रात का समय है… घड़ी में अभी-अभी बारह बजने को हैं… 19 साल का राहुल कोटा में आईआईटी की तैयारी करने गया है. एग्जाम सिर पर हैं… वह किताब के पन्नों को घूर तो रहा है, लेकिन उसका ध्यान कहीं और है. कमरे में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ है... राहुल के दोस्त इस बदलाव को महसूस कर रहे हैं- जो कभी हंसमुख और बातूनी हुआ करता था, वह अब दिनों दिन चुप होता जा रहा है....
एग्जाम सिर पर हैं लेकिन कोचिंग के प्रैक्टिस टेस्ट में राहुल के मार्क्स लगातार गिर रहे हैं… हर असफल परीक्षा के साथ उस पर दबाव बढ़ता जा रहा है. उसके माता-पिता, शिक्षक और साथी उससे उम्मीद लगाए बैठे हैं. लेकिन इन उम्मीदों के बोझ के तले राहुल टूट रहा है. दुनिया की नजरों से दूर, अपने कमरे की चारदीवारी के भीतर, वह अपने ही मन के खिलाफ एक मूक युद्ध लड़ रहा है. उसे खुद से हजारों शिकायतें हैं और अपने साथियों से लगातार तुलना ने उसके भीतर हताशा की खाई और गहरी कर दिया है.
एक दिन, राहुल क्लास में नहीं आया… दोस्तों ने सोचा कि वह शायद बीमार है, या हो सकता है कि देर रात तक पढ़ाई करने के बाद वह बस आराम कर रहा हो. लेकिन जब शाम हुई तो सबने उसे देखने का सोचा. दोस्त कमरे में पहुंचे, तो उन्हें राहुल बेसुध और निर्जीव नजर आया. डेस्क पर किताबें अभी भी खुली पड़ी हैं…
दरअसल, राहुल (बदला हुआ नाम) की कहानी, जितनी दिल दहला देने वाली है, उतनी ही सामान्य भी. छात्रों के बीच मेंटल हेल्थ काफी पिछड़ा हुआ टॉपिक है. डिप्रेशन, एंग्जायटी जैसी चीजें किसी भी व्यक्ति के मन में घर कर सकती हैं. लेकिन समय पर ध्यान न दिया जाए तो ये खतरनाक और जानलेवा साबित हो सकती हैं.
शैक्षणिक दबाव और इसके जानलेवा परिणाम
भारत में, शिक्षा प्रणाली को अक्सर एक दौड़ कहा जाता है, जहां छात्रों को लगातार अपने साथियों से बेहतर प्रदर्शन करने के लिए धकेला जाता है. यह प्रतियोगिता बचपन से ही शुरू हो जाती है, जहां छोटे-छोटे बच्चे कॉम्पिटिटिव एग्जाम की तैयारी के लिए कोचिंग क्लास में शामिल कर दिए जाते हैं. जैसे ही बच्चे हाई स्कूल पहुंचते हैं, अच्छे कॉलेजों में एडमिशन पाने की होड़ शुरू हो जाती है. कई छात्रों के लिए डॉक्टर, इंजीनियर, या IAS अधिकारी बनने का सपना उनका खुद का नहीं होता, बल्कि उनके माता-पिता की अधूरी आकांक्षाओं का प्रतिबिंब होता है. इन उम्मीदों का बोझ असहनीय हो सकता है. फेल होने का डर, या यहां तक कि केवल पीछे छूट जाने का ही डर उनकी मेंटल हेल्थ (Mental Health) पर काफी असर डाल सकता है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, 2020 में भारत में हर घंटे एक छात्र ने आत्महत्या की. मुख्य कारणों में पढ़ाई का प्रेशर, पारिवारिक दबाव और परीक्षा में फेल होने का डर बताया गया है.
दुनिया भर में भारत में सबसे ज्यादा सुसाइड (Suicide Cases in India) के मामले सामने आते हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की अप्रैल रिपोर्ट के अनुसार, अकेले 2022 में 170,924 लोगों ने सुसाइड की है. इससे प्रति 100,000 पर आत्महत्या की दर 12.4 हो गई है. ये अब तक के सबसे ज्यादा मामले हैं.
क्र.सं |
साल | सुसाइड करने वालों की संख्या | सुसाइड दर |
1. |
2018 | 1,34,516 | 10.2 |
2. |
2019 | 1,39,123 | 10.4 |
3. |
2020 | 1,53,052 | 11.3 |
4. |
2021 | 1,64,033 | 12.0 |
5. |
2022 | 1,70,924 | 12.4 |
काउंसलिंग प्लेटफॉर्म ‘बात करो’ (Baat Karo) के फाउंडर खुमेश (Khumesh) कहते हैं कि सुसाइड करने वाला बच्चा कुछ संकेत जरूर दिखाता है. लेकिन आसपास वाले लोग इन्हें पहचानने में देरी कर देते हैं. वे कहते हैं, ''मैंने कई मामलों में देखा है कि ऐसे बच्चे खुद की एक दुनिया बना लेते हैं. उन्हें लगता है कि उन्हें अब कोई भी नहीं समझेगा. ऐसे बच्चे अचानक से अकेले पड़ जाते हैं. हम अक्सर इन संकेतों को इग्नोर कर देते हैं.”
बता दें, बात करो एक काउंसलिंग और वेलनेस थेरेपी प्लेटफॉर्म है. इस प्लेटफार्म पर तकरीबन 700 से ज्यादा साइकॉलोजिस्ट, साइकोथेरेपिस्ट, करियर काउंसलर, लाइफ गाइड और वेलनेस एक्सपर्ट्स जुड़े हुए हैं.
ठीक ऐसा ही मानना गुरुग्राम के आर्टेमिस अस्पताल में सीनियर कंसल्टेंट और हेड साइकेट्रिस्ट डॉ. राहुल चंडोक का भी है. उनके मुताबिक, कई माता-पिता और शिक्षक छात्रों में डिप्रेशन के लक्षणों को नहीं पहचान पाते हैं. वे कहते हैं, "लोग जानते हैं कि जब बच्चे को बुखार या सर्दी हो तो क्या करना चाहिए. लेकिन जब मेंटल हेल्थ की बात आती है, तो उन्हें नहीं पता होता है कि क्या करें? डिप्रेशन एक मेडिकल कंडीशन है, और किसी भी बीमारी की तरह, इसमें प्रोफेशनल या एक्सपर्ट की मदद की जरूरत होती है”
रिलेशनशिप भी है एक बड़ा फैक्टर
जहां, शिक्षा एक बड़ा कारण है, वहीं व्यक्तिगत संबंध (Personal Relationships) भी छात्रों की मेंटल हेल्थ में बड़ी भूमिका निभाते हैं. युवा कई बार किसी एक ही रिश्ते को अपने जीवन का केंद्र बिंदु बना लेते हैं. एक ब्रेकअप (Breakup), करीबी दोस्त से झगड़ा (Fights), या एकतरफा प्यार (One Sided Love), व्यक्ति को हताशा के गहरे गड्ढे में धकेल सकता है.
समाज में जहां मेंटल हेल्थ पर बात करना आज भी टैबू माना जाता है, वहां व्यक्ति ऐसी समस्याओं में खुद को अकेला महसूस करता है. उन्हें मदद मांगने में झिझक होती है, उन्हें डर होता है कि कहीं उनके माता-पिता, शिक्षक या साथी उन्हें गलत न समझें या उन्हें जज न कर लें.
मेरठ की नेहा (बदला हुआ नाम) का ही मामला लें. नेहा की मां बताती हैं, कि उनकी बेटी केवल 17 साल की थी, जिसने 8 महीने पहले ही सुसाइड की है. इससे पहले बेटी अचानक से परेशान दिखाई देने लगी थी, लेकिन घर में कोई भी इसके पीछे का कारण नहीं जान पाया. दोस्तों से बात की तो पता चला कि नेहा ब्रेकअप से गुजर रही थी. बॉयफ्रेंड के ब्रेकअप किए जाने के कुछ दिनों बाद ही उसने सुसाइड करने का कदम उठाया. नेहा के माता-पिता के मुताबिक वह एक आदर्श छात्रा थी – अनुशासित, मेहनती और हमेशा खुशमिजाज रहने वाली. लेकिन अंदर ही अंदर वह अपनी भावनाओं से जूझ रही थी. ब्रेकअप और आने वाले बोर्ड परीक्षा के दबाव ने उसे निराश कर दिया था. आखिर में नेहा को अपनी जान लेने के अलावा कोई और रास्ता नहीं दिखाई दिया.
राहुल और नेहा, दोनों ने सुसाइड करने से पहले संकेत दिखाए थे, जिन्हें अगर समय पर पहचाना और उन पर ध्यान दिया गया होता, तो शायद उनकी जान बचाई जा सकती थी.
14 से 35 साल वालों में देखे जा रहे हैं सुसाइड के मामले
'बात करो' काउंसलिंग प्लेटफॉर्म के संस्थापक खुमेश पिछले कई सालों से लोगों को जागरूक करने का काम कर रहे हैं. खुमेश के मुताबिक, 14 से 35 साल के उम्र वाले लोगों में सुसाइड के केस ज्यादा देखने को मिलते हैं. वे कहते हैं, “जब लोग नेगेटिव विचारों से भर जाते हैं, तो वे आत्महत्या के बारे में सोचने की स्थिति में पहुंच जाते हैं. लेकिन इससे पहले वह व्यक्ति कुछ संकेत जरूर देता है. जैसे वह अचानक से चुप हो सकता है, उसे नींद कम आ सकती है, उसमें कॉन्फिडेंस की कमी देखी जा सकती है या वह अकेला रहना शुरू कर सकता है.”
इसके लिए परिवारों और दोस्तों के लिए इन बदलावों के बारे में जागरूक होना जरूरी है. खुमेश का कहना है कि आज माता-पिता अपने बच्चों के साथ उतने संवेदनशील नहीं हैं जितने पिछली पीढ़ियों में थे. मोबाइल फोन और टेलीविजन ने बातचीत की जगह ले ली है, जिससे कई बच्चे अकेले ही अपनी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं.
मेंटल हेल्थ को लेकर जागरूकता की जरूरत है
वहीं डॉ. राहुल भारत में मेंटल हेल्थ डिसऑर्डर (Mental Health Disorder) को लेकर जागरूकता की कमी की बात कहते हैं. वह बताते हैं कि हालांकि लोग पोलियो (Polio) या डायबिटीज (Diabetes) जैसी बीमारियों के बारे में सभी जानते हैं, लेकिन वे अक्सर मेंटल हेल्थ डिसऑर्डर और उनके प्रभाव को पहचानने में विफल रहते हैं. डॉ. राहुल शुरुआती हस्तक्षेप के महत्व के बारे में बताते हैं. डॉ. राहुल के मुताबिक, डिप्रेशन (Depression) का अक्सर पता नहीं चल पाता क्योंकि लोग इसके संकेतों से अनजान होते हैं. कई माता-पिता अपने बच्चों को उदास होने पर "मजबूत बने रहने" या दूसरी चीजों पर फोकस करने की सलाह तक दे बैठते हैं, लेकिन इससे स्थिति बिगड़ सकती है. डिप्रेशन को एक गंभीर मेडिकल ति के रूप में माना जाना चाहिए, और अगर लक्षण दो सप्ताह से अधिक समय तक बने रहते हैं, तो मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट से परामर्श करना जरूरी है.
डॉ. राहुल अपने बच्चों की मेंटल हेल्थ जरूरतों को पहचानने और उन्हें संबोधित करने में माता-पिता की भागीदारी के महत्व के बारे में बताते हैं. माता-पिता अगर देखें कि बच्चे के व्यवहार में कुछ बदलाव हो रहा है तो उनके प्रति संवेदनशील रहे. जैसे कि अकेले रहना, भूख की कमी, या नींद के पैटर्न में गड़बड़ी, क्योंकि ये सभी डिप्रेशन का संकेत दे सकते हैं. ऐसे में हमेशा एक्सपर्ट की सलाह लें.
सुसाइड का विचार भी मेडिकल इमरजेंसी है, तुरंत इलाज जरूरी
डॉ राहुल के मुताबिक सुसाइड का विचार भी एक मेडिकल इमरजेंसी है. इसके लिए तुरंत इलाज जरूरी होता है. वे कहते हैं, “टेक्नीकली अगर इंसान में डिप्रेशन के लक्षण 2 हफ्ते से ज्यादा दिख रहे हैं तो उसे साइकेट्रिस्ट के पास भेजा जाना चाहिए. लेकिन ज्यादातर केस में लोग 6 महीने तक भी इसे नहीं दिखाते हैं. इसे लेकर टालमटोल चलती रहती है. बच्चे को अक्सर कहा जाता है कि हिम्मत रखो, ठीक हो जाओगे, अपना ध्यान कहीं और लगाओ. हमें ये समझ जाना चाहिए कि ब्रेक डाउन हो चुका है. बच्चे को मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट के पास जरूर लेकर जाएं. बच्चे को कैसे ट्रीट करना है ये फैसला एक्सपर्ट पर छोड़ा जाना चाहिए न कि घरवालों को अपने लेवल पर इसे हैंडल करना चाहिए.”
जागरूकता और शिक्षा की भूमिका
सुसाइड प्रिवेंशन इंस्ट्रक्टर (Suicide Prevention Instructor) अतुल शर्मा मेंटल हेल्थ के बारे में जागरूकता और शिक्षा की जरूरत पर जोर देते हैं. उन्होंने कहा, “भारत में बहुत से लोग अभी भी मनोचिकित्सक और मनोवैज्ञानिक के बीच अंतर नहीं समझते हैं. लोगों के बीच मेंटल हेल्थ को लेकर खुलापन नहीं है. हमें एक ऐसी सोसाइटी बनाने की ओर ध्यान देना चाहिए जहां लोग अपनी मेंटल हेल्थ पर खुलकर बात कर सकें.
अतुल शर्मा एक बिहेवरियल ट्रेनिंग कंसलटेंट और साइकोलॉजिस्ट हैं. वे पिछले 22 साल से अलग-अलग ऑर्गनाइजेशन को एम्प्लॉई फ्रेंडली वर्कस्पेस बनाने में मदद कर रहे हैं. वे बताते हैं कि उन्होंने 16 से 77 साल की उम्र के लोगों के साथ काम किया है. कई मामलों में, उन्होंने पाया है कि माता-पिता या घर वाले इस बात से अनजान हैं कि मेंटल हेल्थ से जुड़े मुद्दे को कैसे संभाला जाए. जागरूकता की कमी और डिप्रेशन को एक की गंभीरता को न समझने की वजह से लोग सुसाइड का रास्ता अपनाते हैं.”
जैसे-जैसे मेंटल हेल्थ को लेकर बातचीत तेज होती जा रही है, वैसे-वैसे अब जागरूकता की जरूरत भी बढ़ती जा रही है. इस संबंध में सबसे बड़ी भूमिका शैक्षणिक संस्थानों की भी है. स्कूल और कॉलेज सिर्फ अकादमिक शिक्षा के स्थान नहीं होने चाहिए, बल्कि ऐसे स्थान होने चाहिए जहां छात्र अपनी भावनाओं को खुलकर बता सकें और जरूरत पड़ने पर मदद लेने में सुरक्षित महसूस कर सकें.
माता-पिता को भी अपने बच्चों की मेंटल हेल्थ को अच्छा रखने में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए. डॉ. राहुल माता-पिता को अपने बच्चों के साथ बातचीत करने के खुले रास्ते बनाए रखने की सलाह देते हैं. वह कहते हैं, "आजकल कई माता-पिता काम में इतने व्यस्त हैं कि वे अपने बच्चों से बात करना भूल जाते हैं. लेकिन वे छोटी-छोटी बातचीतें बड़ा बदलाव ला सकती हैं.”
मेंटल हेल्थ के बारे में खुली बातचीत को बढ़ावा देकर, मदद का हाथ बढ़ाकर और युवाओं को विफलता से निपटने के तरीके सिखाकर, हम इस संकट का समाधान करना शुरू कर सकते हैं. राहुल और नेहा की कहानी केवल बानगी भर है. उनके जैसे हजारों बच्चे हैं जिन्हें बताए जाने की जरूरत है कि वे अपनी जिंदगी की लड़ाई में अकेले नहीं हैं. और जीवन में कितना भी अंधेरा क्यों न हो लेकिन किसी कोने से एक रोशनी की किरण हमेशा आपके लिए आती रहेगी, बस जरूरत है कि आप उस बंद रस्ते को खोलकर देखें.
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