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Mahatma Gandhi Death Anniversary: कैसे हुई थी बापू के हत्यारे नाथूराम गोडसे की पहचान.... मर्डर वाले दिन क्या हुआ था... बचाव पक्ष ने क्या कहा था? जानें सबकुछ

Mahatma Gandhi Death Anniversary: गांधीजी की हत्या का मुकदमा 10 फरवरी 1949 को लाल किले में शुरू हुआ. इस मुकदमे में कई साजिशकर्ता सामने आए, घंटों क्रॉस एग्जामिनेशन हुआ, गवाहों से पूछताछ की गई और अंत में मुख्य आरोपी नाथूराम गोडसे को फांसी की सजा सुनाई गई. इस ऐतिहासिक मुकदमे की हर बारीकी 211 पन्नों की एक विस्तृत फाइल में दर्ज है.

Mahatma Gandhi murder case Mahatma Gandhi murder case
हाइलाइट्स
  • साजिशकर्ताओं की पहचान के लिए कानूनी प्रक्रिया

  • बचाव पक्ष ने उठाए थे आइडेंटिफिकेशन को लेकर बड़े सवाल 

30 जनवरी 1948 की वह शाम, जब बिड़ला हाउस में महात्मा गांधी अपनी प्रार्थना सभा के लिए निकले, किसी को अंदाजा नहीं था कि यह उनकी आखिरी शाम होगी. राष्ट्रपिता को तीन गोलियां मारकर नाथूराम गोडसे ने हत्या कर दी. हजारों लोगों की मौजूदगी में हुई इस निर्मम हत्या ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया. इसके बाद जो हुआ, वह भारतीय न्यायपालिका के इतिहास का एक अहम अध्याय बना. 

गांधीजी की हत्या का मुकदमा 10 फरवरी 1949 को लाल किले में शुरू हुआ. इस मुकदमे में कई साजिशकर्ता सामने आए, घंटों क्रॉस एग्जामिनेशन हुआ, गवाहों से पूछताछ की गई और अंत में मुख्य आरोपी नाथूराम गोडसे को फांसी की सजा सुनाई गई. इस ऐतिहासिक मुकदमे की हर बारीकी 211 पन्नों की एक विस्तृत फाइल में दर्ज है.

हत्या के तुरंत बाद ही गोडसे को मौके पर गिरफ्तार कर लिया गया था. लेकिन न्याय की प्रक्रिया में केवल गिरफ्तारी ही काफी नहीं होती. गोडसे के अलावा नारायण डी. आप्टे और विष्णु करकरे सहित कई अन्य लोगों को भी इस साजिश में शामिल होने के आरोप में पकड़ा गया और मुकदमा चलाया गया. 

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आइडेंटिफिकेशन परेड: साजिशकर्ताओं की पहचान की कानूनी प्रक्रिया
गांधीजी की हत्या के मामले में आरोपियों की पहचान की कार्यवाही (Identification Parade) कई महीनों तक चली. इस प्रक्रिया में वे सभी गवाह शामिल किए गए, जिन्होंने हत्या के दिन या साजिश की योजना के दौरान आरोपियों को देखा था. यह प्रक्रिया बेहद सख्त कानूनी प्रोटोकॉल के तहत पूरी की गई ताकि किसी भी तरह की गलती की गुंजाइश न रहे.

आइडेंटिफिकेशन परेड किसी भी आपराधिक जांच का अहम हिस्सा होती है. इसमें गवाहों को कई अन्य लोगों के बीच से असली अपराधी की पहचान करनी होती है. इससे यह पुख्ता होता है कि अपराध करने वाला व्यक्ति वही है जिसे पकड़ा गया है. गांधीजी की हत्या के इस ऐतिहासिक मुकदमे में नाथूराम गोडसे, नारायण डी. आप्टे और विष्णु करकरे सहित अन्य आरोपियों की पहचान के लिए कई ऐसी परेड कराई गईं.

साजिश में शामिल सावरकर ने क्या दलीलें दी थीं? बचाव पक्ष ने क्या कहा था?

नाथूराम गोडसे और नारायण डी. आप्टे को 15 नवंबर 1949 को गांधीजी की हत्या का दोषी मानते हुए फांसी दी गई. यह आजाद भारत में दी गई पहली फांसी की सजा थी. हालांकि, इस ऐतिहासिक मुकदमे के कई पहलू अब भी कम चर्चित हैं. 

नाथूराम गोडसे की पहचान कैसे हुई
महात्मा गांधी मर्डर केस में सबसे जरूरी था नाथूराम गोडसे की पहचान. 28 फरवरी, 1948 को, पहली आइडेंटिफिकेशन परेड आयोजित की गई, जिसकी निगरानी मजिस्ट्रेट किशन चंद ने की. इस परेड में गोडसे के साथ नारायण आप्टे और विष्णु करकरे भी शामिल थे, साथ ही बारह दूसरे विचाराधीन आरोपी भी थे. इस प्रोसेस को काफी सख्त प्रोटोकॉल के साथ पूरा किया गया. 

(फोटो- Getty Images)

इस परेड के दौरान, कई गवाहों ने गोडसे को सही ढंग से पहचाना.  प्रमुख गवाहों में राम चंदर, कालीराम, सी. पाचेको, मार्टो थडियस, सुरजीत सिंह, मस्त. कोलोचंस और छोटू बन शामिल थे. ये वो लोग थे, जिन्होंने बिना किसी संदेह के गोडसे को पहचाना. इन कई गवाहों की पहचान ने गोडसे के खिलाफ मामले को और भी मजबूत कर दिया.

बचाव पक्ष ने उठाए थे आइडेंटिफिकेशन को लेकर बड़े सवाल 
इस पूरे आइडेंटिफिकेशन प्रोसेस के दौरान दो सबसे बड़े सवाल बचाव पक्ष ने उठाए थे: 

1. सिर ढकने का मुद्दा: बचाव पक्ष का दावा था कि नाथूराम गोडसे को पहचानने के लिए आइडेंटिफिकेशन परेड के दौरान उसके सिर पर पट्टी बांधी गई थी, जिससे उसे अलग से आसानी से पहचाना जा सकता था. जबकि दूसरे विचाराधीन कैदियों को ये पट्टियां नहीं बांधी गई थीं, जिससे गवाहों के लिए गोडसे का पता लगाना आसान था.

हालांकि, मजिस्ट्रेट किशन चंद ने अपनी गवाही में इसे लेकर साफ किया था. उन्होंने इस बात से इनकार किया और कहा कि सिर पर लगे कपड़े के कारण गोडसे की पहचान नहीं की गई है, बल्कि कई दूसरे कारण भी हैं. इसके अलावा, खुद गोडसे ने अपने बयान में माना था कि परेड में शामिल कुछ लोगों ने अपने सिर पर रूमाल या तौलिया ढका हुआ था, लेकिन उसके सिर पर बंधी पट्टी और दूसरों के बीच कोई खास अंतर नहीं था.

2. महाराष्ट्रीयन पहचान: बचाव पक्ष का एक और तर्क ये था कि नारायण आप्टे और विष्णु करकरे की पहचान मराठी होने की वजह से की गई. वे दोनों महाराष्ट्रीयन जैसे दिखते थे, जबकि जिन विचाराधीन कैदियों के साथ उन्हें खड़ा किया गया था, वे मराठी नहीं थे. इसे लेकर बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि इससे गवाहों के लिए उन दोनों की पहचान करना आसान हो गया था. 

महात्मा गांधी के मर्डर वाले दिन क्या-क्या हुआ था? 

हालांकि, मजिस्ट्रेट ने इस दावे का खंडन करते हुए कहा था कि नारायण आप्टे प्रत्यक्ष रूप से महाराष्ट्रीयन नहीं दिखते हैं. इसके अलावा, दोनों को परेड के दौरान अपने कपड़े बदलने का ऑप्शन भी दिया गया था. इस बात का कोई कारण नहीं था कि उन्हें केवल उनके जातीय पृष्ठभूमि के कारण पहचाना गया हो. 

आरोपी

गवाह

नाथूराम गोडसे

राम चंदर (Ram Chander), कलिराम (Kaliram), सी. पाचेको (C.Pacheco), मार्टिन थडियस (Martin Thaddeus), सुरजीत सिंह (Surjit Singh), एमएसटी. सोलोचन (Mst.Solochans), छोटू राम (Chhotu Ram)

नारायण आप्टे

राम चंदर (Ram Chander), कलिराम (Kaliram), सुरजीत सिंह (Surjit Singh), एमएसटी. सोलोचन (Mst.Solochans), छोटू राम (Chhotu Ram), भूर सिंह (Bhur Singh) और जन्नू (Jannu)
 

विष्णु करकरे

राम सिंह (Ram Singh), मार्टिन थैडियस (Martin Thaddeus), छोटू राम (Chhotu Ram), भूर सिंह (Bhut Singh), जन्नू (Jannu).
 

कई परेड की गई थी आयोजित 
पहचान की ये प्रक्रिया सिर्फ एक परेड से नहीं रुकी. बॉम्बे के हेड प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट ऑस्कर बी ब्राउन ने नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे और अन्य के खिलाफ कई आइडेंटिफिकेशन परेड की. ये कार्यवाही कई महीनों तक चली:

  • 7 जनवरी, 1948 को गोडसे और नारायण आप्टे के खिलाफ एक आइडेंटिफिकेशन परेड आयोजित की गई थी.
  • 1 फरवरी, 1948 को एक और आइडेंटिफिकेशन परेड आयोजित की गई, जिसमें गोडसे, आप्टे, करकरे और अन्य शामिल थे.
  • मार्च 16, मार्च 10, मार्च 14, और 9 अप्रैल, 1948 को भी आइडेंटिफिकेशन परेड आयोजित की गई थी.

कई सावधानियां बरती गईं
किसी भी तरह की कोई गलती न हो और निष्पक्षता से पूरी प्रक्रिया हो सके, इसके लिए मजिस्ट्रेटों ने कई सावधानियां बरतीं. उदाहरण के लिए, पहचान करने वाले गवाहों को एक अलग कमरे में रखा गया था और उन्हें एक-दूसरे से बात करने की अनुमति नहीं थी. अभियुक्तों को अपने कपड़े या टोपी बदलने की आजादी दी गई थी, और परेड करने वाले लोगों को अभियुक्तों की उम्र और शारीरिक बनावट के हिसाब से ही चुना गया था.

पहचान की कार्यवाही में मजिस्ट्रेट ऑस्कर बी. ब्राउन ने अपनी तरफ से गवाही के लिए अलग से सावधानी बरती. उन्होंने परेड के लिए अलग-अलग कोर्ट रूम से अपने आप लोगों का चयन किया और यह सुनिश्चित किया कि जांच में शामिल कोई भी पुलिस अधिकारी कार्यवाही के दौरान उपस्थित नहीं रहे.

(फोटो- Getty Images)
(फोटो- Getty Images)

ये प्रक्रिया पूरी तरह से पारदर्शी थी. जजमेंट के मुताबिक, इसमें शामिल सभी पक्षों के सामने पंचनामा (ज्ञापन) लिखा जाता था. इसके अलावा, कोई भी पंचनामे पर किसी भी आपत्ति या सुधार के लिए आवाज उठा सकता था. इन परेडों के दौरान किसी भी आरोपी ने कोई आपत्ति नहीं जताई थी. 

किस तरह गांधी मर्डर केस का ज्यूडिशियल प्रोसेस था सबसे अलग? 

नाथूराम गोडसे और उसके साथ साजिश करने वालों की पहचान ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद मुकदमे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. सख्त कानूनी प्रोटोकॉल के तहत इन सभी की पहचान की गई थी. 

गौरतलब है कि महात्मा गांधी मर्डर केस की ओरिजिनल जजमेंट फाइल को दिल्ली हाई कोर्ट ने हाई कोर्ट ई-म्यूजियम नाम के ऑनलाइन पोर्टल पर अपलोड किया है. इसमें कई ऐतिहासिक केस की ओरिजिनल जजमेंट फाइल अपलोड की गई है. जिसमें डिस्ट्रिक्ट कोर्ट सुप्रीम कोर्ट दोनों के दस ऐतिहासिक केस के डिजिटल रिकॉर्ड शामिल हैं. दिल्ली हाई कोर्ट का पहला जजमेंट, इंदिरा गांधी हत्या, संसद हमला और लाल किला हमला जैसे कई जरूरी जजमेंट को शामिल किया गया है. का यह पहला भाग गांधी की हत्या के बाद की कानूनी प्रक्रिया के बारे में है.