दक्षिण कोलकाता में रहने वाली 72 साल की रत्नाबली घोष एक स्कूल में पेशे से शिक्षिका हुआ करती थीं. लेकिन हाल ही में उन्होंने खुशी फैलाने के अपने अनोखे तरीके से शहर के लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है. रत्नाबली दिवाली और काली पूजा के दौरान कोलकाता के घरों के बाहर और सीढ़ियों पर 'अल्पोना' (Alpona) बनाकर लोगों को 'सरप्राइज गिफ्ट' दे रही हैं.
अल्पोना बंगाल की पारंपरिक कला है जिसमें चावल और आटे के घोल से घरों के बाहर चित्रकारी की जाती है. बिल्कुल रंगोली की तरह ही. दुर्गा पूजा और दिवाली जैसे खास मौकों पर आपको लोगों के घर-आंगन में या दरवाज़े के बाहर अल्पोना बनी हुई मिल जाएगी. हालांकि बीते कुछ सालों से यह कला गुम होती जा रही है.
रत्नाबली बंगाल की इस खास कला को जिन्दा रखने की पूरी कोशिश कर रही हैं. वह हर साल अपने दोस्त मुदार पथेरा के साथ मिलकर काली पूजा और दिवाली से पहले लोगों के बाहर अल्पोना बना आती हैं. रत्नाबली उत्तर और दक्षिणी कोलकाता के सैकड़ों घरों के बाहर अल्पोना बना चुकी हैं.
कैसे तैयार होती है अल्पोना?
अल्पोना या अल्पना की उत्पत्ति संस्कृत शब्द अलीम्पना से हुई है, जिसका अर्थ है 'प्लास्टर करना' या 'लेप करना'. और इसका संबंध सुंदरता से है. अल्पोना एक हजार साल पुरानी कला है. परंपरागत रूप से अल्पना को धूप में सुखाए गए धान के अंदर सफेद गिरी से बने एक विशेष पेस्ट से तैयार किया जाता है.
इस पेस्ट को पानी के साथ मिलाया जाता है. कलाकार अपनी कल्पना से कई तरह के पैटर्न बनाते हैं. ज्यामीतिय डिजाइन, फूलों के डिजाइन और जानवरों की कलाकृतियां भी अल्पोना में शामिल होती हैं. अल्पोना आमतौर पर घरों के दरवाज़ों और आंगनों में मूर्ति के सामने बनाई जाती है.
पारंपरिक अल्पोना बचाना चाहती हैं रत्नाबली
रत्नाबली घोष अपनी इस पहल के पीछे की वजह बताते हुए कहती हैं, "मैंने देखा कि हर कोई आर्टिफिशियल डिजाइन और स्टिकर का इस्तेमाल करता है. इसलिए मैं इस कला को दोबारा जिन्दा करना चाहती हूं. किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि यह बंगालियों की पारंपरिक कला है. और यह चलती रहनी चाहिए. इसीलिए हमने इसे अपनाया है."
वह कहती हैं, "हमने निर्णय लिया है कि हम गुमनाम रूप से अल्पोना बनाएंगे. मुदार ने मुझे ऐसा करने के लिए प्रेरित किया है. मैंने अपने बचपन में अपनी मां को अल्पोना बनाते हुए देखा था. तभी से मैं भी उनके साथ जुड़ गई. अब मैं पिछले तीन सालों से ऐसा कर रही हूं."