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खेलने के नहीं बल्कि बनाने के हुनर ने दी पहचान, इस गांव के हर घर में बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक बना रहे हैं फुटबॉल

यह कहानी है मेरठ के एक गांव की, जहां हर घर में आपको फुटबॉल देखने को मिल जाएगी. इसकी वजह फुटबॉल खेलना नहीं बल्कि फुटबॉल बनाना है. गांव के हर घर में फुटबॉल बनाई जाती है. बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग तक इस काम से जुड़े हुए हैं.

बच्चों से लेकर बड़ो तक सब करते हैं फुटबॉल बनाने का काम बच्चों से लेकर बड़ो तक सब करते हैं फुटबॉल बनाने का काम
हाइलाइट्स
  • कहलाता है 'भारत का फुटबॉल गांव'

  • हर घर में पुश्तैनी काम है फुटबॉल बनाना

उत्तर प्रदेश के मेरठ का सिसोला बुजुर्ग गांव, 'भारत के फुटबॉल गांव' नाम से जाना जाता है. इसका कारण यहां फुटबॉल खेला जाना नहीं बल्कि बनाया जाना है. इस गांव का हर परिवार, बच्चा, जवान और बुजुर्ग सभी फुटबॉल बनाते हैं. 

रबर व चमड़े के 32 टुकड़ों को सिलते सिसोला बुजुर्ग गांव के लोगों के हुनर से भरे हाथ आर्थिक संपन्नता की आशा देते हैं.  

पुश्तैनी काम है फुटबॉल बनाना:

इस गांव के लोग बचपन से ही लोग अपने बड़े बुजुर्गों को देखकर फुटबॉल बनाना सीख जाते हैं और अपने पुश्तैनी काम को आगे बढ़ा रहे हैं. बरसों से यहां फुटबॉल बनाने का काम जारी है. देशभर के अलग-अलग इलाकों में यहां से फुटबॉल सप्लाई होती है. यहां के बच्चे फुटबॉल से खेलते न हों लेकिन उसकी एक-एक बारीकी को बड़ी उम्मीदों से बुनते हैं. 

हर घर में होता है फुटबॉल बनाने का काम

गांव के ज्यादातर सभी परिवार फुटबॉल बनाने के काम से जुड़े हुए हैं. किसी के घर कटाई का काम होता है तो किसी के घर सिलाई का काम. सुबह-सुबह गांव के लोग और यहां आने वाले कारीगर काम में लग जाते हैं.  हर शख्स प्रतिदिन 2–5 फुटबॉल बनाता है. 

आकार के आधार पर मिलती है कीमत:

फुटबॉल की कीमत फुटबॉल के आकार पर निर्भर करती है. एक फुटबॉल के 18 रुपए से लेकर 22 रुपए तक लोग यहां कमाते हैं. कुछ घरों में कटाई का काम चलता है, जहां लेदर और रबर की शीट को कटर के माध्यम से काटा जाता है. 32 टुकड़ों का सेट बनाकर कारीगर इसे अपने घर ले जाते हैं और सिलकर इनकी फुटबॉल बनाते हैं. 

भारत में यूं तो खेलों के सामान के लिए जालंधर पहले नंबर पर आता है. जालंधर के बाद अगर किसी जगह की फुटबॉल मशहूर है तो वह है सिसोला बुजुर्ग की. 

फुटबॉल बनाने में आगे महिलाएं:

इस गांव में महिलाएं भी फुटबॉल बनाने में आगे हैं. अपने घर के आंगन में अपनी बहन के साथ बैठकर फुटबॉल सिलती तनिषा बताती हैं कि उसके दादाजी से उसने फुटबॉल बनाना सीखा और आज दिन में चाहे तो 5 फुटबॉल अकेले बना देती है. 

वह बताती हैं कि पहले 32 टुकड़ों को सिलते है फिर इसमें ब्लैडर डाला जाता है. जिसके जरिए बॉल में हवा भरी जाती है. तनिषा बीए की पढ़ाई कर रही हैं लेकिन खाली वक्त में यह काम करके कुछ पैसे अपने खर्चे के निकल लेती हैं. गांव की ज्यादातर महिलाएं फुटबॉल सिलकर आर्थिक रूप से सशक्त होने का प्रयास कर रही हैं.

भारत का फुटबॉल गांव

फुटबॉल को बनाने का कारोबार करने वाले विनोद कुमार का कहना है कि गांव में वह पिछले 40 साल से इस काम को कर रहे हैं. गांव के सभी परिवार लगभग इसी काम को करते है्. छोटे बच्चे तक आसानी से फुटबॉल बना देते हैं. यह काम पुश्तैनी है और सभी इसी काम में लग जाते हैं. 

फुटबॉल वाला यह गांव बाकी हर गांव से जुदा है. गली-गली में फुटबॉल की उत्सुकता महकती है और मुस्कुराते चेहरे फुटबॉल बुनते हुए इस काम में अनंत खुशी ढूंढ लेते हैं.