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World Environment Day: पर्यावरण की रक्षा के लिए देश में हुए हैं कई बड़े आंदोलन, जानिए

World Environment Day: हर साल पांच जून के विश्व पर्यावरण दिवस मनाकर लोगों को पर्यावरण की रक्षा का संदेश दिया जाता है.

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हाइलाइट्स
  • पर्यावरण के लिए हुए हैं आंदोलन

  • नर्मदा के लिए आंदोलन

हर साल 05 जून को दुनियाभर में विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है. पर्यावरण दिवस मनाने के पीछे का उद्देश्य है लोगों को प्रकृति और पर्यावरण के बारे में जागरूक करना ताकि हम अपनी पृथ्वी को बचाने की जिम्मेदारी को समझे. भारत में पर्यावरण संरक्षण की परंपरा बहुत पुरानी है. हमारे यहां प्रकृति को पुजनीय माना जाता है और इसलिए इसके संरक्षण की महत्वता पर लगातार बात होती है. बहुत से समुदाय तो ऐसे हैं जिन्होंने पर्यावरण की खातिर आंदोलन तक किए हैं. आज हम आपको बता रहे हैं भारत के कुछ फेमस पर्यावरणीय आंदोलनों के बारे में. 

1. बिश्नोई आंदोलन
बिश्नोई समुदाय को पर्यावरण के प्रति उनके समर्पण के लिए जाना जाता है. इस समुदाय के लोग प्रकृति और जीव-जंतुओं को खुद से ज्यादा महत्व देते हैं. सन् 1700 के आसपास राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में खेजड़ली गांव में बिश्नोई आंदोलन हुआ था. इस आंदोलन का नेतृत्व अमृता देवी नामक एक महिला ने किया था. दरअसल, राजा के आदेश पर नए महल के निर्माण के लिए गांवों में पेड़ों को काटा जा रहा था. लेकिन अमृता को पेड़ों से बहुत प्यार था और इसलिए उन्होंने अपने समुदाय के साथ मिलकर इस आदेश का विरोध किया.  इस आंदोलन में 363 बिश्नोई लोग मारे गए. 

बिश्नोई लोग शहीद गुरु महाराज जांबाजी की शिक्षाओं से प्रभावित थे, जिन्होंने 1485 में बिश्र्नोई धर्म की स्थापना की और पेड़ों और जानवरों को नुकसान ना पहुंचाने का नियम बनाया. जब राजा को इन सब बातो का पता चला तो उन्होंने गांव वालो से माफी मांगी और अपने सैनिकों को पेड़ों को कटाने के काम के लिए रोका और कहा की अब पेड़ों और जानवरों को कोई नुकसान नहीं पहुचाएंगा और यह कानून आज भी यहां लागू है.

2. चिपको आंदोलन
भारतीय इतिहास में चिपको आंदोलन बहुत प्रसिद्ध है. साल 1973 में उत्तराखंड के चमोली जिले में और बाद में टिहरी-गढ़वाल जिले में हुए चिपको आंदोलन का नेतृत्व सुंदरलाल बहुगुणा, गौरा देवी, सुदैशा देवी, बचनी देवी, चंडी प्रसाद भट्ट, गोविंद सिंह रावत, धूम सिंह नेगी, शमशेर सिंह बिष्ट और घनश्याम रतूड़ी जैसे लीडर्स ने किया. उनका उद्देश्य जंगल के ठेकेदारों से हिमालय की ढलानों पर पेड़ों की रक्षा करना था.

बहुगुणा ने पर्यावरण में पेड़ों के महत्व से गांव वालो को अवगत कराया. उन्हें बताया कि पेड़ मिट्टी के कटाव को रोकते हैं. बारिश लाते हैं. इसस प्रभावित होकर टिहरी-गढ़वाल के आडवाणी गांव की महिलाओं ने पेड़ों को चारों ओर से पवित्र धागा बांधा और जब ठेकेदार पेड़ काटने आए तो सब महिलाएं पेड़ों से लिपट गईं. इसलिए इसे चिपको आंदोलन या पेड़ों को गले लगाओ आंदोलन कहा हैं. 

3. साइलेंट वैली बचाओ आंदोलन
साइलेंट वैली, भारत के केरल के पवक्कड़ जिले में एक सुंदर हराभरा जंगल है. केरल स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड (केएसईबी) ने कुन्थिपुझा नदी पर एक जलविद्युत बांध का प्रस्ताव रखा है जो साइलेंट वैली से होकर गुजरती है. फरवरी 1973 में योजना आयोग ने लगभग 25 करोड़ रुपये की लागत से इस परियोजना को मंजूरी दी. हालांकि, कई लोगों को डर था कि यह परियोजना 8.3 वर्ग किमी के अछूते सदाबहार जंगल को डुबो देगी. कई गैर सरकारी संगठनों ने परियोजना का कड़ा विरोध किया और सरकार से इसे छोड़ने का आग्रह किया. 

साल 1978 में एक एनजीओ, केरल शास्त्र साहित्य परिषद, और कवि- कार्यकर्ता सुघथाकुमारी ने साइलेंट वैली के लिए आंदोलन चलाया. जनवरी 1981 में, जनता के अविश्वसनीय दबाव के आगे झुकते हुए, इंदिरा गांधी ने घोषणा की कि साइलेंट वैली की रक्षा की जाएगी. जांच के बाद नवंबर 1983 में साइलेंट वैली हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट को बंद कर दिया गया था. 

4.जंगल बचाओ आंदोलन
साल 1982 में बिहार के सिंहभूम जिले के आदिवासियों ने सरकार के खिलाफ विरोध किया था. क्योंकि सरकार ने साल के जंगलों को हटाकर बहुत मंहगे टीक के पेड़ लगाना चाह रही था. यह राजनीतिक दांव बताया जा रहा था लेकिन आदिवासियों ने ऐसा नहीं होने दिया और उनका आंदोलन झारखंड और ओडिशा तक फैला.

5. नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए)
साल 1985 में मेधा पाटकर, और बाबा आमटे, ने नर्मदा नदी को बचाने के लिए आंदोलन शुरू किया था. यह नर्मदा नदी पर बन रहे कई बड़े बांधों के खिलाफ एक सामाजिक आंदोलन था. यह आंदोलन सरदार सरोवर बांध के निर्माण से प्रभावित हुए लोगों के लिए उचित समायोजन और पुनर्वास की मांग के रूप में शुरू हुआ था. आंदोलन के बाद में मुख्य ध्यान पर्यावरण संरक्षण पर आया.

आंदोलनकारियों ने बांध की ऊंचाई 130 मीटर से कम करके 88 मीटर करने की मांग की. अक्टूबर 2000 में, सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला दिया जिसमें सरदार सरोवर बांध के निर्माण को मंजूरी दी गई और शर्त रखी कि बांध की ऊंचाई को 90 मीटर तक बढ़ाया जा सकता है. यह ऊंचाई 88 मीटर से ज्यादा है लेकिन यह निर्माण की प्रस्तावित ऊंचाई 130 मीटर से कम है. हालांकि, यह आंदोलन सफल नहीं था, क्योंकि बांध रोका नहीं जा सका, लेकिन यह देश के इतिहास के बड़े आंदोलनों में से एक है.