रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब' कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था. यह शेर उर्दू के महान शायर ग़ालिब ने जिनके लिए लिखी, उनका आज ही के दिन साल 1723 में यौम-ए-पैदाइश हुआ. यानी 28 मई 1723 को आगरा के अकबराबाद में उनका जन्म हुआ. ये वही जगह है जहां मिर्जा ग़ालिब का भी जन्म हुआ. कहते हैं कि उर्दू शायरी में मिर्जा ग़ालिब से ऊंचा मकाम मीर तकी मीर का है. और यह मिर्जा ग़ालिब ने खुद एक शेर के जरिए बता दिया था. मीर को ख़ुदा-ए-सुखन यानी कि शायरी का ख़ुदा कहा जाता है. आज हम उनके जन्मदिन के मौके पर उनके जिंदगी के बारे में और उनके बीस यादगार और चुनिंदा शेर के बारे में बताएंगे.
मुफ़लिसी में गुजरा बचपन
उर्दू और फारसी के महान शायर मीर तकी मीर जब 10 साल के थे तभी उनके पिताजी का इंतकाल (देहांत) हो गया था. मुफ़लिसी की जिंदगी थी तो नौकरी की तलाश में मीर दिल्ली आ गए. यहां बादशाह समसाउद्दौला ने मीर को एक रुपया रोज पर रखा. लेकिन मीर को धक्का तब लगा जब साल 1739 में नादिर शाह ने दिल्ली पर चढ़ाई की. इस लड़ाई में बादशाह समसाउद्दौला मारे गए. इसके बाद मीर वापस आगरा चले गए. दोबारा वो दिल्ली आए. और इसी दौरान उनको ख़ान आरजू की बेटी से इश्क हुआ और यहीं से उनकी शायरी परवान चढ़ती गई. इस दौरान उन्होंने लिखा,
'पत्ता पत्ता, बूटा बूटा हाल हमारा जाने है,
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग तो सारा जाने है'
मीर की उम्र करीब 25-26 साल की रही होगी तब उन्होंने दूसरी बार दिल्ली को लूटते देखा. इस बार अहमद शाह अब्दाली ने दिल्ली को लूटा. इस त्रासदी की झलक मीर के शेर में भी देखने को मिलती है. इसके बाद मीर दिल्ली को छोड़कर भटकते रहे. कई शहरों में ठिकाना बनाया लेकिन मन कहीं नहीं लगा. साल 1782 में मीर ने लखनऊ को अपना ठिकाना बनाया. यहीं उनकी मुलाकात नवाब आसफ़ुद्दौला से हुई. नवाब ने उन्हें 300 रुपए महीने पर अपने दरबार में रख लिया. मीर फिर नवाब के दरबार के ही होकर रह गए. वो बेहद सलीके से अपनी बातें रखने वाले इंसान थे. लेकिन कहते हैं कि मीर ने अपने पूरी जिंदगी में इतनी खराब परिस्थितियां देखी कि उसका असर उनके स्वभाव पर हुआ. वो धीरे-धीरे गुस्सैल होते गए. उन्होंने ख़ुद के बारे में लिखा है कि
सीना तमाम चाक है सारा जिगर है दाग
है मजलिसों में नाम मेरा 'मीरे' बेदिमाग
एक बार लिखना शुरू किया तो ताउम्र लिखते रहे
कहते हैं कि ग़ालिब के शेर में मीर का असर दिखता है. ग़ालिब खुद महान शायर हुए और जब ग़ालिब के शेर में मीर की झलक मिले तो इसी से अंदाजा लगाइए उनके कद का. मीर ताउम्र लिखते रहे. कुल 6 दीवान, 13 हजार अशआर यानी 13 हजार शेर और करीबन ढाई हजार गज़लें लिखी. मीर को दुनिया नर्म मिज़ाज शख्सियत, महान शायर और एक खुद्दार इंसान के रूप में जानती है. खुद्दारी ऐसी कि एक बार लखनऊ के नवाब ने उन्हें तोहफ़े के बदले शेर पढ़ने को कहा लेकिन मीर ने मना कर दिया यह कहते हुए कि आप हमारी शायरी नहीं समझ पाएंगे. इसके अलावा एक किस्सा और है कि नवाब के बर्ताव के कारण वो गुस्सा हो गए और नवाब के एक हजार रुपए को ठुकरा दिया. वो आखिरी सांस तक लखनऊ में रहे लेकिन उनको लखनऊ से उतना प्यार नहीं हुआ जितना दिल्ली से था.
ये हैं उनके चुनिंदा शेर
1.राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या
2. बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो
3 उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया
4 .मेरे मालिक ने, मेरे हक में, यह अहसान किया
खाक-ए-नाचीज था मैं, सो मुझे इंसान किया
5.नाहक हम मजबूरों पर, यह तोहमत है मुख्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं, हमको अबस बदनाम किया
6 .'मीर' बंदों से काम कब निकला
मांगना है जो कुछ खुदा से मांग
7 .नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
8 .तुमने जो अपने दिल से भुलाया हमें तो क्या
अपने तईं तो दिल से हमारे भुलाइए
9 .काबे जाने से नहीं कुछ शेख मुझको इतना शौक
चाल वो बतला कि मैं दिल में किसी के घर करूं
10 .इक लिगाह कर के उसने मोल लिया
बिक गए आह, हम भी क्या सस्ते
11. मय में वह बात कहां जो तेरे दीदार में है,
जो गिरा फिर न उसे कभी संभलते देखा
12. अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर'
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया
13. हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए
उस की ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए
14. याद उस की इतनी ख़ूब नहीं 'मीर' बाज़ आ
नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा
15. दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है
ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया
16. इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है
17. फूल गुल शम्स ओ क़मर सारे ही थे
पर हमें उन में तुम्हीं भाए बहुत
18. शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ
दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का
19. होगा किसी दीवार के साए में पड़ा 'मीर'
क्या रब्त मोहब्बत से उस आराम-तलब को
20. मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं