एक ऐसी महिला जिसे न पढ़ना आता है और ना ही लिखना. ऐसी महिला की 17 साल की उम्र में शादी हो जाती है. शादी के बाद वह एक ऐसे परिवार में जाती है, जहां पर महिलाओं का घर से बाहर निकलना या गांव की दहलीज को पार करना अच्छा नहीं माना जाता है. महिलाओं को घूंघट में रहने की हिदायत दी जाती है और उनको यही सिखाया जाता है कि घूंघट के बाहर उनका कोई संसार नहीं है. लेकिन इसी के बीच सत्रह साल की गवरीबेन ने सपना देखा. सपना एक बदलाव लाने का, सपना अपने पैरों पर खड़े होने का और सपना सभी महिलाओं के लिए कुछ करने का और तमाम चुनौतियों के बाद वो सपना आज पूरा हुआ. सपना कुछ इस कदर पूरा हुआ कि हस्तकला के क्षेत्र में योगदान के लिए 2012 में राष्ट्रपति पुरस्कार मिला. वह अमेरिका, सिडनी, साउथ अफ्रीका और इटली जैसे देशों में भी अपनी हस्तकला का एक्सिबिशन कर चुकी हैं और आज उन्होंने अपने साथ 17,000 महिलाओं को जोड़कर उन्हें रोज़गार देने का काम किया है.
1963 में हुआ जन्म
यह कहानी है पाटन जिले के सांतलपुर के छोटे से गांव बकुत्रा की रहने वाली गवरीबेन की. भुज जिले के छोटे से गांव माखेल में साल 1963 में जन्म लेने वाली गवरीबेन अपनी शादी के बाद पाटन जिले के बकुत्रा गांव में आईं. इस छोटे से गांव में हर साल पीने की पानी की समस्या के कारण कई परिवार गांव को छोड़कर शहरों की ओर पलायन करने लगे. भुज जिले के छोटे से गांव माखेल में साल 1963 में जन्म लेने वाली गवरीबेन अपनी शादी के बाद पाटन जिले के बकुत्रा गांव में आईं.
जब गवरीबेन 17 साल की थीं, तभी उनकी शादी हो चुकी थी. उनकी शादी एक ऐसे समाज और परिवार में हुई थी..जहां पर लड़कियों का बाहर जाना अच्छा नहीं माना जाता था. महिलाओं को गांव से बाहर जाने तक की इजाजत नहीं थी.
इस छोटे से गांव में हर साल पीने की पानी की समस्या के कारण कई परिवार गांव को छोड़कर शहरों की और पलायन करने लगे. और तो और चूंकि पूरा गांव कच्छ में बसता इसीलिए गांवों में पानी की कमी के कारण खेती की बड़ी समस्या होती थी और इसलिए गांव में लोगों के पास कमाई का कोई जरिया नहीं था. गवरीबेन का भी परिवार इसी समस्या से जूझ रहा था.
हस्तकला को बनाया अपना रोजगार
फिर उन्होंने तय किया कि वे इस गांव की तस्वीर बदलेगी और इसकी शुरुआत वे खुद से करेंगी. गवरीबेन ने हस्तकला को अपना रोजगार बनाया. धीरे-धीरे महिलाओं को अपने साथ जोड़ती गई. फिर अहमदाबाद की एक सेवा संस्थान से जुड़ गईं. जिसके माध्यम से महिलाओं को कुछ आमदनी भी हासिल होने लगी. गवरी बेन ने राज्य के अलग-अलग जगहों पर हस्तकला से बनाई गई चीजों का एक्सिबिशन में स्टॉल लगाना शुरू किया.
'पूरा परिवार हो गया था खिलाफ'
उनका यह सफर आसान नहीं था. जब गगरी बहन ने गांव से बाहर शहर की ओर रुख करने के बाद भी तब उनका पूरा परिवार उनके खिलाफ हो गया था. उनके पति ने उन्हें जाने से मना कर दिया. उनकी मां ने उन्हें यह तक कह दिया कि यदि वे गांव से बाहर दिल्ली जाती हैं तो फोन के लिए घर के दरवाजे हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे. भंवरी बहन बताती हैं कि वह एक ऐसा समय था जब परिवार ही नहीं बल्कि पूरा गांव उनके खिलाफ हो चुका था.
बावजूद इसके गवरीबेन रुकी नहीं और उन्होंने अपना सफर जारी रखा. गवरी बहन कहती हैं कि कई लोगों ने उन्हें डराने और धमकाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने अपने काम पर भरोसा किया और आज इसलिए वे इस मुकाम तक पहुंच पाई हैं. गवरीबेन ने केवल 10 महिलाओं के साथ शुरुआत की थी, लेकिन आज उनके साथ लगभग 17000 से भी ज्यादा महिलाएं जुड़ चुकी हैं.
राष्ट्रपति से मिल चुका अवॉर्ड
साल 2012 में गवरीबेन को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने बेस्ट हस्तकला के अवॉर्ड से सम्मानित किया. धीरे-धीरे उनके प्रॉडक्ट्स ने विदेशों में भी जगह बना ली. उन्हें अलग-अलग जगह बुलाया जाने लगा. गवरीबेन कई बार अमेरिका का दौरा भी कर चुकी हैं.
उसके बाद सिडनी, साऊथ अफ्रीका और इटली जैसे देशो में भी अपनी हस्तकला को प्रचलित किया है. गवरीबेन ने कहा कि अमेरिका में हमारी हर प्रकार की बनाई गई चीजें लोग पसंद करते हैं. वहीं, साऊथ अफ्रीका में ज्यादातर लोग काले रंग और लाल रंग से बनी चीजे पसंद करते हैं.
विदेशों में भी गवरीबेन के हैं फैन
पाटन की हस्तकला की डिमांड बॉलीवुड में भी है. यही नहीं इनकी बनाई गई चीजें ऑनलाइन भी बिकती हैं. अहमदाबाद और मुंबई की कई कंपनियां उनके प्रॉडक्ट्स की देश-विदेशो में ऑनलाइन बिक्री कर रही हैं. गवरीबेन के फैन विदेशों में भी हैं. कई बड़े लोग गवरीबेन से मिले हैं. जिनमें यूएन के प्रेजिडेंट के कोर्डिनेटर शोम्बी शार्प, यूएन की चीफ राधिका कॉल बत्रा और उनके स्टाफ, UNEP भारत के मुखिया अतुल बगई और UNEP के एडवाइजर राहुल अग्निहोत्री आदि शामिल हैं.