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Exclusive: दिव्यांगजनों को नए पंख दे रहा सार्थक, रोजगार दिला जितेंद्र अग्रवाल अब तक कर चुके 70 हजार लोगों की मदद

डॉ जितेन्द्र अग्रवाल ने दिव्यांगजनों के लिए एक ऐसा प्लेटफॉर्म तैयार किया है जिसके माध्यम से वे रोजगार पा सकते हैं. सार्थक एजुकेशनल ट्रस्ट दिव्यांगजनों को कौशल प्रदान करने और सशक्त बनाने वाला मंच है. अब तक पूरे भारत में मौजूद 20 सेंटर्स में अलग-अलग स्किल्स सिखाई जाती हैं,

जितेंद्र अग्रवाल जितेंद्र अग्रवाल
हाइलाइट्स
  • 2004 में खो दी थी आंखों की रोशनी  

  • लोगों को जागरूक करना जरूरी है 

भारत में 14 करोड़ लोग किसी न किसी प्रकार की विकलांगता के साथ जी रहे हैं. विकसित देशों के विपरीत, भारत के दिव्यांगजन आज भी चुनौतियों से जूझ रहे हैं. लेकिन इसी बीच कुछ लोग हैं जो अपनी परेशानियों को पीछे रखकर दूसरों के लिए मसीहा बन सामने आए हैं. जितेंद्र अग्रवाल भी उन्हीं में से एक हैं. डॉ जितेन्द्र अग्रवाल ने दिव्यांगजनों के लिए एक ऐसा प्लेटफॉर्म तैयार किया है जिसके माध्यम से वे रोजगार पा सकते हैं. सार्थक एजुकेशनल ट्रस्ट दिव्यांगजनों को कौशल प्रदान करने और सशक्त बनाने वाला मंच है. अब तक पूरे भारत में मौजूद 20 सेंटर्स में अलग-अलग स्किल्स सिखाई जाती हैं, जिसकी मदद से आज खुदरा, बीपीओ, आईटी जैसे विभिन्न क्षेत्रों में दिव्यांगजन नौकरी पा चुके हैं. सार्थक ने अबतक 46,951 से ज्यादा दिव्यांगजनों और 31,286 पीडब्ल्यूडी को सफलतापूर्वक ट्रेनिंग और उन्हें प्लेस करने का काम किया है. 

इसको लेकर डॉ जितेन्द्र अग्रवाल ने GNT डिजिटल को बताया कि सार्थक का उद्देश्य दिव्यांगजनों को रोजगार देना है. वे बताते हैं, “2008 में जब सार्थक शुरू किया गया था, तब उससे पहले कंपनियों को पता ही नहीं होता था कि दिव्यांगजनों को हायर कैसे करना है, या किस रोल में करना है… और कैसे क्या किया जाए. हमने सार्थक के माध्यम से डिमांड खड़ी की. अलग-अलग कंपनियों से बातचीत की. उन्हें बताया कि आप दिव्यांगजनों को भी उनकी स्किल्स देखकर हायर कर सकते हैं और उन्हें भी अपने बिजनेस मॉडल में शामिल करें.15 सालों में सार्थक ने करीब 70,000 लोगों की मदद की है. इतना ही नहीं आज 2000 कंपनियां उन्हें हायर कर रही हैं.” 

2004 में खो दी थी आंखों की रोशनी  

दरअसल, 2004 तक, डॉ. जितेंद्र अग्रवाल, एक प्रैक्टिसिंग डेंटल सर्जन थे. लेकिन उसी साल उन्होंने रेटिना के मैक्यूलर डीजनरेशन के कारण अपनी आंखों की रोशनी खो दी. चार साल तक जितेंद्र उस पीड़ा से लड़ते रहे. जितेंद्र बताते हैं कि उन्हें छोटे-छोटे कामों के लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता था. और इसमें सबसे ज्यादा दुखद था कि संसाधनों तक सीमित पहुंच थी.” हालांकि, अपने भाग्य को दोष देने के बजाय जितेंद्र ने खुद की और उसी स्थिति में लाखों लोगों की मदद करने की जिम्मेदारी लेने का फैसला किया. कंप्यूटर की मदद से उन्होंने स्क्रीन रीडर और दूसरे सॉफ्टवेयर में ट्रेनिंग ली. खुद को सशक्त करने के बाद उन्होंने दिव्यांगजनों को सशक्त बनाने का सोचा. 

इसे लेकर जितेंद्र कहते हैं, “मैं और मेरी पत्नी हम दोनों डेंटिस्ट थे. लेकिन जब मैंने अपनी आंखों की रोशनी खो दी तो मुझे लगा कि अब क्या करना है. मैं अपने रोजगार के लिए क्या कर सकता हूं? ये काफी चैलेंजिंग था. तब मेरे एक दोस्त ने बताया कि जो लोग देख नहीं सकते हैं वे स्क्रीन रीडिंग सॉफ्टवेयर से कंप्यूटर पर काम कर सकते हैं. तब मुझे लगा कि इसे ट्राई किया जा सकता है. तब मैंने ट्रेनिंग ली और शुरू किया. जब मैं फ्री हुआ तब मैंने प्राइवेट नौकरियों में दिव्यांगजन कैसे आ सकते हैं उसके लिए काम करना शुरू किया. हमने सार्थक की शुरुआत 8 लोगों को ट्रेनिंग देकर की. उनकी प्लेसमेंट भी हुई. जब ये बात मार्किट में आई तब फिर लोग सामने आए. तब हमने अच्छे से सार्थक को लेकर प्लानिंग की और इसे शुरू किया.”    

लोगों को जागरूक करना जरूरी है 

हालांकि, ये सफर इतना आसान नहीं था. सार्थक एजुकेशनल ट्रस्ट के फाउंडर जितेंद्र अग्रवाल बताते हैं, “शुरुआत में तो आती थी काफी परेशानी. ये लगता था कि अब अगले दिन क्या करना है, या अगले दिन रिसोर्सेज कैसे आएंगे?  मेरा बैकग्राउंड भी कॉर्पोरेट वाला नहीं था, लेकिन दृढ़ निश्चय था और हम काम करते चले बस. लोग इसके बारे में जानते चले गए और ये आगे बढ़ता गया.” 

डॉ जितेंद्र अग्रवाल बताते हैं कि सबसे बड़ा चैलेंज जागरूकता को लेकर है. लोगों को जागरूक होने की जरूरत है. वे कहते हैं, “जब बच्चा जन्म लेता है तो उसके मां बाप को नहीं पता होता है कि क्या करें. जब तक उन्हें समझ आता है तब तक बच्चे की उम्र निकल जाती है. ऐसे में दोष किसी का नहीं है लेकिन सबको सहना पड़ता है. मैं खुद की ही बात करूं तो जब मुझे अपनी बीमारी के बारे में पता चला तो डॉक्टर ने सबसे पहले कहा कि आप कुछ नहीं कर सकते. तब मुझे लगा की जब हमारे मेडिकल डॉक्टर्स को ही नहीं पता है कि हम ऐसे में क्या कर सकते हैं तो फिर इसमें नॉर्मल लोगों को कैसे पता होगा? ऐसे में अगर डॉक्टर बच्चे के जन्म के समय ही बता दें कि अगर वह देख नहीं सकता है तो क्या क्या उपाय किए जा सकते हैं, या दुनिया में कैसे कैसे ट्रीटमेंट हैं तो शायद उस बच्चे का जीवन बन सकता है. जैसे हमने पोलियो प्रोग्राम बड़े लेवल पर चलाया ऐसे में डिसेबिलिटी पर भी बड़े-प्रोग्राम अलग-अलग लेवल पर चलाने की जरूरत है. सबसे बड़ा चैलेंज जागरूकता का है. फिर पॉलिसी लेवल पर काफी चीजें हो जाती हैं. लेकिन जमीन पर वो हो नहीं हो पाती हैं.”

दिव्यांग बच्चों के लिए क्या होना जरूरी है? 

दिव्यांगजनों के लिए क्या होना चाहिए इसे लेकर जितेंद्र कहते हैं की शिक्षा का अधिकार हर बच्चे को दिया गया है, लेकिन क्या ऐसा सच में है? वे बताते हैं, “30 सरकारी स्कूलों पर 1 स्पेशल एजुकेटर होता है. ऐसे में एक एजुकेटर महीने में केवल एक स्कूल में ही जा पाता है. ये एजुकेटर एक डिसेबिलिटी के होते हैं मल्टीपल के नहीं. तो हम सोच सकते हैं कि ये कितना चल्लेंजिंग है. दूसरा है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर को लेकर सेंसिटिविटी है वो भी बहुत जरूरी है. शिक्षकों को समझाया जाना चाहिए कि ये दिव्यांग हैं बीमार नहीं हैं. तीसरी एक्सेसिबिलिटी का चैलेंज भी है. बच्चों के पास सभी तरह के रिसोर्स होने चाहिए. स्पेशल एजुकेटर भी अलग-अलग डिसेबिलिटी के होने चाहिए.” 

देश में हैं 14 करोड़ दिव्यांगजनों के लिए कर रहे काम 

जितेंद्र GNT डिजिटल को बताते हैं कि सार्थक ने फिजिकल और डिजिटल दोनों लेवल पर काम किया. वे कहते हैं, “सार्थक के इस वक्त देश में 20 सेंटर्स हैं. इनमें अलग-अलग स्किल्स सिखाई जाती हैं. ये सभी मुफ्त होती हैं. देश में 14 करोड़ दिव्यांगजन हैं. जो देश के अलग-अलग हिस्सों में हैं. ऐसे में हमने इनके लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म बनाया. इसके लिए हमने 3 उपाय निकाले. पहला, कैप सारथी (CapSarathi) ये एक तरह का इन्फॉर्मेशन बैंक है जिसपर आकर लोग रजिस्टर कर सकते हैं. अभी तक 40 हजार यूजर्स इसका इस्तेमाल कर चुके हैं. इसमें दिव्यांगजनों के सामने आ रही मुश्किलों को समझा जाता है और उनका हल निकाला जाता है. हमने ऑनलाइन रोजगार पोर्टल (Sustainable Employment) भी बनाया है जिसका इस्तेमाल 30-35 हजार लोग कर रहे हैं. ज्ञान सारथी भी एक प्लेटफॉर्म बनाया गया है जिसपर भी स्किल्स सीख सकते हैं. हम एबिलंपिक्स भी चलाते हैं, इसमें स्किल्स को लेकर बड़ी बड़ी प्रतियोगिताएं होती हैं. ये दुनियाभर में किया जाता है.”  

आखिर में जितेंद्र अग्रवाल बताते हैं कि उनका मकसद सार्थक को वैश्विक स्तर पर लेकर जाना है. उनका मानना ​​है कि विकलांगता दुनिया भर के लोगों को प्रभावित करती है और सार्थक, जिसने पहले ही भारत में हजारों लोगों की जिंदगी बदल दी है, का लक्ष्य जल्द ही कई दूसरे देशों में दिव्यांगजनों पर सकारात्मक प्रभाव डालना है.