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Happy Birth anniversary Ibn Insha : हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों का प्यारा वो शायर जिसने गजल के मायने समझाएं

इब्ने इंशा की वो नज्म जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं, वो थी बगदाद की एक रात. नज्म बगदाद की एक रात में इब्न इंशा ने एक मरती हुई तहजीब का मर्सिया ( किसी मरे हुए की याद में कुछ लिखा हुआ) लिख दिया.

Ibn-insha Ibn-insha

आज इब्न इंशा का जन्मदिन है वही इब्ने-इंशा जिन्होंने लिखा कि ... कल चौंधवी की रात थी ,शब भर रहा चर्चा तेरा.. कुछ ने कहा ये चांद है कुछ ने कहा चेहरा तेरा.. अगर आज इब्न इंशा जिंदा होते 95 साल के होते. इब्न इंशा उर्दू के ऐसे शायर थे जिन्होंने उन पहलुओं को लोगों के सामने ला कर खड़ा कर दिया जो पहलू लोगों की आंखो से ओझल हुआ जा रहा था.  ये वही इब्न इंशा हैं जिनकी गजलों को जगजीत सिंह और पाकिस्तानी गायिका आबिदा परवीन की जबान से खूब सुनते आए हैं. आबिदा परवीन की गायी हुई नज्म दिल इश्क में बे -पयां , सौदा हो तो ऐसा हो या तकलीफ हिज्र दे गयी जैसी नज्में याद कर सकते हैं. 

पंजाब में पैदा हुए इब्ने इंशा का असली नाम शेर मोहम्मद खान था. इब्न इंशा की पकड़ उर्दू ज़बान पर इतनी ज़बरदस्त थी दिल्लीवाले भी उनसे पनाह मांगते थे. ये कह सकते हैं कि इब्न इंशा अपने जमाने के शायरों के लिए एक रोड़ा था और उर्दू जबान तो उनकी सनद मानी जाती थी. इब्ने इंशा को उनकी शायरी इसलिए भी खास बनाती थी क्योंकि उनकी जबान में पंजाबी रंग थे. वो लोक गीतों में हिंदी का भी बाखूबी इस्तेमाल करते थे. उनकी शायरी को सुनने के बाद अमीर खुसरो की भी याद आ जाती है.  

इब्ने इंशा की वो नज्म जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं, वो थी बगदाद की एक रात. नज्म बगदाद की एक रात में इब्न इंशा ने एक मरती हुई तहजीब का मर्सिया ( किसी मरे हुए की याद में कुछ लिखा हुआ) लिख दिया. 


सिंदबाद आज तो हमराह (साथ )मुझे भी ले चल
दिल जो बहला तो ख्यालों ही में अपना बहला
मैं तेरे साथ जमाने की नजर से ओझल
लेके चलता हूं मैं ख्यालों का सफीना(नौका, नाव, कश्ती) अपना

शोर-ओ-गुल शहर का मद्धम हुआ फिर डूब गया 
आज बस्ती से बहुत दूर निकल आया हूं
जुल्मते-शाम ने धुंधला दिए दहश्ते- दरिया
सोचता हूं कि सराय को अभी लौट चलूं

या इसी साअत-ए-इज़्तिरार ( time of restlessness)  के किसी गोशे में
सर बालों को बनाये हुए बिस्तर अपना
आज की रात गुजारों कहीं बैठें
शहर -ओ सेहरा ( उदास सुबह) में मुसाफिर के लिए फर्क ही क्या

एक अजब कैफियत -ए- ख़्वाब मुसल्लत (परेशानी से घिरे होना)  है यहाँ
अपनी दुनिया- ए कशाकश को मयास्सर है यही

दिन मुशक़क़त में कटे, रातें सितारे गिंते
सुबह आए गम- ए ताजा के संदेशे लेकर
जाने कब तक है ये सिलसिला ए शाम -ओ- सहर


शहजादों ही की जगीर हैं सारे इनाम
अपनी किस्मत है फकत खराकाशी, महरूमी
कुछ इसी दौर में देखा है ये रंग- ए- अय्यम
जिंदगी पहले जमानों में से दुश्वार ना थी


इब्ने इंशा ने ये नज्म अपने सफ़रनामे में बग़दाद की गलियों  में खोने का क़िस्सा बड़े दिलचस्प अन्दाज़ में लिखा है.

इब्ने इंशा अमेरिकी शायर एडगर एलेन पो  से बहुत प्रभावित थे, यही वजह है कि इंशा की बहुत सारी उर्दू की नज्मे एडगर एलेन पो की इंग्लिश कविताओं का उर्दू ट्रांसलेशन है. खास बात ये है कि इंसा की कोई भी शायरी पढ़ने के बाद वो ऑरिजनल ही लगती है.

शादी के बाद दूसरी औरत से प्यार करने वाला शायर

इब्ने इंशा की शादीशुदा जिंदगी कभी खुशहाल ना थी. इसकी वजह थी बचपन में ही शादी हो जाना. इंशा का अपनी पत्नी के साथ कभी पति-पत्नी जैसा रिश्ता रहा ही नहीं . परेशान हो कर इंशा ने सुसाइड की भी कोशिश की थी, आगे चल कर इंशा को एक शादीशुदा औरत से प्यार हो गया. इंशा अपने शायर बनने का क्रेडिट उसी महबूबा को देते हैं. 

नगरी-नगरी बना मुसाफिर इंशा की आखिरी किताब 

इब्ने इंशा गंभीर बीमारी से जूझते हुए इलाज के लिए लंदन गए, और वो वहां अपने पैरों पर ना लौट सके. उन्होंने लंदन में रहते हुए एक किताब लिखी थी, जो उनके मरने के बाद छपी. इस किताब का नाम था नगरी-नगरी बना मुसाफिर. बता दें कि ये इंशा की आखिरी किताब थी. 


मौत से पहले इंशा ने एक नज्म  लिखी थी, ये नज्म एक ऐसी नज्म है जिसे पढ़ कर एक ऐसे आदमी के एहसास का पता चलता है जिसने जिंदगी से हार मान ली हो लेकिन वो अभी भी नहीं टूटा है और वो डरा भी नहीं है

अब उम्र की नक़दी ख़त्म हुई / अब हम को उधार की हाजत है
है कोई जो साहूकार बने / है कोई जो देवनहार बने