भोजन व पेयजल, दोनों दूषित होंगे. वसंत का कहना है कि श्रीलंका इसका ताजा उदाहरण है वहां बड़ी संख्या में 20 से 25 साल के युवकों में क्रॉनिक किडनी डीजीज (किडनी की गंभभीर बीमारी) पाई जा रही है.
वसंत कहते हैं कि इसलिए किसानों और ग्राहकों को GM सरसों, BT बैंगन और अन्य GM खाद्यान्नों को नकारना होगा. उनका पूरा परिवार इन अभियानों में उनका साथ दे रहा है और उनकी मदद व मार्गदर्शन से आज सैकड़ों किसान पर्यावरण-अनुकूल खेती से जुड़ रहे हैं.