जब भी कोई 'शरणार्थी' (Refugee) शब्द सुनता है, तो कई शब्द दिमाग में आते हैं, जैसे- 'मानव अधिकार', 'सामूहिक पलायन', 'हिंसा', 'राष्ट्रीय सुरक्षा' आदि. एक शरणार्थी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है, जो जाति, धर्म, राष्ट्रीयता, किसी विशेष सामाजिक समूह की सदस्यता या राजनीतिक राय के कारणों से सताए जाने के भय से अपने देश से आ गए हैं. या फिर अपनी राष्ट्रीयता के देश के बाहर है या वहां जाने में असमर्थ हैं. ये परिभाषा अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी कानून की एक संधि में दी गई है. यह संधि लगभग आधी सदी पहले 4 अक्टूबर 1967 को लागू हुई थी और 146 देश इस प्रोटोकॉल के पक्षकार हैं. रिफ्यूजी या शरणार्थियों के बारे में जागरूकता लाने के लिए ही हर साल 20 जून को वर्ल्ड रिफ्यूजी डे मनाया जाता है.
भारत ने शुरुआत से दी है शरणार्थियों को पनाह
इन दिनों जब दुनिया भर में शरणार्थियों की दुर्दशा पर चर्चा हो रही है, तो भारत और बाहर के कई लोग नहीं जानते कि हमारे देश ने सदियों से शरणार्थियों की मेजबानी की है, शरणार्थियों के लिए शुरुआत से ही भारत एक ‘घर’ रहा है. 16वीं-17वीं शताब्दी की एक पौराणिक कथा के अनुसार, ईरान में पारसी धर्म के पतन के कारण एक समूह गुजरात में आ गया था. 1947 में विभाजन के बाद, 72 लाख हिंदू और सिख (और बहुत कम संख्या में मुसलमान) पाकिस्तान से भारत चले आए थे. इतना ही नहीं 1959 के तिब्बती विद्रोह के बाद, 1,50,000 से अधिक लोगों ने 14वें दलाई लामा का अनुसरण किया था, जिनमें से 1,20,000 अभी भी भारत में हैं.
इतना ही नहीं भारत सरकार ने उनके लिए स्पेशल स्कूल भी बनाए जहां मुफ्त शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य देखभाल और स्कॉलरशिप तक मिलती है. उन्हें भारत में रहने का परमिट दिया जाता है, जो हर साल या छह महीने में रिन्यू होता है.
बंटवारे के समय आए शरणार्थी
जो लोगों ने भारत और पाकिस्तान के बीच सीमाओं को पार किया उन्होंने अपनी राष्ट्रीयता नहीं खोई, फिर भी उन्होंने एक शरणार्थी के रूप में जीवन बिताया. 1948 में जब भारत-पाक के बीच युद्ध हुआ तब राजधानी दिल्ली में विशेष रूप से शरणार्थियों की भारी बाढ़ देखी गई. भारत की ओर शरणार्थियों का अगला बड़ा आंदोलन विभाजन के लगभग एक दशक बाद 1959 में हुआ, जब दलाई लामा 100,000 से अधिक अनुयायियों के साथ तिब्बत से भागे और शरण लेने भारत आए. परिणामस्वरूप, भारत-चीन संबंधों को गहरा धक्का लगा. चीन के साथ 1962 का युद्ध, विशेष रूप से भारत के लिए बहुत महंगा साबित हुआ.
ये तिब्बती शरणार्थी उत्तरी और उत्तर-पूर्वी भारतीय राज्यों में आकर बस गए, और दलाई लामा की सीट, धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश में स्थापित की गई थी. लाइवमिंट की रिपोर्ट के अनुसार, भारत न तो 1951 के शरणार्थी सम्मेलन और न ही 1967 के प्रोटोकॉल का हस्ताक्षरकर्ता है. लेकिन फिर भी देश ने दक्षिण एशिया में सबसे बड़ी शरणार्थी आबादी के लिए एक घर के रूप में सेवा की है.
1971 और बांग्लादेशी शरणार्थी
अगला बड़ा शरणार्थी संकट 1971 में बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हुआ, जब लाखों शरणार्थी पाकिस्तानी सेना और बांग्लादेशी सेना के बीच संघर्ष से भागकर अपने देश से भारत आ गए थे. इससे बांग्लादेश की सीमा से लगे राज्यों में जनसंख्या में अचानक वृद्धि हुई और भारत सरकार के लिए लोगों का खाना-पीना सुनिश्चित करना मुश्किल हो गया. कई मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक ऐसा अनुमान है कि 1971 में 1 करोड़ से अधिक बांग्लादेशी शरणार्थी पलायन कर गए और उन्होंने भारत में शरण ली.
श्रीलंकाई तमिल शरणार्थी
भारत में शरणार्थियों के एक अन्य बड़े समूह में श्रीलंकाई तमिल शामिल हैं. ये वो लोग हैं जिन्होंने लगातार श्रीलंकाई सरकारों की सक्रिय भेदभावपूर्ण नीतियों, 1983 के ब्लैक जुलाई दंगों और खूनी श्रीलंकाई गृहयुद्ध जैसी घटनाओं के मद्देनजर श्रीलंका को छोड़ दिया था. अधिकतर ये शरणार्थी, जिनकी संख्या दस लाख से अधिक है, तमिलनाडु राज्य में बस गए क्योंकि यह श्रीलंका के सबसे निकट है और चूंकि तमिलों के रूप में उनके लिए वहां जीवन चलाना आसान था. 1.34 लाख से अधिक श्रीलंकाई तमिलों ने पहली बार 1983 और 1987 के बीच भारत में प्रवेश किया. इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार, युद्धग्रस्त श्रीलंकाई लोगों ने दक्षिणी भारत में शरण मांगी, वर्तमान में अकेले तमिलनाडु में 109 शिविरों में 60,000 से अधिक शरणार्थी रह रहे हैं.
लाखों अफगान शरणार्थियों का घर है भारत
भारत में अफगान शरणार्थी बहुत कम हैं. लेकिन 1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत आक्रमण के बाद कई अफगानों ने भी भारत में शरण ली. बाद के सालों में अफगान शरणार्थियों के छोटे समूह भारत आते रहे. ये शरणार्थी ज्यादातर दिल्ली और उसके आसपास आकर बसे. शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त (UNHCR) की वेबसाइट के अनुसार, 1990 के दशक की शुरुआत में अपने गृह देश में लड़ाई से भागकर भारत आए कई हिंदू और सिख अफगानों को पिछले एक दशक में नागरिकता प्रदान की गई है. विश्व बैंक और यूएनएचसीआर दोनों की रिपोर्ट बताती है कि वर्तमान में भारत के क्षेत्र में 200,000 से अधिक अफगान शरणार्थी रहते हैं.
रोहिंग्या शरणार्थी और उनसे जुड़े मुद्दे
रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर लगातार चर्चा चलती रहती है. UNHCR ने भारत में लगभग 16,500 रोहिंग्या को पहचान पत्र जारी किया है. हालांकि, सुरक्षा मुद्दों को देखते हुए भारत सरकार ने म्यांमार से रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस लेने की अपील की है. द इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में कहा गया है, “रोहिंग्याओं को म्यांमार वापस भेजने का भारत का दावा इस धारणा पर टिका है कि शरणार्थी बर्मीज स्टॉक के हैं. लेकिन मुद्दा यह है कि बर्मा के लोग रोहिंग्याओं को अपना नागरिक नहीं मानते हैं और उन्हें अप्रवासी मानते हैं जिन्हें ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान बांग्लादेश से लाया गया था."
चकमा और हाजोंग शरणार्थी
चकमा और हाजोंग समुदायों के कई लोग- जो कभी चटगांव पहाड़ी इलाकों में रहते थे, जिनमें से ज्यादातर बांग्लादेश में स्थित हैं. पांच दशकों से अधिक समय से भारत में शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं, ज्यादातर उत्तर-पूर्व और पश्चिम बंगाल में. 2011 की जनगणना के अनुसार अकेले अरुणाचल प्रदेश में 47,471 चकमा रहते हैं.
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2015 में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को चकमा और हाजोंग दोनों शरणार्थियों को नागरिकता देने का निर्देश दिया था.