आजादी के लगभग आठ दशक बाद, काशी की "तिरंगी बर्फी", को अपनी पहचान मिल गई है. इस मिठाई को भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान स्वतंत्रता सेनानियों के मीठे हथियार के रूप में जाना जाता था. अब इसे आखिरकार अपनी पहचान यानि प्रतिष्ठित भौगोलिक संकेत (GI) टैग मिल गया है.
जीआई रजिस्ट्री ने मंगलवार को न केवल बनारस की तिरंगी बर्फी को बल्कि उत्तर प्रदेश के पांच दूसरे प्रोडक्ट्स को भी जीआई सर्टिफिकेशन दिया है. इनमें बनारस मेटल कास्टिंग क्राफ्ट, लखीमपुर खीरी थारू कढ़ाई, बरेली बेंत और बांस शिल्प, बरेली जरदोजी शिल्प और पिलखुवा हैंड ब्लॉक प्रिंट टेक्सटाइल शामिल हैं.
आजदी की लड़ाई और तिरंगी बर्फी
दरअसल, भारतीय स्वतंत्रता के लिए सभी ने अपने-अपने हिस्से की लड़ाई लड़ी है. इसमें विरोध और प्रतिरोध के अलग-अलग रूप शामिल थे. राजनीतिक आंदोलनों और बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों के अलावा, खानपान ने भी राष्ट्रवादी भावना को दिखाने में एक बड़ी भूमिका निभाई. आजादी के लिए भारत की लड़ाई का ऐसा ही एक प्रतीक तिरंगी बर्फी या तिरंगे रंग की मिठाई था. ये बनारस (वाराणसी) से सबसे पहले शुरू हुई थी.
राम भंडार ने की थी मिठाई शुरू
अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और गहरी परंपराओं के लिए जाना जाने वाला बनारस स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान प्रतिरोध का प्रतीक बन गया था. तिरंगी बर्फी, जिसे मूल रूप से राष्ट्रीय बर्फी के नाम से जाना जाता है, प्रसिद्ध मिठाई की दुकान राम भंडार के मालिक गुप्ता परिवार द्वारा बनाई गई थी. ये साल 1850 के आसपास बनारस के पुराने शहर के केंद्र में बनाई गई थी.
मिठाई ने तेजी से लोकप्रियता की हासिल
तिरंगी बर्फी ने तेजी से लोकप्रियता हासिल की और राष्ट्रीय गौरव और एकता का प्रतीक बन गई. ये तीन रंग वाली मिठाई भारतीय ध्वज का प्रतिनिधित्व करती है. इसकी मूल रेसिपी में बादाम, काजू और पिस्ता का उपयोग किया जाता है. दशकों से, तिरंगी बर्फी खाना एक परंपरा बन गई है. इसका आनंद देश भर के लोग स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस समारोह के दौरान लेते हैं.
आजादी के 75 साल बाद, तिरंगी बर्फी को इसके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व को स्वीकार करते हुए जीआई टैग मिला है. इससे न केवल बनारस की पाक विरासत का बचाया जा सकेगा बल्कि आने वाली पीढ़ियां तिरंगी बर्फी के महत्व को जान सकेंगी.