पंजाब के नवांशहर जिले के खटकर कलां गांव का हर घर गर्व से अपने प्यारे शहीद भगत सिंह की बात करता है. लेकिन इस गांव में आपको उस इंसान के बारे में पता चलेगा जो सरदार भगत सिंह की प्रेरणा थे. अगर आप कभी भगत सिंह के पैतृक गांव का दौरा करेंगे तो इस गांव में ऑफिशियल सूट पहने हाथ में एक किताब पकड़े हुए पगड़ीधारी सिख की लगभग 8 फीट ऊंची मूर्ति दिख जाएगी. कम से कम 30 फीट की ऊंचाई पर एक घर की छत पर स्थित, इस मूर्ति के नीचे की पट्टिका पर लिखा है: "सरदार अजीत सिंह संधू, चाचा शहीद-ए-आजम भगत सिंह."
ब्रिटिश सरकार के किसान विरोधी कानूनों के खिलाफ 'पगड़ी संभाल जट्टा' आंदोलन ने 1907 में ब्रिटिश साम्राज्य में खलबली मचा दी थी. इस आंदोलन के शिल्पकार अजीत सिंह, भगत सिंह के लिए एक बड़ी प्रेरणा थे. अजीत सिंह भगत सिंह के पिता किशन सिंह के भाई थे. 38 वर्षों तक निर्वासन में रहने और विदेशों से देश के स्वतंत्रता संग्राम को बढ़ावा देने के बाद, अजीत सिंह 1946 में भारत लौट आए थे. 66 वर्ष की आयु में, 15 अगस्त 1947 को डलहौजी में उनकी मृत्यु हो गई, जिस दिन भारत को आजादी मिली थी.
NRI ने स्थापित कराई मूर्ति
कनाडा में रहने वाले खटकर कलां के मूल निवासी बलबीर सिंह (76) ने अपने घर के ऊपर अजीत सिंह की प्रतिमा स्थापित की है. उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि अजीत सिंह का बलिदान भी सर्वोच्च था. बलबीर कहते हैं, 'भगत सिंह को हर कोई याद करता है, लेकिन अजीत सिंह को नहीं, जिन्हें भी याद किया जाना चाहिए क्योंकि वह पंजाब से ब्रिटिश विरोधी आवाज उठाने वाले पहले लोगों में से थे.' बलबीर का घर कनाडा जाने के बाद ज्यादातर बंद रहता है, लेकिन फिर भी मूर्ति के कारण यहां आने वालों की नजरों में रहता है. उनका कहना है कि वह प्रतिमा को गांव में परिवार के पैतृक घर (अब पंजाब सरकार के तहत एक संरक्षित स्मारक) के बाहर रखना चाहते थे ताकि सभी आगंतुक इसे देख सकें, लेकिन प्रशासन की अनुमति नहीं मिल सकी.
उन्हें बताया गया था कि सिर्फ सरकार ही संरक्षित स्मारक में कुछ जोड़ कर सकती है इसलिए उन्होंने इसे अपने घर की छत पर स्थापित किया. अजीत सिंह ने न केवल 'पगड़ी संभाल जट्टा' आंदोलन का नेतृत्व किया, बल्कि हजारों युवाओं को सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में शामिल होने के लिए भी प्रेरित किया था.
लोगों के लिए किया था काम
23 जनवरी 1881 को जन्मे अजीत सिंह ने अपने भाई किशन सिंह के साथ बीमार और भूखमरी का शिकार लोगों के लिए काम किया. उन्होंने 1857 के विद्रोह की आग को फिर से भड़काने के लिए भारत माता सोसाइटी (उर्दू में महबूबाने वतन) की स्थापना की, जो एक भूमिगत संगठन था, जिसके सक्रिय सदस्य महाशय घसीटा राम, स्वर्ण सिंह और सूफी अंबा प्रसाद जैसे अन्य देशभक्त थे. सोसायटी ने ब्रिटिश विरोधी साहित्य और समाचार पत्र प्रकाशित करना शुरू किया, जिनमें भारत माता, इंडिया (अंग्रेजी में), पेशवा (उर्दू में) और पंजाबी शामिल थे. हालांकि, इन प्रकाशनों को अंग्रेजों ने जब्त कर लिया था, लेकिन इससे ब्रिटिश विरोधी भावना को और बढ़ावा मिला.
अंग्रेजों ने जब गरीब किसानों पर भारी कर लगाया और गैरकानूनी तरीकों से उनके भूमि स्वामित्व अधिकारों को छीना तो अजीत सिंह ने इसके लिए कई विरोध रैलियां आयोजित कीं. अंग्रेजों ने उनके इस कदम को 1857 के विद्रोह की पुनरावृत्ति के रूप में देखा और उनके भाषणों पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया, लेकिन इसका भी उल्टा असर हुआ. 3 मार्च, 1907 को लायलपुर में ऐसी ही एक रैली में, अखबार झांग स्याल के संपादक बांके दयाल ने कहा, "पगड़ी संभाल जट्टा, पगड़ी संभाल ओए.. हिंद है तेरा मंदिर, उसका पुजारी तू.. रांझा तू देश हीर है." यह अजीत सिंह के आंदोलन का प्रतीक और आत्मा बन गया.
अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ आवाज
अजीत सिंह ने अपनी आत्मकथा "Buried Alive" में उल्लेख किया है कि दयाल की कविता किसानों के बीच इतनी लोकप्रिय हो गई कि उन्होंने इसे उनकी रचना मान लिया. 1907 में अजीत सिंह को लाला लाजपत राय के साथ म्यांमार (तब बर्मा) की जेल में निर्वासित किया गया. अजीत सिंह ने अपनी रिहाई के बाद अपना ब्रिटिश विरोधी आंदोलन फिर से शुरू कर दिया, जिसके कारण फिर से उनके खिलाफ वारंट जारी किया गया. 1909 की शुरुआत में, अजीत सिंह फारस (अब ईरान) चले गए और अपना नाम बदलकर मिर्ज़ा हुसैन खान रख लिया. बाद में उन्होंने फ्रांस, रूस, तुर्की, जर्मनी, ब्राजील सहित अन्य देशों की यात्रा की और भारतीय क्रांतिकारी संघ (भारतीय क्रांतिकारी संघ) की स्थापना की. 1918 में वे सैन फ्रांसिस्को में गदर पार्टी से जुड़े. 1939 में, वह यूरोप लौट आये और बाद में बोस को इटली में उनके मिशन में मदद की.
दूसरे विश्व युद्ध में इटली की हार के बाद, अजीत सिंह को मित्र देशों की सेना ने 2 मई, 1945 को गिरफ्तार कर लिया. उन्हें इटली और जर्मनी की विभिन्न जेलों में कैद कर दिया गया. जब उनकी बिगड़ती सेहत की खबर भारत पहुंची तो उनकी रिहाई और भारत प्रत्यर्पण के लिए आवाजें उठने लगीं. सितंबर 1946 में, अंतरिम सरकार नियंत्रण ले चुकी थी. तब अजीत सिंह के पुराने साथियों और कई कांग्रेस नेताओं ने उनकी रिहाई की मांग के लिए नेहरू से आग्रह करना शुरू कर दिया. भारत लौटने के बाद, उन्होंने दिल्ली का दौरा किया जहां उन्होंने नेहरू के साथ देश के भविष्य पर विचार-विमर्श किया.
लड़ी किसानों की लड़ाई
एक सदी से भी ज्यादा समय के बाद, किसान और मजदूर अपने अधिकारों के लिए लड़ते हुए अजीत सिंह और भगत सिंह का आह्वान करते रहते हैं. केंद्र के किसान विरोधी कानूनों के खिलाफ बड़े पैमाने पर किसान विरोध प्रदर्शन में, उनके नारे "पगड़ी संबल जट्टा" और "इंकलाब जिंदाबाद" ने सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया था. भगत सिंह पर जाने-माने शोधकर्ता प्रोफेसर चमन लाल कहते हैं कि दबे-कुचले वर्गों के अधिकारों के लिए लड़ना भगत सिंह के खून में था. उनके चाचा अजीत सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व किया था जब किसान कर्ज में डूबे हुए थे और सरकार उन पर भारी कर लगा रही थी.
अप्रैल 1947 में अपने अंतिम संदेश में, अजीत सिंह ने कहा था: “भारत को तत्काल सामाजिक और राजनीतिक क्रांतियों की आवश्यकता है - कुछ ऐसा जो हमने इस सदी की शुरुआत में शुरू किया थ. अब इसे अंजाम तक पहुंचाने की जिम्मेदारी आपके कंधों पर है... मैं चाहता हूं कि भारत के युवाओं को शहीद भगत सिंह का अनुकरण करना चाहिए - कि उनके होठों पर इंकलाब जिंदाबाद (क्रांति जिंदाबाद) के नारे के साथ, वे क्रांति के लिए अपने जीवन का बलिदान देने में संकोच नहीं करेंगे. ..जब तक इस देश में अज्ञानता, अन्याय और भूखमरी है तब तक मत रुको.”