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नगा वार्ता में अब तक गतिरोध की क्या है वजह, हत्याकांड का क्या हो सकता है असर, जानिए...

नगालैंड के ज्यादातर लोग खुद को भारत का हिस्सा नहीं मानते, और देश की आजादी के बाद से ही नगालैंड उग्रवाद की चपेट में रहा है. उनकी दलील है कि ब्रिटिश कब्जे से पहले यह एक स्वाधीन इलाका था. अंग्रेजों की वापसी के बाद नगालैंड ने खुद को स्वाधीन घोषित कर केंद्र के खिलाफ हिंसक अभियान शुरू कर दिया था.

रविवार को हमले के बाद नागालैंड के मोन शहर में असम राइफल्स के शिविर में लगी आग रविवार को हमले के बाद नागालैंड के मोन शहर में असम राइफल्स के शिविर में लगी आग
हाइलाइट्स
  • हालिया घटना में 13 लोगों की हुई है मौत,11 हुए हैं घायल

  • हत्याकांड को लेकर नगावार्ता एक बार फ‍िर चर्चा में

देश के पूर्वोत्तर राज्य नगालैंड के मोन जिले में गुस्साई भीड़ ने रविवार दोपहर असम राइफल्स के कैंप और कोन्याक यूनियन के दफ्तर में कथित तौर पर तोड़फोड़ की थी. जिले में सुरक्षाबलों की कथित गोलीबारी में 13 आम नागरिकों की मौत के बाद हालात अभी भी नाजुक बने हुए हैं. एनएससीएन (आईएम) के साथ बातचीत करने वाले प्रमुख नगा समूह ने इसे सभी नगाओं के लिए "काला दिन" घोषित कर दिया है. 

विवाद की पृष्ठभूमि

नगालैंड के ज्यादातर लोग खुद को भारत का हिस्सा नहीं मानते, और देश की आजादी के बाद से ही नगालैंड उग्रवाद की चपेट में रहा है. उनकी दलील है कि ब्रिटिश कब्जे से पहले यह एक स्वतंत्र इलाका था. अंग्रेजों की वापसी के बाद इस राज्य ने खुद को स्वाधीन घोषित कर केंद्र के खिलाफ हिंसक अभियान शुरू कर दिया था. साल 1947 में देश के आजाद होने के समय नगा समुदाय के लोग असम के एक हिस्से में रहते थे.

देश आजाद होने के बाद नागा कबीलों ने संप्रभुता की मांग में आंदोलन शुरू किया था. उस दौरान बड़े पैमाने पर हिंसा भी हुई थी जिससे निपटने के लिए उपद्रवग्रस्त इलाकों में सेना तैनात करनी पड़ी थी. उसके बाद साल 1957 में केंद्र सरकार और नगा गुटों के बीच शांति बहाली पर आम राय बनी. इस सहमति की तर्ज  पर असम के पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाले तमाम नगा समुदायों को एक साथ लाया गया. बावजूद इसके इलाके में उग्रवादी गतिविधियां जारी रहीं. तीन साल बाद आयोजित नगा सम्मेलन में तय हुआ कि इस इलाके को भारत का हिस्सा बनना चाहिए.

अलग राज्य बनने के बाद भी नहीं थमी उग्रवादी गतिविधियां

उसके बाद साल 1963 में नगालैंड को राज्य का दर्जा मिला और अगले साल यानी 1964 में यहां पहली बार चुनाव कराए गए. लेकिन अलग राज्य बनने के बावजूद नगालैंड में उग्रवादी गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगाया जा सका. साल 1975 में तमाम उग्रवादी नेताओं ने हथियार डाल कर भारतीय संविधान के प्रति आस्था जताई. लेकिन यह शांति क्षणभंगुर ही रही. वर्ष 1980 में राज्य नें सबसे बड़े उग्रवादी गठन नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) का गठन किया गया. बाद में यह संगठन दो गुटों में बंट गया.

ताजा गतिरोध

एनएससीएन (आई-एम) ने राज्यपाल और शांति प्रक्रिया में मध्यस्थ आरएन रवि की भूमिका पर सवाल खड़े किए थे. उनका कहना था कि आरएन रवि इस प्रक्रिया को पटरी से उतारने की कोशिश कर रहे हैं. और केंद्र से उनकी जगह कोई दूसरा मध्यस्थ नियुक्त करने की मांग की है. दरअसल इस नाराजगी की जड़ रवि की टिप्पणियों से उपजी थी. तब रवि ने राज्य सरकार को पत्र भेज कर संगठन पर अवैध गतिविधियों और वसूली में शामिल होने का आरोप लगाया था. राज्यपाल के पत्र के जवाब में ही सरकार को एक सर्कुलर निकाल कर सरकारी कर्मचारियों से यह बताने को कहा कि किसी उग्रवादी संगठन से उनके परिजनों का कोई संबंध तो नहीं है या परिवार को कोई सदस्य एनएससीएन में शामिल तो नहीं है.

केन्द्र के तमाम दावों के बावजूद नगालैंड ने नहीं छोड़ी अलग संविधान और झंडे की मांग

शांति प्रक्रिया के तहत आखिरी दौर की बातचीत बीते साल अक्टूबर में ही खत्म होने का दावा किया गया था. लेकिन अब तक इस समझौते पर दस्तखत नहीं हो सके हैं. दरअसल, केंद्र के तमाम दावों के बावजूद नगा संगठनों ने अब तक अलग संविधान और झंडे की मांग नहीं छोड़ी है. एनएससीएन (आई-एम) की स्टीयरिंग समिति के सदस्य वी होराम कहते हैं, "संविधान और झंडे पर फैसला होना अभी बाकी है. यह दोनों मुद्दे बेहद अहम हैं. हम वर्षों से अपने झंडे तले संघर्ष करते रहे हैं.” उनका कहना है कि फिलहाल शांति समझौते पर हस्ताक्षर की कोई समय सीमा तय करना मुश्किल है. दोनों पक्ष इसकी हरसंभव कोशिश कर रहे हैं. लेकिन समाधान ऐसा होना चाहिए जो दोनों पक्षों के लिए सम्मानजनक और स्वीकार्य हो. हम कोई थोपा हुआ समझौता स्वीकार नहीं करेंगे.

हत्याओं का बातचीत पर क्या असर होगा?

हत्याओं के खिलाफ जनता के गुस्से को देखते हुए, सूत्रों ने कहा कि इसमें भारत बनाम नगा लोगों की कहानी को फिर से जिंदा कर दिया है. उनका कहना है कि नगालैंड के लोगों का मानना है कि उनपर दूसरे भारतीय राज्य अत्याचार कर रहे हैं. इसके लिए वो 1950 और 60 के दशक का हवाला दे रहे हैं, वो इस बात पर नाराजगी जाहिर कर रहे हैं कि ताजा हुए हमले की घटना कितनी गंभीर थी. सूत्रों ने कहा कि कुछ विद्रोही समूह इन हत्याओं का फायदा भी उठा रहे हैं, और एनएससीएन (आई-एम) के हाथ भी इस हमले से मजबूत हुए हैं, और इसकी सबसे बड़ी वजह सरकार का बैकफुट पर होना है. 

एफए के बावजूद क्यों है गतिरोध?

2015 में केंद्र सरकार ने एलान क‍िया था क‍ि फ्रेमवर्क एग्रीमेंट (एफए) पर दस्तखत के साथ ही बातचीत पूरी हो गई लेक‍िन सूत्रों के मुताब‍िक केंद्र को अब लगता है क‍ि फाइनल डील कब तक हो पाएगी, यह तय नहीं है. जानकार कहते हैं कि पूरे मामले में एफए ही सबसे बड़ा रोड़ा बन रहा है. सरकारी अधिकारियों का कहना है कि ये बिल्कुल साफ है कि दोनों पक्ष अपनी-अपनी सुविधा के मुताबिक या अपने नजरिए से इस घटना को देख रहे हैं. NSCN (I-M) ने तर्क दिया है कि FA ने ये साफ किया है कि भारत और नगालैंड "संप्रभु शक्ति" साझा करेंगे और एक दूसरे के अस्तित्व को समझेंगे. इस बात का ये साफ सुथरा मतलब मतलब ये है कि केंद्र नगालैंड की संप्रभुता और देश के भीतर रहने के लिए नगा लोगों की इच्छा को एक अलग इकाई के रूप में स्वीकार करता है. आगे ये तर्क दिया गया कि  इसका सीधा सा मतलब है कि केंद्र सरकार नगालैंड के लिए एक अलग ध्वज और संविधान के लिए सहमत हो गया था. लेकिन केंद्र ने कहा है कि भारत के भीतर किसी राज्य को संप्रभुता देने का कोई सवाल ही नहीं है और इसलिए झंडा और संविधान दोनों ही सवालों के घेरे में हैं.

NSCN (I-M) ने तर्क दिया है कि संप्रभुता और सह-अस्तित्व को दो संस्थाओं के रूप में साझा करने के संदर्भ का सीधा सा मतलब है कि नगालैंड अपने संविधान और ध्वज के साथ भारत के भीतर एक संप्रभु बना रहेगा. जबकि केंद्र ने कभी भी इसपर अपना रूख साफ नहीं किया. पूर्व नगा वार्ता वार्ताकार ने पिछले साल कहा था कि एनएससीएन (आईएम) का बयान एकदम "बेतुका " थी और केंद्र ने क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता पर कभी बात नहीं की है.  

एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने कहा कि एफए का मसौदा बेहद ही खराब है. एफए केन्द को कम शक्तियां देना चाहता है. इस तरह ये दुश्मनी बढ़ाने का काम कर रहा है. यहां पर एफए अपने शब्दों को भी साफ ढंग से नहीं रख पाता और वो ऐसा जान बूझ कर करते है ताकि सरकार को कुछ भी समझ में आए ही नहीं.  वो आगे कहते हैं कि 'अगर एफए नहीं होता, तो शायद अब तक सब कुछ साफ हो गया होता '
 

ऐसा FA क्यों तैयार किया गया था?

सरकारी सूत्रों का कहना है कि इस एफए को बनाने के पीछे झंडा और संविधान इतने मार्मिक मुद्दे नहीं थे, क्योंकि तब जम्मू कश्मीर के पास ये अधिकार थे. हालांकि ये तर्क देना भी गलत नहीं होगा कि इसका मसौदा तैयार करने वालों को उस समय भी कश्मीर  पर सत्तारूढ़ पार्टी की वैचारिक स्थिति पर विचार करना चाहिए था और आला अधिकारियों की सलाह लेनी चाहिए थी. जम्मू कश्मीर पर 5 अगस्त 2019 को लिए गए फैसले के बाद नगालैंड का मुद्दा और गर्म हो गया है. 

आगे का रास्ता क्या है?

एक सीन‍ियर अधिकारी का कहना है कि केंद्र सरकार ने कहा कि शनिवार की हत्याओं से पैदा हुई जनता के गुस्से की निष्पक्ष और त्वरित जांच के माध्यम से शांत करना होगा, इसके बाद जिम्मेदार लोगों पर कार्रवाई करनी होगी. गृह मंत्री अमित शाह ने सोमवार को संसद में घोषणा की कि राज्य सरकार भी एक विशेष जांच दल का गठन करे. इन हमलों के बाद सरकार का ये फर्ज है कि वह लोगों को समझाए कि ताजा हुई हत्याओं के बावजूद भी सरकार इस बारे में खुल कर बात कर रही है, और यही सही वक्त है जब सरकार ये दोहराए कि वो क्या दे सकती है और क्या नहीं.