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वन रैंक वन पेंशन की मौजूदा नीति को सुप्रीम कोर्ट ने सही ठहराया, जानिए क्या है पूरा मामला

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने पूर्व सैनिकों के लिए केंद्र सरकार की वन रैंक वन पेंशन (OROP) पॉलिसी को सही माना है और कहा है क‍ि इसे जारी रखने में कोई समस्या नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 1 जुलाई 2019 से पेंशन फिर से तय की जाएगी और 5 साल बाद संशोधित की जाएगी. सरकार को 3 माह के भीतर बकाया भुगतान करना होगा.

वन रैंक वन पेंशन पर सुप्रीम कोर्ट आज सुनाएगा फैसला वन रैंक वन पेंशन पर सुप्रीम कोर्ट आज सुनाएगा फैसला
हाइलाइट्स
  • केंद्र सरकार ने 7 नवंबर, 2015 को ‘वन रैंक, वन पेंशन’ (OROP) योजना की अधिसूचना जारी की थी

  • यूपी में (2.28 लाख) और पंजाब (2.12 लाख) में OROP लाभार्थियों की सबसे ज्यादा संख्या दर्ज की गई

सेवानिवृत्त सैन्यकर्मियों के लिए लागू वन रैंक वन पेंशन (OROP) की मौजूदा नीति को सुप्रीम कोर्ट ने सही ठहराया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इस नीति में कोई संवैधानिक कमी नहीं है. कोर्ट ने यह भी कहा कि नीति में पांच साल में पेंशन की समीक्षा का प्रावधान है. इसलिए सरकार एक जुलाई 2019 की तारीख से पेंशन की समीक्षा करे. कोर्ट ने सरकार को तीन महीने में बकाया राशि का भुगतान करने को कहा है.

सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ''सरकार का ‘वन रैंक-वन पेंशन’ (ओआरओपी) का फैसला मनमाना नहीं है और किसी संवैधानिक अशक्तता से ग्रस्त नहीं है. कोर्ट ने कहा कि ‘वन रैंक-वन पेंशन’ सरकार का नीतिगत निर्णय है और नीतिगत मामलों के निर्णय में अदालत हस्तक्षेप नहीं करता.
 

पिछले महीने कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था

पिछले महीने की सुनवाई में हुजेफा अहमदी भारतीय पूर्व सैनिक आंदोलन की तरफ से पेश हुए थे. बेंच ने कहा था कि जो भी फैसला लिया जाएगा वह वैचारिक आधार पर होगा न कि आंकड़ों पर. इस सिलसिले में बेंच ने अपनी टिप्पणी करते हुए कहा था कि योजना में जो गुलाबी तस्वीर पेश की गई थी, हकिकत उससे काफी अलग है. कोर्ट ने कहा था, 'वन रैंक वन पेंशन नीति का केंद्र सरकार ने बढ़ा-चढ़ाकर बखान किया गया.  

अदालत ने ये भी कहा था कि हमें इस तथ्य पर गौर करना होगा कि ओआरओपी की कोई कानूनी परिभाषा नहीं है. यह एक नीतिगत फैसला है. सवाल यह है कि क्या यह अनुच्छेद 14 का हनन करता है. ऐसे में सबसे पहले आईये जानते हैं ओआरओपी क्या है और इसकी शुरूआत कब हुई थी और इसको लेकर क्या आलोचना हुई है. 


क्या है ‘वन रैंक, वन पेंशन’?

‘वन रैंक, वन पेंशन’ (OROP) का मतलब सेवानिवृत्त होने की तारीख से इतर समान सेवा अवधि और समान रैंक पर सेवानिवृत्त हो रहे सशस्त्र सैन्यकर्मियों को एक समान पेंशन देना है. इस तरह से ‘वन रैंक, वन पेंशन’ (OROP) का मतलब समय -समय पर होने वाले गैप पर वर्तमान और पिछले सेवानिवृत्त सैन्यकर्मियों की पेंशन की दर के बीच के फर्क को कम करना है.

जबकि इससे पहले की व्यवस्था में जो सैनिक जितनी देरी से सेवानिवृत्त होता था, उसे पहले सेवानिवृत्त होने वाले सैनिकों के मुकाबले ज्यादा पेंशन मिलती थी. क्योंकि सरकार की तरफ से दी जाने वाली पेंशन कर्मचारी के अंतिम वेतन पर निर्भर करता है और समय-समय पर वेतन आयोग की सिफारिशों के आधार पर कर्मचारियों के वेतन में बढ़ोत्तरी होती रही है. इस तरह साल 1995 में सेवानिवृत्त होने वाले एक लेफ्टिनेंट जनरल को साल 2006 के बाद सेवानिवृत्त होने वाले एक कर्नल मुकाबले कम पेंशन मिली थी. 

मामले की  शुरूआत कैसे हुई

 असल में साल 1973 से पूर्व ‘वन रैंक, वन पेंशन’ को लेकर किसी भी तरह का कोई विवाद नहीं था, पर साल  1973 में तीसरे वेतन आयोग की रिपोर्ट आने के साथ ही प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘वन रैंक, वन पेंशन’ के तत्कालीन फॉरमेट को खत्म कर दिया. 

बता दें कि साल 1973 में तीसरे वेतन आयोग से पहले सशस्त्र बलों के सभी सेवानिवृत्त कर्मियों को उनके अंतिम वेतन का 75 प्रतिशत हिस्सा पेंशन के रूप में भुगतान किया जाता था.  साथ ही उस समय तक ऐसे सेवानिवृत्त रक्षाकर्मियों को पेंशन का भुगतान नहीं किया जाता था, जिन्होंने पाँच साल से कम अवधि के लिये अपनी सेवाएँ दी हों. 

तीसरा वेतन आयोग

बाकी सरकारी कर्मचारियों की तरह इसने रक्षाकर्मियों को भी तीसरे वेतन आयोग के दायरे में ला दिया, आयोग ने पेंशन के तौर पर सभी पूर्व कर्मचारियों (जिसमें रक्षाकर्मी भी शामिल हैं) के लिये केवल 50 प्रतिशत वेतन की सिफारिश की, इस वजह से सिविल कर्मियों की पेंशन तो 33 प्रतिशत से बढ़कर 50 प्रतिशत हो गई, लेकिन रक्षाकर्मियों की पेंशन 75 प्रतिशत से घटकर 50 प्रतिशत पर पहुँच गई. 

इसके बाद साल 1979 में तत्कालीन वित्त मंत्री एच.एन. बहुगुणा ने मूल वेतन के एक हिस्से को महंगाई भत्ते में मिला कर सेवारत सैनिकों के वेतन में बढ़ोत्तरी कर दी, जिससे साल 1979 के बाद सेवानिवृत्त होने वाले सैन्यकर्मियों की पेंशन में भी इजाफा हुआ और यहीं से सेवानिवृत्त सैनिकों की पेंशन के बीच अंतर आना शुरू हो गया. 

‘वन रैंक, वन पेंशन’ की जरूरत क्यों?

छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने तक ‘वन रैंक, वन पेंशन’ के मुद्दे को लगभग भुलाया जा चुका था, लेकिन  इस आयोग की सिफारिशें लागू होते ही पूर्व सैनिकों के बीच पेंशन का अंतर और भी ज़्यादा बढ़ गया. वहीं इस आयोग की सिफारिशों के शुरू होते ही साल 2006 में सेवानिवृत्त होने वाले एक मेजर जनरल को साल 2014 में सेवानिवृत्त होने वाले अपने समकक्ष से 30,000 रुपए कम पेंशन मिलने लगी, जो कि एक काफी बड़ी रकम थी. 

जाहिर है पेंशन में इतने ज्यादा फर्क की वजह से  पूर्व-सैनिकों के बीच ‘वन रैंक, वन पेंशन’ को लेकर एक आंदोलन शुरू हो गया और सभी लेवलों पर एक समान पेंशन की मांग की जाने लगी. 

‘वन रैंक, वन पेंशन’ के ज्यादातर समर्थकों का मानना है कि ‘सशस्त्र बल’ के रक्षाकर्मियों और सिविल कर्मचारियों को पेंशन के मामले में एक समान रूप से नहीं देखा जाना चाहिये, क्योंकि ज्यादातर रक्षाकर्मी 33 से 35 साल  की आयु में सेवानिवृत्त होते हैं, जबकि सिविल कर्मियों की सेवानिवृत्त उम्र 60 साल  होती है.  इसी वजह से सेवा की कम अवधि की वजह से  कम वेतन मिलने से रक्षाकर्मियों का मनोबल पर बुरा असर पड़ता है. 

रक्षा पेंशन और ‘वन रैंक, वन पेंशन’ की आलोचना

केंद्र सरकार ने वित्तीय वर्ष 2020-21 के बजट में रक्षा पेंशन के लिये 1,33,825 करोड़ रुपए दिए. जबकि वित्तीय वर्ष 2005-06 में यह राशि केवल 12,715 करोड़ रुपए थी.  1,33,826 करोड़ रुपए का आवंटन केंद्र सरकार के कुल खर्च का 4.4 प्रतिशत या देश की कुल GDP का 0.6 प्रतिशत है.  इस तरह से भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय को कुल बजट आवंटन का 28.4 प्रतिशत हिस्सा केवल रक्षा पेंशन में ही जाता है. 

इस लिहाज़ से भारत का रक्षा पेंशन बजट, रक्षा मंत्रालय के कुल खर्च से काफी ज्यादा हो गया है, यानी कि रक्षा मंत्रालय सेना के मॉडर्नाइजेशन पर कम और पूर्व-सैनिकों की पेंशन पर ज्यादा खर्च कर रहा है.

 
कई बार ‘वन रैंक, वन पेंशन’ योजना की आलोचना सरकार पर इसके वित्तीय बोझ की वजह बन जाती है. दरअसल भारत में हर साल औसतन 50-60 हज़ार सैनिक सेवानिवृत्त होते हैं, क्योंकि सेना के ज्यादातर जवान 33 से 35 साल  की उम्र तक सेवानिवृत्त हो जाते हैं.  
इसकी वजह से हर साल  रक्षा पेंशन बजट में बढ़ोतरी होती रहती है. इसके अलावा रक्षाकर्मी काफी कम उम्र में सेवानिवृत्त होते हैं, और इस वजह से  वे लंबे समय तक पेंशन लेते रहते हैं. जबकि सिविल कर्मचारी  60 साल की उम्र में सेवानिवृत्त होते हैं, जिस वजह से वे रक्षाकर्मियों के मुकाबले  कम समय तक पेंशन लेते हैं. 

याचिकाकर्ता की दलील

वहीं, याचिकाकर्ता हुजेफा अहमदी ने पिछली सुनवाई में कहा था कि सरकार का फैसला मनमाना है.  ये फैसला वर्ग के अंदर वर्ग बनाता है और एक रैंक को अलग-अलग पेंशन देता है.