झारखंड के एक शांत इलाकों में, जमशेदपुर से लगभग 60 किलोमीटर दूर स्थित है एक छोटा सा गांव, अधरझोल. पहली नजर में यह गांव सामान्य लग सकता है, लेकिन इसके भीतर बसी हुई एक गहरी सांस्कृतिक विरासत है, जिसने दुनिया भर में अपनी पहचान बनाई है. इस पहचान का कारण है यहां के बेहद खास तबले, जो न केवल संगीत के उपकरण हैं, बल्कि एक समृद्ध परंपरा के वाहक भी हैं. 200 सालों से ज्यादा समय से, अधरझोल के लोग तबला बनाने की इस कला को जीवित रखे हुए हैं. इन्हीं तबलों के प्रशंसकों में शामिल थे उस्ताद जाकिर हुसैन, जिनका इस गांव के साथ एक अनमोल और गहरा रिश्ता था.
अधरझोल की कालातीत कला
अधरझोल गांव रविदास समुदाय का घर है, जो पीढ़ियों से तबला बनाने की परंपरा को संजोए हुए हैं. यहां का वातावरण किसी तरह के फैक्ट्री के शोर से भरा नहीं है, बल्कि लकड़ी को आकार देने वाले हथौड़ों की आवाज, तबले पर काले रंग (स्याही) को सावधानीपूर्वक लगाने की प्रक्रिया, और कारीगरों की बातचीत से गूंजता है.
यहां के तबलों को खास बनाती है उनकी अनोखी काली स्याही, जिसे आर्टिफिशियल केमिकल से नहीं, बल्कि प्राकृतिक पत्थरों से तैयार किया जाता है. यह बारीक लेकिन बड़ा अंतर, इन तबलों को ऐसी अनूठी आवाज देता है, जो उस्ताद जाकिर हुसैन जैसे महान कलाकारों को भी अपनी ओर खींचता है.
गांव में तबला बनाना सामुदायिक प्रयास का प्रतीक है. यहां पुरुष और महिलाएं मिलकर लकड़ी को आकार देने, चमड़े को खींचने, और आवाज को बेहतर करने में जुटते हैं. हर तबला एक ऐसी परंपरा को दिखाती है, जो सदियों पुरानी है. हालांकि, इनकी प्रसिद्धि के बावजूद, आज केवल 15 परिवार ही इस कला से जुड़े हुए हैं और वे भी आर्थिक तंगी और घटती मांग का सामना कर रहे हैं.
जाकिर हुसैन का अधरझोल के तबलों से लगाव
दुनिया के सबसे प्रसिद्ध तबला वादकों में से एक उस्ताद जाकिर हुसैन का अधरझोल और उसके कारीगरों के प्रति गहरा प्रेम था. भारतीय संगीत की परंपराओं के प्रति उनके आदर और उनकी बेमिसाल प्रतिभा के कारण वे अक्सर इसी गांव के बने तबले मंगवाते थे.
भारत में अपने व्यस्त कार्यक्रमों के बीच भी, जाकिर हुसैन अधरझोल के तबलों का एक सेट मंगवाना कभी नहीं भूलते थे. उनके लिए ये तबले सिर्फ वाद्ययंत्र नहीं, बल्कि प्रामाणिकता, इतिहास और आत्मा का प्रतीक थे.
गांव वालों का गर्व
अधरझोल के लोग जाकिर हुसैन का जिक्र गर्व और श्रद्धा के साथ करते हैं. गांव के बुजुर्ग कारीगर मेघनाथ रविदास कहते हैं, “पीढ़ियों से हमारा परिवार तबला बनाता आया है. यह जानकर कि उस्ताद जाकिर हुसैन जैसे महान कलाकार हमारे तबलों को पसंद करते हैं, हमें बहुत गर्व होता है. यह हमारे पूर्वजों की मेहनत का सम्मान है और हमारे लिए एक उम्मीद की किरण भी.”
70 साल के संदीप दास कहते हैं, “हर सुबह मेरी पत्नी और मैं लकड़ी को नया आकार देने के काम में लग जाते हैं. यह थकाने वाला काम है, लेकिन जब यह सोचते हैं कि हमारे तबले जाकिर हुसैन जैसे कलाकार तक पहुंचते हैं, तो सारी थकान दूर हो जाती है.”
गांव के अन्य कारीगर, जैसे संतोष रविदास, बताते हैं कि कैसे उनके तबले मुंबई, दिल्ली और यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचे. लेकिन उनका कहना है, “यह जाकिर हुसैन का प्रेम और सम्मान ही था, जिसने हमारे गांव को ‘तबले के गांव’ के नाम से मशहूर किया.”
एक नाजुक विरासत
इस प्रसिद्धि के बावजूद, अधरझोल के कारीगर गंभीर आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे हैं. मशीनों से बनने वाले वाद्ययंत्रों के बढ़ते चलन के कारण, हाथ से बने तबलों की मांग कम हो गई है. एक तबला बनाने में लगभग दो दिन लगते हैं, लेकिन इसके बदले मिलने वाला दाम बहुत कम होता है. कई परिवार इस पेशे को छोड़कर अन्य कामों में लग गए हैं, और केवल कुछ ही लोग इसे जारी रखे हुए हैं. यही वजह है कि युवाओं में इस पेशे को अपनाने का उत्साह कम है.
जाकिर हुसैन की अनुपस्थिति के बावजूद, अधरझोल के साथ उनका जुड़ाव इस बात का प्रमाण है कि कला और उसके कारीगरों का संबंध कभी खत्म नहीं होता. उनके द्वारा अधरझोल के तबलों को दी गई प्राथमिकता ने इस गांव को अमर कर दिया है और इसे भारतीय शास्त्रीय संगीत के इतिहास में एक खास जगह दी है.
हालांकि, इन कारीगरों के लिए आगे की राह आसान नहीं है. उनकी कला, ठीक उसी तरह जैसे जाकिर हुसैन ने इसे सराहा, एक मोड़ पर खड़ी है. इस परंपरा को बचाने के लिए सरकारी पहल, सांस्कृतिक संरक्षण के प्रयास, और मांग में बढ़ोतरी की जरूरत है.
फिलहाल, अधरझोल में तबले की थापें अब भी गूंजती हैं. जब तक अधरझोल के तबले दुनिया के मंचों पर गूंजते रहेंगे, तब तक उस्ताद का एक हिस्सा जीवित रहेगा.
(इनपुट: अनूप सिन्हा)