"जब नारी, जिसे हम अबला कहते हैं, सबला बन जाएगी, तब जो असहाय हैं वे शक्तिशाली बन जाएंगे." दिसंबर 1936 में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन को संबोधित करते हुए महात्मा गांधी ने यह कहा था. उनका मानना था कि भारत की मुक्ति देश की महिलाओं के बलिदान और ज्ञान पर निर्भर करती है.
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास महिलाओं के योगदान के जिक्र के बिना अधूरा है. महिलाओं ने भी देश की आजादी में उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जितनी की पुरुष स्वतंत्रता सेनानियों ने.
बहुत सी महिला स्वतंत्रता सेनानी तो ऐसी थीं जिनके बारे में इतिहास में ज्यादा लिखा नहीं गया. लेकिन इनका भी देश की आजादी में उतना ही योगदान था जितना दूसरे सेनानियों का.
आज हम आपको बता रहे हैं कुछ ऐसी महिला स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में जिनके बारे में कम ही जानने-सुनने को मिलता है.
तारा रानी श्रीवास्तव
तारा रानी श्रीवास्तव का जन्म बिहार के सारण में एक बेहद गरीब परिवार में हुआ था. उनकी शादी 13 साल की छोटी उम्र में ही कर दी गई थी. उन्होंने अपने पति फुलेंदु बाबू के साथ भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया था.
युवा तारा और उनके पति स्वतंत्रता संग्राम के प्रति बहुत भावुक थे. एक बार महात्मा गांधी ने सीवान थाने के सामने झंडा फहराने के लिए लोगों को बुलाया. गांधीजी के आह्वान पर, फुलेंदु ने पुलिस स्टेशन की छत पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने के लिए पुरुषों और महिलाओं की एक विशाल भीड़ को थाने के सामने इकट्ठा किया.
तारा और फुलेंदु दोनों भीड़ के सामने खड़े होकर नारे लगाने लगे. जल्द ही पुलिस ने गोलीबारी शुरू कर दी और फुलेंदु पुलिस की गोलियों का शिकार हो गए लेकिन तारा रानी पीछे नहीं हटीं. उन्होंने अनुकरणीय साहस का परिचय देते हुए अपने पति के घावों पर पट्टी बांधी और राष्ट्रीय ध्वज के साथ सीधे पुलिस स्टेशन की ओर मार्च किया.
जब तक वह वापस लौटीं, उनके पति की मृत्यु हो चुकी थी. लेकिन उन्होंने हिम्मत न हारते हुए देश की आजादी की लड़ाई जारी रखी.
प्रीतिलता वाडेदार
प्रीतिलता वाडेदार का जन्म 5 मई, 1911 को चटगांव (आधुनिक बांग्लादेश) में हुआ था. वह हथियार उठाने और क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने वाली पहली महिलाओं में से एक थीं. पढ़ाई के दौरान वह दीपाली संघ में शामिल हो गईं, जो एक क्रांतिकारी संगठन था और युवावस्था में महिलाओं को युद्ध प्रशिक्षण देता था.
प्रीतिलता सूर्य सेन की भारतीय क्रांतिकारी सेना में शामिल होना चाहती थीं. लेकिन उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा क्योंकि इसमें पुरुषों का वर्चस्व था. कल्पना दत्त के साथ, उन्होंने इस समूह का सदस्य बनने के लिए कठोर प्रशिक्षण लिया.
जब चटगांव शस्त्रागार छापे में आईआरए के नेताओं को पकड़ लिया गया, तब प्रीतिलता सिर्फ 21 वर्ष की थीं. उन्हें 7-10 युवाओं के एक समूह की कमान सौंपी गई और उन्हें पहाड़ाली यूरोपीय क्लब (यूरोपीय लोगों के लिए सोशल क्लब) की घेराबंदी की. 23 सितंबर 1932 की रात को, एक पुरुष की तरह कपड़े पहनकर, उन्होंने साहसपूर्वक हमले का नेतृत्व किया. इसके बाद हुई भीषण बंदूक लड़ाई में उनके पैर में गोली लग गई, और वह भाग न सकीं. लेकिन आत्मसमर्पण करने के बजाय, उन्होंने साइनाइड की गोली खा ली और इस तरह शहीद हो गईं.
बसंती देवी
बसंती देवी अपने पति चितरंजन दास को असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण गिरफ्तार किये जाने के बाद स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गईं. उन्होंने खिलाफत और सविनय अवज्ञा जैसे आंदोलनों में भाग लिया. वह महिलाओं के लिए एक शैक्षिक केंद्र, नारी कर्म मंदिरा की संस्थापक सदस्य भी थीं. अपने पति की मृत्यु के बाद उन्होंने बांग्लार कथा का साप्ताहिक प्रकाशन चलाया. उन्होंने अध्यक्ष के रूप में बंगाल प्रांतीय कांग्रेस का नेतृत्व किया और 1973 में उन्हें पद्म विभूषण दिया गया.
बीना दास
पश्चिम बंगाल में जन्मी बीना दास एक भारतीय राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी थीं. उनके माता-पिता ब्रह्म समाज और स्वतंत्रता की लड़ाई में सक्रिय थे और उन्होंने सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षक के रूप में काम किया था. दास कोलकाता में महिला संगठनों के एक अर्ध-क्रांतिकारी समूह, छत्री संघ से संबंधित थीं. उन्होंने 6 फरवरी, 1932 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बंगाल के गवर्नर स्टेनली जैक्सन को मारने का प्रयास किया था. एक अन्य स्वतंत्रता सेनानी कमला दास गुप्ता ने उन्हें रिवॉल्वर दी थी. उन्होने पांच बार गोली चलाने का प्रयास किया लेकिन असफल रही और उन्हें नौ साल की जेल की सजा दी गई. 1939 में अपनी शीघ्र रिहाई के बाद, दास कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गईं. 1942 में, उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया और 1942 से 1945 तक फिर से जेल में रहीं. लेकिन आजादी की लड़ाई से पीछे नहीं हटीं.
सुनीति चौधरी
सुनीति चौधरी एक भारतीय राष्ट्रवादी थीं, जिन्होंने शांति घोष के साथ मिलकर 16 साल की उम्र में एक ब्रिटिश जिला मजिस्ट्रेट की हत्या कर दी थी और उन्हें सशस्त्र क्रांतिकारी संघर्ष में भाग लेने के लिए जाना जाता है. उन्हें अक्सर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सबसे कम उम्र की महिला क्रांतिकारी करार दिया जाता है. अपने सहपाठियों के बीच एक तैराकी प्रतियोगिता आयोजित करने की एप्लिकेशन देने की आड़ में, चौधरी और घोष 14 दिसंबर1931 को एक ब्रिटिश नौकरशाह और कोमिला के जिला मजिस्ट्रेट, चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवंस के कार्यालय में गए. जब स्टीवंस याचिका देख रहे थे, घोष और चौधरी ने अपने शॉल के नीचे से पिस्तौल निकाली और गोली मारकर उनकी हत्या कर दी.