मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम उर्दू शायरी का पर्याय है. उनका असल नाम मिर्ज़ा असदुल्लाह खान था और ग़ालिब उनका उपनाम या कहें कि कलम नाम था. इससे उन्होंने अपार प्रसिद्धि हासिल की. उर्दू शायरी को पसंद करने वाला हर शख्स आज मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी का दीवाना है.
मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म 1797 में आगरा में तुर्की कुलीन वंश में हुआ था. मिर्जा ग़ालिब के सिर माता-पिता का साया बहुत छोटी उम्र में उठ गया था. इसके बाद उन्हें उनके चाचा ने पाला. लेकिन जब चाचा भी दुनिया से चले गए तो ग़ालिब अपने ननिहाल में रहे. यहां पर 13 वर्ष की उम्र में उनकी शादी हो गई थी.
शादी के बाद वह दिल्ली, अपने ससुराल में ही सदा के लिए बस गए. ऐसा कहा जाता है कि उनके सात बच्चे थे लेकिन दुर्भाग्य से उनमें से कोई भी जीवित नहीं रहा.
शराब और जुए से रहा जीवनभर नाता
मिर्ज़ा ग़ालिब के बारे में एक और दिलचस्प तथ्य यह है कि दो चीज़ें उनकी कमज़ोरी थीं - शराब पीना और जुआ खेलना. ये दोनों दोष जीवन भर उसके साथ रहे. भले ही उस समय जुए को अपराध माना जाता था, लेकिन ग़ालिब को इसकी कभी परवाह नहीं थी. वास्तव में, वह स्वयं कहा करते थे कि वे सच्चे अर्थों में कट्टर मुसलमान नहीं थे!
मिर्ज़ा अपनी इन आदतों की वजह से ताउम्र तंगहाली में रहे. अक्सर वह लोगों से उधार लेते रहते थे. बताते हैं कि मिर्ज़ा पर जमानेभर का कर्ज़ थी. और उस समय उनके लेखन को ज्यादा महत्व नहीं मिला और आज उन्हें पढ़ने वाले लोग एक शायरी में उनके मूरीद हो जाते हैं. इसलिए अब यह कहना गलत नहीं कि आज यह जमाना उनका कर्ज़दार है. आज, वह उर्दू में सबसे ज्यादा लिखे जाने वाले और सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले कवि हैं.
सम्मान में मिली थी मिर्ज़ा उपाधि
काम की बात करें तो मिर्जा गालिब बहादुर शाह जफर द्वितीय के दरबार के महत्वपूर्ण कवियों में से एक थे. बादशाह, जो उनके छात्र भी थे, ने ग़ालिब को दब्बर-उल-मुल्क और नज्म-उद-दौला की शाही उपाधियों से सम्मानित किया. बादशाह ने उनके सम्मान में उपाधि जोड़ी थी - मिर्जा नोशा और फिर उन्होंने मिर्ज़ा को अपने नाम के साथ जोड़ लिया.
उन्होंने 11 साल की उम्र में अपनी पहली कविता लिखी थी और वह उर्दू, फ़ारसी और तुर्की जैसी कई भाषाओं के ज्ञाता थे. उनकी ज्यादातर कविताएं और शेर असफल प्रेम और उसकी पीड़ा के बारे में हैं. उन्होंने जीवन दर्शन और रहस्यवाद के बारे में भी बहुत कुछ लिखा. वे स्वयं को बड़ी गहराई में अभिव्यक्त करने में सफल रहे क्योंकि उन्होंने अपनी कविता में अपने प्रेमी को कम महत्व दिया और अपनी भावनाओं को अधिक महत्व दिया.
15 फरवरी 1896 को दिल्ली में ही उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली. उनके घर को आज एक मेमोरियल में बदल दिया गया है.
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