सीमांत गांधी, बच्चा खान, और बादशाह खान जैसे नामों से मशहूर, स्वतंत्रता सेनानी खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म 6 फरवरी, 1890 को बेहराम खान के घर हुआ था. खान खैबर पख्तूनख्वा से थे, जिसे पहले उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत के रूप में जाना जाता था. वह एक पख्तून या पठान थे.
खान अब्दुल गफ्फार खान ने पूरे काउंटी में अंग्रेजों के खिलाफ एक अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व किया और भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदू-मुस्लिम सुलह के हिमायती थे. वह एक राजनीतिक और आध्यात्मिक नेता थे, जिन्हें अहिंसा के प्रति शपथ के साथ उनके शांतिपूर्ण विरोध के लिए जाना जाता था.
महात्मा गांधी की विचारधारा ने किया प्रभावित
खान के करीबी दोस्त अमीर चंद बोमवाल ने उन्हें "सरहदी गांधी" उपनाम दिया, क्योंकि वह महात्मा गांधी की विचारधारा का अनुसरण करते थे. साल 1910 में, 20 साल की उम्र में, ख़ान ने अपने गृहनगर उत्मानज़ई में एक स्कूल खोला, जिसमें महिलाओं और बच्चों को शिक्षा दी जाती थी और उन्हें ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ आवाज उठाने की प्रेरणा मिलती थी.
विशेष रूप से अपने समुदाय की दयनीय स्थिति को देखने के बाद, खान ने 1921 में अफगान रिफॉर्म सोसाइटी की स्थापना की. इसके बाद समुदाय के सामाजिक उत्थान के लिए पश्तून असेंबली नामक एक युवा आंदोलन चलाया गया. उन्होंने एक मासिक राजनीतिक पत्रिका 'पश्तून' की भी स्थापना की जिसका उद्देश्य लोगों को सही जानकारी पहुंचाना था.
खुदाई खिदमतगार
1929 में, अंग्रेजों के खिलाफ एक विद्रोह में, खान ने खुदाई खिदमतगार का गठन किया, जो एक अहिंसक आंदोलन था. इस आंदोलन के जरिए उन्होंने एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और एकजुट राष्ट्र की मांग की. खुदाई खिदमतगार का मतलब था ईश्वर के सेवक.
उन्होंने सत्याग्रह और अहिंसा की धारणा के विश्वास पर खुदाई खिदमतगार की स्थापना की. उन्होंने निरक्षरता और गरीबी उन्मूलन में भी योगदान दिया और साक्षरता और शिक्षा के महत्व को सिखाया और युवाओं में उत्साह, अहिंसा और सकारात्मकता विकसित की. खुदाई खिदमतगार ने सफलता हासिल की और खैबर-पख्तूनख्वा की राजनीति पर हावी हो गया. 23 अप्रैल, 1930 को उन्हें नमक सत्याग्रह विरोध के दौरान गिरफ्तार कर लिया गया था.
हिंदू-मुस्लिम समुदाय का विभाजन
अब्दुल गफ्फार खान ने हिंदू-मुस्लिम समुदाय के बंटवारे का पुरजोर विरोध किया जिसके कारण उन पर कई राजनेताओं ने आरोप लगाए. यहां तक कि 1946 में भी उन पर हमला भी किया गया और उन्हें पेशावर के अस्पताल में भर्ती कराया गया था. हालांकि, जवाहरलाल नेहरू, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कैबिनेट मिशन की योजना और यहां तक कि मोहम्मद जिन्ना को प्रधान मंत्री पद की पेशकश के महात्मा गांधी के सुझाव जैसे समझौते को स्वीकार करने से इनकार कर दिया. इस बात का खान को गहरा धक्का लगा.
उन्होंने महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी से कहा कि 'आपने हमें भेड़ियों के हवाले कर दिया.' खान ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ पाकिस्तान के लिए उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत जनमत संग्रह, 1947 का बहिष्कार किया. लेकिन जो हुआ वह सबको पता है. बंटवारे के बाद वह पाकिस्तान चले गए. लेकिन वहां भी वह अपने समुदायों के हक के लिए लड़ते रहे. साल 1988 में पेशावर में हाउस अरेस्ट के तहत उनका देहांत हुआ.
मिला भारत रत्न
निधन के बाद, खान को जलालाबाद, अफगानिस्तान में उनके घर में दफनाया गया. अब्दुल गफ्फार खान के अंतिम संस्कार में 200,000 से अधिक शोकसभाओं सहित अफगान राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह शामिल हुए. राजीव गांधी, और तत्कालीन भारतीय राष्ट्रपति ने भी गफ्फार खान को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की और उनके सम्मान में सरकार द्वारा 5 दिन के शोक की अवधि भी घोषित की गई.
उन्हें साल 1987 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया था. हालांकि, जब उन्हें यह सम्मान मिला तब वह पाकिस्तानी नागरिक थे. लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं हैं कि उनकी रूह हिंदुस्तान में बसती थी. इसलिए गफ्फार खान जितने पाकिस्तान के थे उससे कहीं ज्यादा हिंदुस्तान के थे.