राजस्थान के हनुमानगढ़ क्षेत्र के परलीका गांव के अजय स्वामी एक प्रगतिशील किसान और उद्यमी हैं. एलोवेरा की खेती और इसकी प्रोसेसिंग करके उत्पाद बनाने वाले अजय का सफर बिल्कुल भी आसान नहीं थी. क्योंकि इससे पहले उनके पास खेती का कोई पूर्व अनुभव नहीं है. उनके पास अपने पिता की दो बीघे से कुछ ज्यादा ज़मीन बची थी और एक सुबह, उन्होंने अखबार में एलोवेरा के बारे में पढ़ा और इसमें किस्मत आजमाने की सोची.
चाय बेचकर करते थे गुजारा
द बेटर इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, अजय कक्षा 8 तक की स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद अपने पिता के निधन के बाद अपने परिवार का पेट पालने के लिए चाय की टपरी चलाने लगे थे. साल 1999 में वह एक चायवाले थे लेकिन अजय एक बेहतर जिंदगी चाहते थे और इसके लिए उन्होंने कुछ अलग करने की ठानी.
अखबार में एलोवेरा की कहानी पढ़ने के बाद अजय ने सोचा कि क्यों न दो बीघे जमीन का उपयोग किया जाए और एलोवेरा उगाना शुरू किया जाए. अजय ने इसके बारे में और अधिक जानने के लिए अपने समुदाय के किसानों से एलोवेरा और इसकी खेती के बारे में शोध करना और बात करना शुरू किया. इन बातचीतों के माध्यम से उन्हें पता चला कि एलोवेरा उगाने के लिए बहुत अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती है. उनका मानना था कि यह उनके लिए अच्छी खबर थी क्योंकि राजस्थान में अक्सर सूखा पड़ता था, जिससे ऐसी फसल उगाना मुश्किल हो जाता था जो काफी हद तक पानी पर निर्भर हो.
कब्रिस्तान से लाकर लगाए पौधे
अजय इस बात को लेकर परेशान थे कि शुरुआत के लिए बीज या पौधे कहां से ढूंढें, हालांकि उनके पास पौधे को विकसित करने के बारे में आवश्यक सारी जानकारी थी. लोगों ने अजय को चुरू के पास के गांव में एक कब्रिस्तान के बारे में बताया, जहां एलोवेरा के कई पौधे थे. उस गांव में एक व्यक्ति को दफनाए जाने के बाद, किसी ने वहां एलोवेरा का पौधा लगाया था. जैसे-जैसे अधिक लोग पौधे उगाने लगे, एलोवेरा फैलता गया.
गांव के लोग इन पौधो को हटाकर कब्रिस्तान साफ करना चाहते थे. जब अजय को इसके बारे में पता चला, तो उन्होंने एलोवेरा के पौधों को कब्रिस्तान से अपने खेतों तक ले जाने के लिए एक ट्रैक्टर और ट्रॉली का इस्तेमाल किया, जहां उन्होंने इन पौधों को दोबारा लगा दिया. उन्होंने पौधों के लिए उच्च गुणवत्ता वाले उर्वरक और मिट्टी का उपयोग किया. शुरुआत में, अजय खेती के साथ-साथ चाय की दुकान भी चला रहे थे. लेकिन उनकी मेहनत रंग लाई. डेढ़ साल बाद उन्हें अच्छी फसल मिली.
मार्केट के लिए की मेहनत
साल 2002 में, अजय ने अपनी चाय की दुकान चलाना बंद कर दिया क्योंकि उनकी खेती में सफलता दिख रही थी. लेकिन अजय के मुताबिक, जब वह एलोवेरा का पौधा लगा रहे थे और उसकी खेती कर रहे थे, तब भी उन्हें लगातार इस बात की चिंता रहती थी कि लोग पौधे कहां बेच रहे हैं. इसलिए उन्होंने पहले से ही खरीददारों की तलाश शुरू कर दी और धीरे-धीरे उन्हें लीड मिलती गई.
उनका कहना है कि एलोवेरा को उचित मूल्य पर उगाया जा सकता है और रेतीली मिट्टी में भी अच्छी फसल पैदा होती है. इसके लिए कम पानी की आवश्यकता होती है. एक बीघे में 800 एलोवेरा के पौधे बोए जा सकते हैं. एलोवेरा अपने स्वास्थ्य लाभों के लिए जाना जाता है और यह कोई नई बात नहीं है. इसका उपयोग हमारे बुजुर्ग वर्षों से करते आ रहे हैं.
बनाते हैं कई तरह के प्रोडक्ट्स
कृषि जागरण के अनुसार, अजय ने एलोवेरा सिर्फ उगाया नहीं बल्कि इसके अलग-अलग प्रोडक्ट्स जैसे जैल, क्रीम आदि बनाकर मार्केटिंग की. उन्हें अपने बचपन में एलोवेरा के लड्डू खाने की याद है और उन्होंने लॉकडाउन के दौरान इसके साथ प्रयोग किया. उनका प्रयोग सफल रहा और आद उनके एलोवेरा के लड्डू 350 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिक रहे हैं. अजय के अनुसार, नवाचार उद्योग में हर किसान की सफलता की कुंजी है.
अजय सर्दियों के महीनों के दौरान इन पौधों की अतिरिक्त देखभाल करने का सुझाव देते हैं क्योंकि यह वह अवधि है जब जलवायु पौधे के लिए प्रतिकूल हो सकती है. यह सलाह उन किसानों के लिए है जो एलोवेरा का उत्पादन शुरू करना चाहते हैं. फसल तीन से छह महीने में ही तैयार हो सकती है, हालांकि कभी-कभी इसमें पूरा साल लग जाता है. आज अपनी एलोवेरा की खेती से अजय लाखों में कमा रहे हैं और उन्होंने अपनी एक अलग पहचान भी बनाई है.