दुनिया में ऐसे कई लोग होते हैं जो अपना सब कुछ खो देते हैं लेकिन बावजूद इसके अपनी हिम्मत नहीं खोते. उनके पास रुककर दुख मनाने का या अफसोस करने का भी समय नहीं होता है. वे निरंतर आगे बढ़ते हैं और अपने लिए जीने की कोई ना कोई वजह ढूंढ ही लेते हैं. कुछ ऐसे ही कहानी 68 वर्षीय मगनलाल ठाकुर भाई की है. जिनकी जिंदगी में कई मुश्किलें आई लेकिन उन्होंने हमेशा अपने पैरों पर खड़े होना सीखा.
दरअसल मगनलाल भाई अपने दोनों आंखों की रोशनी खो चुके हैं और परिवार में कमाने वाले वह अकेले ही व्यक्ति हैं. अपने परिवार के लिए उन्होंने यह तय किया कि वह चाहे कुछ भी हो जाए रुकेंगे नहीं. इसीलिए वे नेत्रहीन होने के बावजूद भी कुर्सियां बनाने का काम करते हैं.
एक या दो दिन में बना देते हैं कुर्सियां
हालांकि, मगनलाल जो कुर्सियां बनाते हैं वो कोई आम कुर्सियां नहीं हैं. ये ऐसी कुर्सियां हैं जिन्हें आम आदमी को बनाने में लंबा समय लग जाएगा लेकिन मगनलाल इसे बेहद सरलता से एक या 2 दिन में बनाकर पूरा कर देते हैं. मगनलाल बताते हैं कि उनका दिन सुबह 7 बजे शुरू होता है. 8 बजे वे अपनी दुकान की ओर बस के जरिए निकलते हैं. दुकान पर पहुंचते ही वे कुर्सियां बनाने का काम शुरू कर देते हैं. उनकी दुकान भी कोई बहुत बड़ी या हाईटेक दुकान नहीं है. दो-बाई-दो की उनकी दुकान पतरे से बनाई गई है. इसी में वे दिन भर काम करते हैं और शाम को घर को निकलते हैं.
एक कुर्सी को बनाने के मिलते हैं 250 रुपये
मगनलाल बताते हैं कि एक कुर्सी बनाने के उन्हें ढाई सौ रुपए मिलते हैं, जिसमें से उनका मुनाफा सौ या डेढ़ सौ का ही हो पाता है. उनका मानना है कि जब तक व्यक्ति अपने दम पर काम करता है वह स्वाभिमान के साथ जीता है.
मगनलाल की एक बेटी और पत्नी है. उनकी पत्नी की यह दूसरी शादी है. उनकी पत्नी बताती हैं कि उनका पहला पति उन्हें बहुत मारता था, इसलिए उन्होंने पहले पति को छोड़ दिया. लेकिन उन्होंने मगनलाल से इसलिए शादी की क्योंकि उन्होंने उनके काम के अहमियत को और जुझारूपन को समझ लिया था. मगनलाल की पत्नि बताती हैं कि वे जानती थी कि मगनलाल नेत्रहीन हैं लेकिन वह हर कीमत पर अपने काम को प्राथमिकता देते हैं और अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं हटते. इसलिए उन्होंने मगनलाल से शादी की.
8 साल के थे तब चली गई थी आंखों की रोशनी
मगनलाल बताते हैं कि जब वे आठ साल के थे तब किसी बीमारी के कारण उनकी दोनों आंखें चली गईं थी. उस समय तो ऐसा लगा कि बस अब जान ही चली जाए. लेकिन फिर उन्होंने सोचा कि आंख चली जाने से जिंदगी नहीं जाती और इसलिए वे आज अपने पैरों पर खड़े होकर अपनी लड़ाई खुद लड़ रहे हैं. वे कहते हैं कि आंखों की रोशनी जाने के बाद चुनौतियां तो कई आई लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी. उन्होंने यह नहीं समझा की वे कमजोर हैं.
मगनलाल कहते हैं कि वे आगे भी इसी तरह से काम करते रहना चाहते हैं और लोगों को भी यही कहते हैं कि चाहे परिस्थितियां विपरीत हों लेकिन उनका सामना करें. उसी से आप मजबूत होंगे.