अयोध्या में राम लला की मूर्ति को उत्तराखंड की पारंपरिक ऐपण कला से सजी मलबरी सिल्क से बनी पोशाक से सजाया गया. मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस आयोजन को राज्य के लोगों के लिए एक "धन्य क्षण" बताया.
एक्स पर एक पोस्ट में, धामी ने कहा, "अयोध्या में राम लला की दिव्य मूर्ति पर उत्तराखंड की प्रसिद्ध ऐपण कला से सुसज्जित शुभवस्त्रम भगवान राम में राज्य के लोगों की अपार आस्था का प्रतीक है. इसे उत्तराखंड के कुशल कारीगरों द्वारा तैयार किया गया है. यह हम सभी उत्तराखंडियों के लिए सौभाग्य का क्षण है।" धामी ने खुद जाकर से अयोध्या में मंदिर अधिकारियों को 'शुभवस्त्रम' पहुंचाया था.
राज्य की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और पारंपरिक कलाएं पहचान हासिल कर रही हैं. रामलला की पोशाक को निशु पुनेठा ने डिजाइन किया है. निशु पिछले कई सालों से ऐपण आर्ट पर काम कर रही हैं. आपको बता दें कि लोक कला ऐपण की उत्पत्ति उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र से हुई है. यहां पर बहुत से युवा अपनी इस कला को न सिर्फ सहेज रहे हैं बल्कि इससे अच्छा खासा रोजगार भी कमा रहे हैं.
आंगन-दीवार से लेकर कपड़ों तक
उत्तराखंड के कुमाऊं इलाके में ऐपण कला पीढ़ियों से चली आ रही है. 'ऐपण' शब्द लेपना से प्रेरित है जिसका अर्थ है लेप करना. इसकी जड़ें अर्पण शब्द से भी जुड़ी है जिसका अर्थ है समर्पित करना. ऐपण को सामान्य भाषा में जानें तो यह रंगोली की तरह है. कुमाऊं रीजन में शुभ अवसरों, त्योहारों और ब्याह शादी में घरों के आंगन, दहलीज और दीवारों पर ऐपण बनाई जाती हैं. एक मान्यता है कि घरों के बाहर ऐपण काढ़ने से घर को बूरी नजर नहीं लगती है. कुछ साल पहले तक ऐपण घरों के आंगन व दीवारों तक ही सीमित थी.
हालांकि, पिछले कुछ सालों में ऐपण की प्रसांगिकता बढ़ाने के लिए और रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए युवाओं ने ऐपण के साथ कई प्रयोग किए हैं. अब रोजमर्रा की जिदंगी में इस्तेमाल होने वाली चीजों को भी इस कला से सजाकर मार्केट तक पहुंचाया जा रहा है. आजकल ऐपण कला से होम डेकॉर के साथ-साथ कपड़े भी सजाए जा रहे हैं. पहाड़ी लोगों का मानना है कि ऐपण कला इस इलाके की संसकृतिक विरासत को दर्शाने के साथ-साथ सौभाग्य और सकारात्मकता लाती है.
कैसे बनाते हैं ऐपण
ऐपण बनाने में बहुत ज्यादा चीजों की जरूरत नहीं होती है. इसे बनाने के लिए गेरू और चावल के पेस्ट (बिश्वर) का इस्तेमाल होता है. पारंपरिक तरीके से ऐपण बनाएं तो सबसे पहले गेरू को पानी में भिगोकर रखा जाता है और इससे किसी भी चीज को लीपा जाता है. एक बार जब यह सूख जाता है इसके ऊपर तो चावल के पेस्ट से अलग-अलग तरह के डिजाइन बनाए जाते हैं. डिजाइन बनाने के लिए सूती स्पंज और लकड़ी की छड़ियों का इस्तेमाल करते हैं.
ये डिजाइन ऐपण की खासियतों में से एक हैं. सबसे पहले बीच में स्क्वायर बनाया जाता है जिसे 'चौक' कहते हैं और फिर इसके चारों और जियोमैट्रिक शेप और पैटर्न बनाए जाते हैं. पारंपरिक रूप में महिलाएं अपनी ऊंगलियों से ही ये पैटर्न बनाती थीं. इनमें आम तौर पर शंख, लताएं, पुष्प पैटर्न, स्वस्तिक, देवी के पदचिन्ह, ज्यामितीय डिजाइन और देवी-देवताओं की आकृतियां शामिल हैं.
हालांकि, आजकल बहुत से लोग रंगों का इस्तेमाल करके ऐपण बनाते हैं और ब्रश आदि का इस्तेमाल भी करते हैं. ऐपण का निर्माण एक बिंदु से शुरू और समाप्त होता है। केंद्र में रखा गया बिंदु ब्रह्मांड के केंद्र का प्रतीक है। इस केंद्र से अन्य सभी रेखाएं और पैटर्न निकलते हैं जो इसके चारों ओर की दुनिया के बदलते स्वरूप को दर्शाते हैं. बदलते समय के साथ ऐपण में नए डिजाइन्स भी ईजाद किए जा रहे हैं.
सदियों पुरानी है ऐपण कला
बात अगर ऐपण कला के इतिहास की करें तो चंद वंश के शासनकाल के दौरान ऐपण लोक कला का विकास हुआ. चंद वंश ने 10वीं से 16वीं शताब्दी तक राज किया था. ऐसा माना जाता है कि पारंपरिक ऐपण कला सबसे पहले कुमाऊं क्षेत्र में प्रचलित थी और फिर, बाद में, इस क्षेत्र के अन्य क्षेत्रों में चली गई, क्योंकि इस शिल्प का अभ्यास करने वाले समुदाय और कलाकारों ने पलायन किया. आज भी पहाड़ों में महिलाएं किसी खास दिन पर सुबह-सुबह घरों की दहलीज पर ऐपण बनाती हैं ताकि उनके घर में सुख-समृद्धि रहे. समय के साथ, यह कई घरेलू वस्तुओं और कपड़ों पर भी दिखाई देने लगा है. कुमाऊंनी ऐपण कला को सितंबर 2021 में भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग मिला था.
उत्तराखंड में आज कई युवा इसे प्रोफेशनल तौर पर प्रैक्टिस कर रहे हैं. इनमें मिनाक्षी खाती का नाम शामिल होता है जिन्होंने 'मीनाकृति: द ऐपण प्रोजेक्ट' की शुरुआत की और आज पूरे भारत में पहचान बना ली है. इसी तरह, राज्य की एक और बेटी, अभिलाषा पालीवाल अपना स्टार्टअप 'पर्वतजन आर्ट' चला रही हैं. उत्तराखंड सरकार भी इस पारंपरिक कला को बढ़ावा दे रही है.