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Ajmer Sharif Dargah: भारत में अजमेर से हुई थी Sufism की शुरुआत, जानिए कब और किसने रखी थी नींव, कौन थे Khwaja Moinuddin Chishti 

Ajmer Sharif Dargah Controversy: सूफीवाद इस्लामी रहस्यवाद का ही रूप है. यह वैराग्य पर जोर देता है. इसमें भौतिकवाद से दूर रहने और खुद को ईश्वर को समर्पित करने पर जोर दिया गया है. सूफीवाद में आत्म-अनुशासन के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति पर जोर दिया गया है. जहां रूढ़िवादी मुसलमान बाहरी आचरण पर जोर देते हैं तो वहीं, सूफी आंतरिक शुद्धता पर जोर देते हैं. 

Ajmer Sharif Dargah (File Image) Ajmer Sharif Dargah (File Image)
हाइलाइट्स
  • 13वीं शताब्दी में भारत आए थे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती

  • सूफीवाद रूढ़िवादी इस्लाम का विकल्प बनकर आया था भारत

Who is Khwaja Moinuddin Chishti: एक बार फिर अजमेर शरीफ दरगाह (Ajmer Sharif Dargah) चर्चा में है. यहां शिव मंदिर (Shiv Temple) होने का दावा किया गया है. इसके बाद लोग जानना चाह रहे हैं कि आखिर सूफीवाद की शुरुआत कैसे हुई थी, अजमेर शरीफ दरगाह का इतिहास क्या है, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती कौन थे? आइए इन सारे सवालों के जवाब जानते हैं.

भारत में सूफीवाद (Sufism) की शुरुआत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती (Khwaja Moinuddin Chishti) ने की थी. वे 13वीं शताब्दी में भारत आए थे और राजस्थान (Rajasthan) के अजमेर (Ajmer) में बस गए थे. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती फारसी मूल के सुन्नी मुस्लिम, दार्शिक और धार्मिक विद्धान थे. उन्हें गरीब नवाज और सुल्तान-हिंद के नाम से भी जाना जाता था. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने भारतीय उपमहाद्वीप में सुन्नी इस्लाम के चिश्ती आदेश की स्थापना की और उसका प्रसार किया. यह एक रहस्यमय सूफी सिलसिला था. उनकी खानकाह अजमेर में है, जो ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह है. इस दरगाह को इंडो-इस्लामिक तरीके से बनाया गया है.

आखिर क्या है 'सूफी' का मतलब 
'सूफी' शब्द अरबी के 'सफ' से लिया गया है. इसका अर्थ होता है ऊन से बने कपड़े पहनने वाला. एक जमाने में ऊनी कपड़ों को आमतौर पर फकीरों से जोड़कर देखा जाता था. इसका दूसरा अर्थ होता है 'सफा', अरबी में इसका अर्थ होता है 'शुद्धता'. अरब के लोग रेत भरी आंधी से बचने के लिए ऊनी कपड़े पहनते थे. सूफी सुलह-ए-कुल यानी शांति और सद्भावना में यकीन करते हैं. उनके यहां की पीरी-मुर्शीदी की परंपरा भारत के गुरु-शिष्य की परंपरा की तरह है.

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कट्टर इस्लाम समर्थक सूफियों को नहीं स्वीकारते
सूफीवाद इस्लामी रहस्यवाद का ही रूप है. यह वैराग्य पर जोर देता है. इसमें भौतिकवाद से दूर रहने और खुद को ईश्वर को समर्पित करने पर जोर दिया गया है. सूफीवाद में आत्म-अनुशासन के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति पर जोर दिया गया है. जहां रूढ़िवादी मुसलमान बाहरी आचरण पर जोर देते हैं तो वहीं, सूफी आंतरिक शुद्धता पर जोर देते हैं. सूफी मानते हैं कि मानवता की सेवा करना ईश्वर की सेवा करने के समान है.

आखिर कट्टरपंथी सूफियों से दूरी क्यों बरतते हैं
इतिहाकार डॉ. दानपाल सिंह के अनुसार, भारत में इस्लाम जब आया तब वह तलवारों से लैस आक्रमणकारियों के साथ आया. ऐसे में भारत की जनता ने उन्हें दिल से नहीं स्वीकारा था. कई मध्यकालीन शासकों जैसे इल्तुतमिश, बलबन और अलाउद्दीन खिलजी ने जबरन धर्मांतरण की कोशिश की, लेकिन वो सफल नहीं हुए. ऐसे में सूफीवाद रूढ़िवादी इस्लाम का विकल्प बनकर भारत आया. भारत में इस्लाम के ह्रदय के रूप में सूफी का जन्म हुआ, जो संगीत और नृत्य की बदौलत काफी कुछ हद तक भक्ति मार्ग से मिलता-जुलता था. ऐसे में तब जाकर हिन्दुस्तान में हिंद-इस्लामी संस्कृति विकसित हुई. 

भारत में चार तरह के सूफी सिलसिले 
वैसे तो दुनिया में कई तरह की सूफी परंपरा है लेकिन भारत में चार तरह के सिलसिले ज्यादा प्रचलित हुए. ये चिश्ती, सुहरावर्दी, नक्शबंदी और कादरी सिलसिले हैं. इसमें से भी चिश्ती और सुहरावर्दी ज्यादा पॉपुलर हुआ. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती सिलसिले से थे.  सूफी लोग खानकाहों एक तरह से आश्रम में रहते हैं. जहां उनके अनुयायियों का जमावड़ा रहता है. यहां पर समां यानी कि संगीत का आयोजन किया जाता है. इसमें कव्वाली पर लोग झूमते हैं. ऐसा कहा जाता है कि कव्वाली पर लोग झूम-झूमकर ईश्वर से नाता जोड़ने की कोशिश करते हैं.

भारत में चिश्ती सिलसिला ख्वाजा मोइनुद्दीन ने की थी कायम 
भारत में चिश्ती सिलसिले की स्थापना ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने की थी.  इस सिलसिले में ईश्वर के साथ एकात्मकता के सिद्धांत पर जोर दिया जाता है. इसके मानने वाले शांति प्रियता में यकीन रखते हैं. चिश्ती धर्मनिरपेक्ष शासकों से दूर ही रहते थे. चिश्ती की शिक्षाओं को ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, फरीदुद्दीन गंज-ए-शकर, निजामुद्दीन औलिया और नसीरुद्दीन चिराग जैसे ख्वाजा मोइन-उद्दीन चिश्ती के शिष्यों द्वारा आगे बढ़ाया गया और लोकप्रिय बनाया गया. इन्होंने ईश्वर के नाम को जोर से बोलकर और मौन रहकर जपने पर जोर दिया. भारत में सुहरावर्दी की स्थापना शेख शहाबुद्दीन सुहरावार्दी मकतूल ने की थी. चिश्ती सिलसिले के विपरीत सुहरावर्दी सिलसिले को मानने वालों ने सुल्तानों, राज्य के संरक्षण और अनुदान को स्वीकार किया. ये सिलसिला मुख्य रूप से पंजाब और सिंध के इलाके में ज्यादा पॉपुलर हुआ.

आखिर कौन थे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती एक सूफी संत और दार्शनिक थे. उनका जन्म ईरान के सिस्तान इलाके में हुआ था. मोइनुद्दीन चिश्ती ने अपने पिता के कारोबार को छोड़कर आध्यात्मिक जीवन को अपनाया. आध्यात्मिक यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात उस समय के प्रसिद्ध संत हजरत ख्वाजा उस्मान हारूनी से हुई. उन्होंने ख्वाजा मोइनुद्दीन को अपना शिष्य स्वीकार किया और उन्हें दीक्षा दी. 

52 साल की उम्र में उन्हें शेख उस्मान से खिलाफत मिली. इसके बाद ख्वाजा मोइनुद्दीन हज, मक्का और मदीना गए. इसके बाद वह मुल्तान होते हुए भारत आए और राजस्थान के अजमेर में बस गए. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती 1192 ई. में अजमेर में रहने के साथ ही उस समय उपदेश देना शुरू किया, जब मुहम्मद गोरी ने तराइन के युद्ध में पृथ्वीराज को हराकर दिल्ली में अपना शासन कायम किया था. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के ज्ञान से स्थानीय लोगों के साथ-साथ सुदूर इलाकों के राजा, किसान, गरीब सब प्रभावित हुए.

अजमेर में दफनाया गया था मोइनुद्दीन चिश्ती को
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का निधन 1236 में हुआ था. उन्हें अजमेर में दफनाया गया था. चिश्ती के निधन के बाद मुगल बादशाह हुमायूं ने वहां पर उनकी कब्र बनवा दी. उनकी दरगाह पर माथा टेकने मुहम्मद बिन तुगलक, शेरशाह सूरी, अकबर , जहांगीर जैसे बड़े-बड़े शाहक आते थे. उनकी कब्र (दरगाह) ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेर के नाम से प्रसिद्ध है. यह दरगाह उनके अनुयायियों के लिए बेहद पवित्र स्थान है. इनके दरगाह पर इल्तुतमिश, अकबर, रजिया सुल्तान, जहांगीर, शाहजहां, औरंगजेब जैसे बादशाहों ने आकर जियारत की थी. 

हर साल दरगाह पर मनाया जाता है 'उर्स'
हर साल मोइनुद्दीन चिश्ती की पुण्यतिथि पर 'उर्स' नामक त्योहार मनाया जाता है.  खास बात यह है कि मृत्यु की सालगिरह पर शौक मनाने की बजाय जश्न मनाया जाता है. ऐसा इसलिए क्योंकि चिश्ती के अनुयायियों का मानना है कि इस दिन मुर्शीद यानी शिष्य अपने ऊपर वाले यानी ईश्वर से फिर मिल जाते हैं.