हिंदू उत्तराधिकार कानून के महिलाओं से भेदभाव करने वाले प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपना जवाब दाखिल किया है. मंगलवार को अपना हलफनामा सौंपते हुए केंद्र ने हिंदू उत्तराधिकार कानून को सही ठहराया है. शीर्ष अदालत बुधवार को मामले की सुनवाई कर सकती है. आपको बता दें कि इस मामले की सुनवाई जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस बेला त्रिवेदी की बेंच कर रही है. शीर्ष अदालत में दायर याचिका में याचिकाकर्ता ने हिंदू उत्तराधिकार कानून के सेक्शन 15 और 16 को चुनौती दी है.
क्या कहता है हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956?
कानून के मुताबिक, अगर एक हिंदू व्यक्ति की मौत होती है तो उसकी प्रॉपर्टी पत्नी, बच्चे और उसकी मां में बराबर विभाजित की जाती है. अगर व्यक्ति का कोई उत्तराधिकारी नहीं है तो इस स्थिति में उस व्यक्ति की संपति उसके पिता को दी जाती है. वहीं औरतों के मामले में ऐसा नहीं होता. धारा 15 में मृत महिला के ऊपर पति के वारिसों को वरीयता दी गई है.
क्या है पूरा मामला?
उत्तराधिकार कानून के इन प्रावधानों को चुनौती देते हुए दिसंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई थी. मुंबई निवासी कमल अनंत खोपकर ने यह याचिका दायर की थी. याचिकाकर्ता की तरफ से मृणाल दत्तात्रेय बुवा और धैर्यशील सालुंके उनका पक्ष रख रहे हैं. याचिकाकर्ता को अपनी बेटी (जो अब इस दुनिया में नहीं रहीं) की स्व-अर्जित संपत्ति लेने में दिक्कत हो रही है क्योंकि हिंंदू उत्तराधिकार कानून की धारा 15 के मुताबिक ऐसी संपत्ति पर उस महिला के पति और उसके परिवारवालों का हक होता है अगर महिला बिना वसीयत के मर जाती है. इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब दाखिल करने को कहा था.
हिंदू उत्तराधिकार कानून में महिलाओं से भेदभाव
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 15 मृतक महिला के (माता-पिता के समक्ष) पति को उत्तराधिकारी के तौर पर प्राथमिकता देता है. अगर कोई हिंदू महिला बिना वसीयत के मर जाती है तो उसका पति उसकी मां या पिता के लिए कोई हिस्सा छोड़े बिना उसकी सारी संपत्ति लेने का हकदार होता है.
हिंदू विरासत अधिनियम 1956 की धारा 14 के मुताबिक, महिला के कब्जे वाली कोई भी संपत्ति पूरी तरह से उसकी है. यह अधिनियम ऐसी संपत्ति पर लागू नहीं होगा, जिस संपत्ति पर भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 लागू होता है.