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GNT Gyan: धन्वंतरि से लेकर कालिदास तक.... जानिए कौन थे राजा विक्रमादित्य के नवरत्न

सम्राट विक्रमादित्य के शासनकाल को साहित्य और कला के स्वर्णयुग के तौर पर जाना जाता है. इसके पीछे कारण ये था कि वे खुद ज्ञान और कला को खूब बढ़ावा दिया करते थे.

Navaratna of King Vikramaditya Navaratna of King Vikramaditya

भारत का इतिहास अपने आप में कई अनूठी बातों को समेटे हुए है. भारत की धरती पर विद्वानों और मनीषियों ने यहां की सभ्यताओं को पल्ल्वित और समृद्ध किया है. यहां के महान सम्राटों ने बहुत से ऐतिहासिक नगर बसाए. इन कुछ महान राजाओं में से एक थे सम्राट विक्रमादित्य. सम्राट विक्रमादित्य उज्जैन के महान शासक थे जो अपने पराक्रम के साथ-साथ अपने उदार स्वभाव और ज्ञान के लिए भी जाने जाते थे.

सम्राट विक्रमादित्य के शासनकाल को साहित्य और कला के स्वर्णयुग के तौर पर जाना जाता है. इसके पीछे कारण ये था कि वे खुद ज्ञान और कला को खूब बढ़ावा दिया करते थे. उनके अपने दरबार में नौ ऐसे विद्वान थे जो अलग-अलग क्षेत्रों में पारंगत थे. इन विद्वानों को सम्राट विक्रमादित्य के नौ रत्नों के तौर पर जाना जाता है. आज हम आपको बता रहे हैं सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों के बारे में. 

वराहमिहिर
महाराज विक्रमादित्य के सबसे पहले नवरत्न थे वराहमिहिर. वराहमिहिर ज्योतिष के प्रकांड विद्वान थे. उन्होंने ज्योतिष विषयक अनेक ग्रंथों को लिखा है, जिनमें बृहत्संहिता, पंचसिद्धांतिका, बृहत्जातक, लघुजातक, विवाह पटल, योग यात्रा आदि शामिल हैं. खगोल विद्या के गहन अध्ययन हेतु सम्राट ने कालिदास की प्रेरणा से हस्तिनापुर में एक नक्षत्र स्तंभ का निर्माण करवाया था. बताया जाता है कि हस्तिनापुर में वराहमिहिर के तत्कालीन निवास स्थान को आज महरौली कहा जाता है. 

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कालिदास
दूसरे नवरत्न थे कालिदास. कालिदास की कथा विचित्र है. कहा जाता है कि उनको देवी काली की कृपा से विद्या प्राप्त हुई थी, इसलिए उनका नाम कालिदास पड़ गया. ऐसा माना जाता है कि कालिदास सम्राट विक्रमादित्य के प्राणप्रिय कवि थे. उन्होंने भी अपने ग्रंथों में सम्राट विक्रमादित्य के व्यक्तित्व का उज्ज्वल स्वरूप निरूपित किया है. कालिदास की काव्य प्रतिभा पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता है. उन जैसा अप्रतिम साहित्यकार आज तक नहीं हुआ है. उनके चार काव्य और तीन नाटक प्रसिद्ध हैं. इनमें तीन नाटक- अभिज्ञान शकुंतलम, विक्रमोर्वशीयम, और मालविकाग्निमित्रम, दो महाकाव्य- रघुवंशम और कुमारसंभवम और दो खंड काव्य- मेघदूतम और ऋतुसंहारम शामिल हैं. 

सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्न (फोटो: फेसबुक)

वेताल भट्ट
तीसरे नवरत्न थे वेताल भट्ट. विक्रमादित्य के रत्नों में वेताल भट्ट के नाम से आश्चर्य होता है कि एक व्यक्ति का नाम वेताल भट्ट अथवा भूत प्रेत का पंडित कैसे हो गया? प्राचीन काल में भट्ट अथवा भट्टार उपाधि पंडितों की होती थी. वैताल भट्ट से तात्पर्य है भूत-प्रेत पिशाच साधना में प्रवीण व्यक्ति. वेताल भट्ट उज्जैनी के श्मशान और विक्रमादित्य के साहसिक कृत्यों से परिचित थे, इसलिए उन्होंने वेताल पंचविंशतिका नामक कथाग्रंथ की रचना की. विक्रम और वेताल की कहानी जगत प्रसिद्ध है. वेताल कथाओं के अनुसार विक्रमादित्य ने अपने साहसिक प्रयत्न से अग्निवेताल को वश में कर लिया था जो उन्हें अदृश्य रूप में अद्भुत कार्यों को संपन्न करने में सहायता करता था. वेताल भट्ट साहित्यिक होते हुए भी भूत, प्रेत, पिशाच आदि की साधना में तल्लीन तथा तंत्र शास्त्र के ज्ञाता थे. इनकी साधना शक्ति से राज्य को लाभ होता था. 

धन्वंतरि
चौथे नवरत्न थे धन्वंतरि. भगवान विष्णु के धनवंतरि अवतार से अलग ये धन्वंतरि सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक गिने जाते थे. इनके द्वारा रचित नौ ग्रंथ पाए जाते हैं. वे सभी आयुर्वेद, चिकित्सा शास्त्र से संबंधित रोग निदान, वैद्य चिंतामणि, विद्या प्रकाश, चिकित्सा धन्वंतरि, निघंटू, वैद्यक भास्करोदय तथा चिकित्सा सार संग्रह आदि हैं. शल्य चिकित्सा के प्रवर्तक धन्वंतरि के नाम से कालांतर में वैद्यों को धन्वंतरि कहा जाने लगा. आज भी किसी वैद्य की प्रशंसा करनी हो तो उन्हें धन्वंतरि से उपमा दी जाती है. 

वररुचि
पांचवें नवरत्न थे वरुचि. कालिदास की भांति ही वररुचि भी अन्यतम काव्यकर्ताओं में गिने जाते हैं. प्रदुप्तीकरण, अमृत सुभाषितावली तथा शंकर संहिता इनकी रचनाएं गिनी जाती हैं. सम्राट विक्रमादित्य के आदेशानुसार वररुचि ने पुत्र कौमुदी और विद्यासुंदर नामक काव्यों की रचना की. इनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे एक बार सुनी बात ज्यों की त्यों तत्काल भी और वर्षों बाद भी कह देते थे. 

घटकर्पर
छठे नवरत्न हैं घटकर्पर. अगर आप संस्कृत जानते हैं, तो समझ सकते हैं कि घटकर्पर किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता. इनका भी वास्तविक नाम यह नहीं है. मान्यता है कि इनकी प्रतिज्ञा थी कि जो कवि अनुप्रास और यमक रचना में इनको पराजित कर देगा, उनके यहां ये फूटे घड़े से पानी भरेंगे. बस तब से ही इनका नाम घटकर्पर प्रसिद्ध हो गया और वास्तविक नाम लुप्त हो गया. इनकी रचना का नाम भी घटकर्पर काव्यम है, यमक और अनुप्रास का यह अनुपमयी ग्रंथ है. 22 पदों का सुंदर काव्य संयोग श्रृंगार से ओतप्रोत है. इनका एक और ग्रंथ नीति सार के नाम से मिलता है. इसमें 21 श्लोकों में नीति का सुंदर विवेचन किया गया है. 

क्षपणक
सातवें नवरत्न थे क्षपणक. जैसा कि इनके नाम से प्रतीत होता है ये बौद्ध संन्यासी थे. जैन साधुओं के लिए भी क्षपणक नाम का प्रयोग होता था. इससे एक यह बात भी सिद्ध होती है कि प्राचीनकाल में मंत्रित्व आजीविका का साधन नहीं था अपितु जनकल्याण की भावना से मंत्रिपरिषद का गठन किया जाता था. यही कारण है कि संन्यासी भी मंत्रिमंडल का हिस्सा होते थे. इन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे, जिनमें भिक्षाटन और नानार्थकोष उपलब्ध बताए जाते हैं. 

अमरसिंह
आठवें नवरत्न थे अमरसिंह, जो एक प्रकांड विद्वान थे. बोधगया के वर्तमान बुद्ध मंदिर से प्राप्त एक शिलालेख के आधार पर इन्हें उस मंदिर का निर्माता कहा जाता है. इनके अनेक ग्रंथों में एकमात्र 'अमर कोश' ऐसा ग्रंथ है कि उसके आधार पर उनका यश अखंड है. अमर कोश पर 50 टीकाएं उपलब्ध हैं. यही उसकी महत्ता का प्रमाण है. अमर कोश से अनेक वैदिक शब्दों का अर्थ भी स्पष्ट हुआ है. अमर कोश में कालिदास के नाम का भी उल्लेख आता है.

शंकु
नौवें नवरत्न थे शंकु. नवरत्नों की गणना में शंकु का नाम उल्लेखनीय है. इनका पूरा नाम ‘शङ्कुक’ है. इनका एक ही काव्य ग्रंथ 'भुवनाभेद्म' बहुत प्रसिद्ध रहा है लेकिन आज वह भी पुरातत्व का विषय बना हुआ है. इनको भी संस्कृत का प्रकांड विद्वान माना गया है. शंकु को विद्वान, मंत्रिवादी, विद्वान, रसाचार्य और विद्वान ज्योतिषी माना गया है. 

इन नवरत्नों के अतिरिक्त भी चक्रवृत्ति सम्राट विक्रमादित्य के दरबार में विद्यमान विद्वानों में उच्चकोटि के कवि, गायक, वैज्ञानिक, शोधकर्ता, चिकित्सा, शास्त्री और गणित के प्रकाण्ड पंडितगण थे. इनकी योग्यता का डंका देश विदेश में बजता था.