लखनऊ के गोहना कला गांव में स्थित एक फैक्टरी बाहर से देखने पर तो किसी भी दूसरी फैक्टरी की तरह ही लगती है लेकिन अंदर जाने पर इसकी खासियत पता चलती है. यहां वो बच्चे काम करते हैं जो अपने जीवन में अलग-अलग शारीरिक और मानसिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं फिर भी मसाले पीसने से लेकर सरसों का तेल निकालने तक ये अत्याधुनिक मशीनों पर काम करते देखे जा सकते हैं.
16 साल के मकबूल को 6 साल की उम्र में ही माता-पिता ने लखनऊ के ‘दृष्टि सामाजिक संस्थान’के शरणालय में छोड़ दिया था. शायद उनको लगा होगा कि सेरब्रल पैलसी की वजह से और बच्चों से अलग मकबूल आगे उन पर बोझ बन सकता है. इसके बाद कभी कोई मकबूल को लेने नहीं आया लेकिन आज 16 साल का मकबूल न सिर्फ मसाला फैक्टरी में काम कर आत्मनिर्भर है बल्कि अपने जैसे दूसरे बच्चों की मदद भी कर रहा है.
कुछ ऐसी ही कहानी है अरमान की. अरमान मुश्किल से बोल कर अपनी बात समझा पाता है लेकिन सरसों के तेल बनाने के कोल्ड प्रेस्ड ऑयल (cold pressed oil) के काम में उसका हाथ मशीन पर तेजी से चलता है. मकबूल और अरमान की तरह ही करीब 30 किशोर और हैं जो इस फैक्टरी में काम करते हैं. कई और बच्चे काम सीख रहे हैं. दरअसल ये फैक्टरी शारीरिक और मानसिक रूप से चुनौतियों से जूझ रहे स्पेशल बच्चों के लिए ही शुरू की गई है.
इसके बारे में दृष्टि सामाजिक संस्थान की जॉइंट डायरेक्टर शालू कहती हैं कि 'हम हमेशा चाहते हैं कि हमारे बच्चे एक उम्र के बाद रोजगार से जुड़ सकें. कुछ बच्चों को रोजगार मिला था लेकिन कोविड के संकटकाल में जब इन बच्चों का काम चला गया तो इनके लिए कोई और उम्मीद नहीं बची. ऐसे में सृष्टि सामाजिक संस्थान ने इनके लिए एक फैक्टरी शुरू करने की पहल की. शालू बताती हैं कि ये काम इतना आसान नहीं था. इसके लिए 14 साल से ज़्यादा के उन बच्चों को लिया गया जो माइल्ड कैटगैरी (mild catagory) के हैं यानि जो ये काम सिखाने पर कर सकते हैं. काम भी ऐसा रखा गया जिसे तीन स्टेप में बच्चे कर सकें. लड़कों का अलग और लड़कियों का अलग ग्रुप बनाया गया है. इनको स्पीच थेरपी की ट्रेनिंग दी गई है. शालू ये भी कहती हैं कि ये काम जहां लड़के सहजता से कर लेते हैं वहीं लड़कियों में अपने व्यवहार के अनुसार बहुत कुशलता और बारीकी से काम करने की आदत है.
इस फैक्टरी के लिए दृष्टि सामाजिक संस्थान ने लोन तो लिया ही साथ ही यहां हर वक्त इन बच्चों के काम को देखते के लिए एक इन्स्ट्रक्टर रहते हैं. दृष्टि संस्थान चलाने वाले अथर्व बहादुर कहते हैं ‘इनको उनकी शारीरिक और मानसिक चुनौतियों पर विजय प्राप्त कर इस काम को करना सिखाया जाता है. ये इसमें खुश भी हैं और आत्मनिर्भरता का इनको भी एहसास है. मौजूदा समय में यहां बच्चे हल्दी, धनिया पीसने से लेकर, मसालों को मिक्स करने और सरसों का तेल निकालने, बोतल में भरने , मसालों की पैकिंग करने का काम करते हैं. अथर्व स्पष्ट कहते हैं कि ये फैक्टरी बच्चों की एक ट्रेनिंग के तौर पर शुरू की गई है. इसलिए यहां मुनाफा मायने नहीं रखता. यहां कुछ मायने रखता है तो वो है इन बच्चों के चेहरे की मुस्कान, जो अपने जज्बे और मेहनत से अपने लिए आत्मनिर्भरता का रास्ता तलाश कर रहे हैं. ये तेल और मसाला फैक्टरी दिव्यांग और मानसिक रूप से मंदित किशोरों को आत्मनिर्भर बनाने की एक कोशिश है.
इस फैक्टरी की एक और खास बात ये है कि इससे आस-पास के किसानों की मदद भी हो रही है. फैक्टरी के लिए सरसों और हल्दी आस-पास के किसानों से खरीदी जाती है. गोहना कला गाँव के किसान और ग्राम प्रधान सूबेदार यादव कहते हैं ‘इससे किसानों को भी आसानी हो रही है. अब उनको अपना सामान लेकर मंडी तक नहीं जाना पड़ता बल्कि इस फैक्टरी के लिए सरसों और जल्दी खरीदी जा रही है.’अभी आस-पास के लोग शुद्धता से तैयार इन मसालों और तेल को खरीदते हैं. साथ ही दृष्टि सामाजिक संस्थान में रहने वाले करीब 250 बच्चों के लिए भी खाना बनाने में इसकी खपत होती है.
दृष्टि सामाजिक संस्थान (Drishti Samajik Sansthan) 1990 से मानसिक मंदित और दिव्यांग बच्चों के शरणालय के तौर कर काम कर रहा है. अथर्व की मां स्वर्गीय नीता बहादुर ने दृष्टि संस्थान को 33 साल पहले शुरू किया था. अब अथर्व और उनकी पत्नी शालू इस संस्थान को चलाते हैं. अब बच्चों को रोजगार से जोड़ने के लिए ये फैक्टरी शुरू की गई है जिससे 14 साल से ऊपर के उन बच्चों को सामान्य जीवन जीने के लिए प्रेरित किया जा सके जो शारीरिक रूप से काम करने में सक्षम हैं.