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बिना वोट पड़े ही नेता घोषित? Supreme Court में होगी जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 53(2) पर सुनवाई

भारत में चुनावी प्रक्रिया को जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत नियंत्रित किया जाता है. इसकी धारा 53(2) यह कहती है कि अगर किसी निर्वाचन क्षेत्र में केवल एक ही उम्मीदवार बचता है- चाहे वह बाकी सभी उम्मीदवारों के नामांकन खारिज होने से हो या बाकी उम्मीदवारों द्वारा नामांकन वापस लेने के कारण तो चुनाव आयोग उसे निर्विरोध विजेता घोषित कर सकता है.

Supreme Court Supreme Court
हाइलाइट्स
  • जनप्रतिनिधित्व अधिनियम पर होगी सुनवाई

  • सूरत का मामला बना याचिका की वजह

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में हर नागरिक को वोट करने का अधिकार है, लेकिन क्या हो अगर चुनाव बिना मतदान के ही निपटा दिए जाएं? सुप्रीम कोर्ट अब इसी महत्वपूर्ण सवाल पर विचार करने जा रहा है. 18 मार्च को देश की सुप्रीम कोर्ट में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 53(2) की संवैधानिक वैधता पर सुनवाई होगी. इस धारा के तहत अगर किसी निर्वाचन क्षेत्र में केवल एक उम्मीदवार चुनाव मैदान में बचा हो, तो उसे निर्विरोध विजेता घोषित कर दिया जाता है और वहां फिर वोटिंग नहीं होती है. 

लेकिन क्या यह प्रावधान सच में लोकतंत्र के सिद्धांतों के हिसाब से है? क्या इससे वोट देने वाले लोगों के अधिकारों का हनन नहीं होता? इसी मुद्दे को लेकर अब सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. 

क्या है जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 53(2)?
भारत में चुनावी प्रक्रिया को जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत नियंत्रित किया जाता है. इसकी धारा 53(2) यह कहती है कि अगर किसी निर्वाचन क्षेत्र में केवल एक ही उम्मीदवार बचता है- चाहे वह बाकी सभी उम्मीदवारों के नामांकन खारिज होने से हो या बाकी उम्मीदवारों द्वारा नामांकन वापस लेने के कारण तो चुनाव आयोग उसे निर्विरोध विजेता घोषित कर सकता है.

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इसका मतलब यह है कि उस क्षेत्र में मतदान की जरूरत नहीं होती, क्योंकि मुकाबले में केवल एक उम्मीदवार ही बचा होता है.

क्यों हो रही है इस धारा पर बहस?
इस धारा को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाले विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी का तर्क है कि यह प्रावधान मतदाताओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है. इसमें कई सारे मुद्दे उठाए गए हैं:

1. वोटर्स का अधिकार छिन जाता है- किसी भी लोकतंत्र में वोट करना हर नागरिक का अधिकार है. जब कोई उम्मीदवार निर्विरोध चुन लिया जाता है, तो मतदाताओं को अपनी राय बताने का मौका ही नहीं मिलता.

2. NOTA (None of The Above) का ऑप्शन नहीं मिलता- अगर कोई वोटर किसी भी उम्मीदवार को पसंद नहीं करता, तो वह NOTA चुन सकता. लेकिन निर्विरोध चुनाव में यह विकल्प भी खत्म हो जाता है.

3. जनता की पसंद को प्रभावित किया जाता है- कई बार राजनीतिक दल रणनीति के तहत विरोधी उम्मीदवारों के नामांकन खारिज करवाने या उन्हें नामांकन वापस लेने के लिए मजबूर कर सकते हैं, जिससे उनका उम्मीदवार निर्विरोध जीत जाए.

4. चुनाव की निष्पक्षता पर सवाल- क्या वाकई यह प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी है? निर्विरोध चुनावों के पीछे कई बार राजनीतिक सौदेबाजी और दबाव की बातें भी सामने आई हैं.

सूरत का मामला बना याचिका की वजह
दरअसल, कुछ ऐसा ही सूरत में हुआ था. गुजरात के सूरत लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में बीजेपी उम्मीदवार को निर्विरोध विजेता घोषित कर दिया गया. कांग्रेस के उम्मीदवार का नामांकन रद्द कर दिया गया और दूसरे सभी उम्मीदवारों ने अपने नाम वापस ले लिए.
यह कोई नया मामला नहीं है. याचिकाकर्ता के मुताबिक, अब तक 258 बार उम्मीदवार बिना किसी चुनाव के निर्विरोध चुने जा चुके हैं. यह आंकड़ा बताता है कि यह समस्या कितनी गंभीर हो सकती है.

निर्विरोध चुनाव लोकतंत्र के लिए कितने खतरनाक?
भारत का संविधान एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बढ़ावा देता है, जहां सरकार जनता के वोटों से बनती है. लेकिन जब बिना किसी वोटिंग के ही उम्मीदवार को विजेता घोषित कर दिया जाता है, तो यह उस लोकतांत्रिक भावना के खिलाफ जाता है.

इसके पीछे के तर्क ये दिए जा रहे हैं- 

  1. किसी क्षेत्र में एक ही पार्टी के उम्मीदवार को निर्विरोध जीताने के लिए राजनीतिक दल अपने विरोधियों पर दबाव बना सकते हैं.
  2. अगर  जनता को वोट डालने का मौका ही न मिले, तो जनता की भागीदारी घटती है, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर होती है.
  3. इससे कुछ दलों का चुनावी क्षेत्र पर प्रभुत्व बढ़ सकता है, और जनता के पास कोई वास्तविक विकल्प नहीं बचेगा.
  4. जब लोग अपने नेता को चुनने में असमर्थ महसूस करेंगे, तो वे राजनीतिक प्रक्रिया से दूर हो सकते हैं, जिससे चुनावों में दिलचस्पी कम हो सकती है.

अब सबकी नजरें सुप्रीम कोर्ट पर
18 मार्च को सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर सुनवाई करेगा. अगर कोर्ट इस प्रावधान को असंवैधानिक ठहराती है, तो यह भारत की चुनावी व्यवस्था में एक बड़ा बदलाव होगा.

यह मुद्दा केवल कानूनी नहीं, बल्कि नैतिक भी है. क्या हमें लोकतंत्र में ऐसे चुनाव स्वीकार करने चाहिए जहां जनता को अपनी राय तक रखने का मौका नहीं मिलता? क्या निर्विरोध चुनाव को पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए या इसे और पारदर्शी बनाने के लिए सुधार किए जाने चाहिए? इन सभी सवालों के जवाब अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर निर्भर करते हैं. यह फैसला भविष्य में भारतीय लोकतंत्र की नींव को और मजबूत कर सकता है.