मां अक्सर कहती है कि जमाना बहुत आगे बढ़ गया है. पहले लड़कियां ऐसा नहीं करती थीं या वैसा नहीं करती थीं. शायद हां, जमाना वाकई बदल गया है. लेकिन सवाल है कि स्त्रियों के लिए जमाना कितना बदला है. यह सच है कि आज स्त्री-पुरुष शायद कहीं एक बराबरी के मुकाम पर खड़े हैं लेकिन फिर भी एक लकीर है जो यह याद दिलाती है कि रास्ता अभी लंबा है लेकिन नामुमकिन नहीं. हाल ही में, लेखिका सविता सिंह की किताब, 'एक सूरज स्याह सा' पढ़ी.
कहने को तो सविता जी की यह पहली किताब है, लेकिन लेखन से उनका रिश्ता कई दशक पुराना है. शायद इसलिए ही किताब की हर कहानी में उनका अनुभव महसूस होता है. यह किताब स्त्री लघु कथाओं का संकलन है. यकीन मानिए आप एक बार पढ़ने बैठेंगे तो एक के बाद एक कहानियां पढ़ते ही जाएंगे. किताब की 10 कहानियां कब खत्म हो जाएंगी आपको खुद भी पता न चले.
सरल शब्दों में गढ़ा कठोर सच
यह किताब स्त्रियों की बात करती है. स्त्रियों पर जब भी लिखने बैठते हैं तो अक्सर बहुत बड़े-बड़े शब्द लिखे जाते हैं. क्योंकि अक्सर लेखन में स्त्रियां नहीं बल्कि देवियां होती हैं. लेकिन सविता जी के लेखन की खूबसूरती यही है कि उन्होंने स्त्रियों को स्त्री रहने दिया है. उनकी कहानी की हर एक नायिका मेरी-आपकी तरह एक आम सी स्त्री है जो अलग-अलग रिश्तों को जी रही है.
उनकी कहानी, धूप-छांव की सुप्रिया हो या बलिया वाली कोठी की जिया, इन औरतों को हर औरत महसूस कर सकती है. जैसे ये कहानियों के किरदार नहीं बल्कि हमारे आसपास ही रहने वाली कोई महिलाएं हों. सविता जी ने सभी कहानियों की पृष्ठभूमि 70-80 के दशक में रची है, लेकिन जैसे-जैसे कहानियां आगे बढ़ती हैं तो हमें किसी अपने जानने वाली स्त्री की ही कहानी दिखाई पड़ती है. और यही बात इस किताब को हर एक लड़की, या महिला के लिए खास बना देती है.
स्त्री मन की हर परत पर बात
स्त्री के मन, उसके मन के द्वंद, और उस द्वंद के विचारों पर जब चर्चा होती है तो इतनी परतें खुलने लगती हैं कि अर्थ कहीं खो जाता है. सविता जी का लेखन यहां खरा उतरता प्रतीत होता है. सुप्रिया के साथ विवाह में हुआ धोखा, बेटे-बेटी के फर्क के बीच जूझता माधुरी का अंतर्मन, या गोरी-सांवली के जंजाल में फंसी एक कच्ची उम्र की लड़की- इस किताब की हर कहानी स्त्री मन की मानो एक परत है.
हर कहानी में एक उम्मीद है बदलाव की. सविता जी की नायिकाओं ने बदलाव के लिए ढोल-नगाड़े नहीं पीटे हैं बल्कि आहिस्ता-आहिस्ता अपनी दुनिया का दायरा बढ़ाते हुए जिंदगी को करवट दी है. जैसा कि हमारे समाज की ज्यादातर महिलाएं करती हैं. आज भी भारत में ऐसे संयुक्त परिवारों का अस्तित्व है और इन परिवारों की स्त्रियां अपने अधिकारों का मोर्चा नहीं खोलती हैं बल्कि घर-परिवार को सहेजकर अपना रास्ता निकालती हैं. हमें भले ही यह उनका समझौता लग सकता है. लेकिन वास्तव में यह परिवर्तन की एक चिंगारी है जो समाज की रूढिवादी सोच की जड़ें खत्म करने के लिए काफी है.
अंत में, बस इतना ही कि सविता जी की कहानियां आज भी बहुत सी महिलाओं की जिंदगियों के ओत-प्रोत है. हर स्त्री उनकी नायिकाओं के जीवन के किसी न किसी पड़ाव से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करेगी. इसलिए एक बार जरूर पढ़ें ताकि आप अपने अंतर्मन को टटोल सकें और पूछें कि आज आपका अस्तित्व कहां खड़ा है.