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Shaheed Diwas 2022: सिर्फ नाम नहीं बल्कि क्रांति थे भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु, देश के लिए दे दी निस्वार्थ कुर्बानी

ब्रिटिश सरकार को इन तीनों का इतना डर था कि उन्होंने तय तारीख से एक दिन पहले ही इन्हें फांसी दे दी. अंग्रेज सरकार को डर लगा कि कहीं कोई आंदोलन न हो जाए. इन तीनों युवाओं के बारे में देश के चप्पे-चप्पे में जाना जाने लगा था और उनकी सजा को लेकर आक्रोश भी दिखने लगा था. 

Shaheed Diwas 2022 (Photo: Wikimedia Commons) Shaheed Diwas 2022 (Photo: Wikimedia Commons)
हाइलाइट्स
  • 23 मार्च को मनाया जाता है 'शहीद दिवस'

  • इस दिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को दी गई थी फांसी

Shaheed Diwas 2022: हम भारतीयों के लिए 23 मार्च सिर्फ एक तारीख नहीं है बल्कि यह एक धरोहर है, जिसे इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखा गया है. इस धरोहर को अपनी अगली पीढ़ी तक पहुंचाना हमारी जिम्मेदारी है. 23 मार्च को 'शहीद दिवस' मनाया जाता है. 

आपको बता दें कि इसी दिन भारत की आजादी के लिए बैचेन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई थी. शायद ही कोई होगा भारत में जिसे इन तीनों के बारे में न पता हो. कहते हैं कि इन तीनों साथियों ने ब्रिटिश सरकार की नाक में दम कर रखा था. 

ब्रिटिश सरकार को इन तीनों का इतना डर था कि उन्होंने तय तारीख से एक दिन पहले ही इन्हें फांसी दे दी. अंग्रेज सरकार को डर लगा कि कहीं कोई आंदोलन न हो जाए. इन तीनों युवाओं के बारे में देश के चप्पे-चप्पे में जाना जाने लगा था और उनकी सजा को लेकर आक्रोश भी दिखने लगा था. 

यही कारण है कि तीनों को एक दिन पहले बगैर किसी को खबर किए रातोंरात फांसी पर चढ़ा दिया गया. 

बचपन में ही मन में पड़ गए क्रांति के बीज

28 सितम्बर 1907 को पंजाब के लायलपुर गाँव (अब पाकिस्तान में) में पैदा हुए भगत सिंह मात्र 8 साल की उम्र में ही देश की आजादी के बारे में सोचने लगे थे. 15 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपना घर छोड़ दिया था. क्योंकि उनकी शादी की बात चलने लगी थी.

भगत सिंह शादी नहीं करना चाहते थे और वह अपना घर छोड़कर कानपुर चले गए. उनका कहना कि अगर मेरा विवाह गुलाम भारत में हुआ, तो मेरी वधु केवल मृत्यु होगी. इसके बाद वह हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल हो गए थे. 

भगत सिंह लाहौर नेशनल कॉलेज के छात्र थे. यहीं पर उनकी दोस्ती सुखदेव से हुई था. सुखदेव का पूरा नाम सुखदेव थापर था. उनका जन्म पंजाब के शहर लायलपुर में 15 मई 1907 को हुआ था. जन्म से तीन माह बाद ही इनके पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण इना पालन-पोषण इनके ताऊ अचिन्तराम ने किया था.

वहीं, राजगुरु का पूरा नाम शिवराम हरी राजगुरु था और उनका जन्म पुणे के निकट खेड़ में हुआ था. राजगुरु बहुत ही कम उम्र में वाराणसी आ गए थे जहां वह भारतीय क्रांतिकारियों के साथ संपर्क में आए. स्वभाव से उत्साही राजगुरु स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देने के लिए इस आंदोलन में शामिल हुए और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) के सक्रिय सदस्य बन गए.

लिया लाला लाजपत राय की मौत का बदला

19 दिसंबर 1928 को राजगुरु ने भगत सिंह और सुखदेव के साथ मिलकर ब्रिटिश पुलिस अफसर जेपी साण्डर्स की हत्या की थी. असल में यह काम उन्होंने लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए किया था, जिनकी मौत साइमन कमीशन का विरोध करते वक्त हुई थी. 

उसके बाद 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली में सेंट्रल असेम्बली में हमला करने में उनका हाथ था. राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव का खौफ ब्रिटिश प्रशासन पर इस कदर हावी हो गया था कि इन तीनों को पकड़ने के लिये पुलिस को विशेष अभियान चलाना पड़ा.

राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास का सबसे मशहूर अदालती केस लड़ा


जेल में अपने जीवन के अंतिम दो वर्षों में, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सबसे प्रसिद्ध अदालती लड़ाई लड़ी.  उन्होंने न केवल अपने क्रन्तिकारी संदेशों को फैलाने के लिए अदालत का प्रयोग किया, बल्कि ब्रिटिश जेलों में क्रांतिकारियों के साथ होने वाले अमानवीय सलूक के खिलाफ भी आवाज उठायी. 

उनकी क्रांति और महान बलिदान ने बड़ी संख्या में लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने और समर्थन करने के लिए प्रेरित किया. 23 मार्च, 1931 को उन्हें फांसी दी गई और पंजाब के हुसैनवाला (अब पाकिस्तान में) में सतलुज नदी के तट पर अंतिम संस्कार किया गया. जिसके बाद भारत के प्यारे सपूतों को श्रद्धांजलि देने के लिए कई हजार लोग विभिन्न स्थानों पर एकत्र हुए. 

उनकी फांसी के समय, भगत सिंह और सुखदेव थापर सिर्फ 23 वर्ष के थे, जबकि शिवराम राजगुरु केवल 22 वर्ष के थे. ये क्रांतिकारी दुनिया से भले ही चले गये हों लेकिन लोगों के दिलों से इनका चले जाना असंभव है.