सिखों के नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर की आज 400 वीं जयंती है. यह दिन बहुत ही खास है. आज के दिन सिख धर्म के लोग प्रकाश पर्व मनाते हैं. आज के ही दिन गुरु तेग बहादुर का जन्म अमृतसर में 21 अप्रैल, 1621 को माता नानकी और छठे सिख गुरु, गुरु हरगोबिंद के घर हुआ था.
पिता ने उन्हें त्यागमल नाम दिया था लेकिन मात्र 14 साल की उम्र में पिता के साथ मुगलों के खिलाफ उन्होंने ऐसी बहादुरी दिखाई कि हर कोई उनसे प्रभावित हुआ. इसके बाद पिता ने उनका नाम तेग बहादुर रख दिया. उनका विवाह 1632 में करतारपुर में माता गुजरी से हुआ था, और बाद में वे अमृतसर के पास बकाला चले गए.
चौथे सिख गुरु, गुरु राम दास के बाद, गुरुत्व वंशानुगत हो गया था. जब तेग बहादुर के बड़े भाई गुरदित्त की युवावस्था में मृत्यु हो गई, तो 1644 में गुरुत्व उनके 14 वर्षीय बेटे, गुरु हर राय के पास गया. गुरु हर राय 1661 में 31 साल की आयु में अपनी मृत्यु तक इस पद पर बने रहे.
उन्होंने अपने पांच वर्षीय पुत्र गुरु हर कृष्ण ने उत्तराधिकारी बनाया, जिनकी मृत्यु 1664 में दिल्ली में आठ वर्ष की आयु तक पहुंचने से पहले हो गई थी. ऐसा कहा जाता है कि जब उनसे उनके उत्तराधिकारी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने अपने दादा चाचा "बाबा बकाला" का नाम लिया. लेकिन चूंकि गुरु हर कृष्ण ने सीधे तौर पर गुरु तेग बहादुर का नाम नहीं लिया था, इसलिए कई दावेदार सामने आए.
इस तरह मिली गुरु की पदवी
बताया जाता है कि उस समय एक धनी व्यापारी माखन शाह का जहाज समुद्र में तूफान में फंस गया था उन्होंने प्रार्थना की थी कि अगर वह बच गया तो वह शासन करने वाले गुरु को 500 स्वर्ण मोहर देंगे. लेकिन जब वे दिल्ली पहुंचे, तो उन्हें पता चला कि गुरु हर कृष्ण का निधन हो गया है और बकाला में दावेदारों की एक कतार लगी हुई है.
ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने फैसला किया कि जो कोई भी वास्तविक गुरु होगा, वह उनसे उतनी ही राशि मांगेगा जितना उन्होंने अपनी प्रार्थना में वादा किया था.
हालांकि कोई भी दावेदार इस परीक्षा में सफल नहीं हुआ और तब उन्हें बताया गया कि तेग बहादुर भोरा (तहखाने) में ध्यान कर रहे हैं. वह उनके पास पहुंचे और जैसे ही तेग बहादुर ने माखन शाह पर एक नज़र डाली तो तुरंत उससे कहा कि तुमने 500 सिक्कों का वादा किया था.
कहा जाता है कि यह सुनकर खुशी से माखन शाह छत पर दौड़ा और चिल्लाया "गुरु लाधो रे (मुझे गुरु मिल गया है)." इसके तुरंत बाद, तेग बहादुर किरतपुर साहिब चले गए. 1665 में, उन्होंने मखोवाल गांव में जमीन खरीदी और अपनी मां के नाम पर इसका नाम चक नानकी (अब आनंदपुर साहिब) रखा.
धर्मांतरण के खिलाफ लड़ाई
उनके दौर में औरंगजेब मुगल बादशाह था. वह अन्य सभी धर्म के लोगों को इस्लाम स्वीकारने के लिए मजबूर कर रहा था. धर्मांतरण या तो सरकारी आदेश पर होता या जबरदस्ती, पर होता जरूर था. अगर किसी पर अपराध या दुराचार का आरोप होता था और अगर वे धर्मांतरण करते थे तो उन्हें माफ कर दिया जाता था.
गुरु तेग बहादुर की पहली बार बादशाह के अधिकारियों के तब जंग छिड़ी जब उन्होंने पीर और फकीरों की कब्रों पर पूजा करने की परंपरा पर सवाल उठाना शुरू कर दिया. जैसे ही उनका संदेश फैलने लगा तो जींद (वर्तमान हरियाणा में) के पास धमतान में एक स्थानीय सरदार ने उन्हें ग्रामीणों से राजस्व एकत्र करने के मनगढ़ंत आरोप में उठवा लिया और उन्हें दिल्ली ले गए.
लेकिन आमेर के राजा राम सिंह ने इसमें हस्तक्षेप किया. उनका परिवार लंबे समय से गुरुओं का अनुयायी था. उन्होंने तेग बहादुर को लगभग दो महीने तक अपने घर में रखा जब तक कि उन्होंने औरंगजेब को आश्वस्त नहीं कर दिया कि गुरु एक पवित्र व्यक्ति हैं जिनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं हैं.
तेग बहादुर ने बहुत सी यात्राएं कीं. उन्होंने पूर्व में ढाका, और ओडिशा में पुरी तक से लेकर मथुरा, आगरा, बनारस, इलाहाबाद और पटना का भी दौरा किया. गुरु गोबिंद सिंह का जन्म 1666 में पटना में ही हुआ था. वे जहां भी गए लोगों को नशा छोड़ने के लिए प्रेरित किया. बहुत से लोगों ने उनसे प्रेरित होकर तंबाकू की खेती छोड़ दी. इतिहासकारों के अनुसार, मुगलों द्वारा बढ़ते अत्याचारों के बारे में जानकर गुरु तेग बहादुर वापस पंजाब आ गए.
गुरु की शहादत
आनंदपुर साहिब में एक कश्मीरी ब्राह्मण कृपा राम ने गुरु से संपर्क किया और उनसे स्थानीय सरदारों से सुरक्षा की मांग की. वे उनका जबरन धर्मांतरण करवाना चाह रहे थे. गुरु ने उन्हें सुरक्षा का आश्वासन दिया और उनसे कहा कि वे मुगलों से कहें कि उन्हें पहले गुरु का धर्म बदलने की कोशिश करनी चाहिए.
औरंगजेब ने इसे अपने लिए एक चुनौती माना. मुगलों ने गुरु तेग बहादुर को गिरफ्तार कर लिया. लेकिन गुरु तेग बहादुर ने इस्लाम अपनाने से इनकार कर दिया. इस पर औरंगजेब ने 11 नवंबर, 1675 को गुरु को सार्वजनिक रूप से फांसी देने का आदेश दिया.
चांदनी चौक पर उनके तीन साथियों, भाई माटी दास, भाई सती दास, और भाई दयाला जी के साथ उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया और उनका सिर काट दिया गया. अंत तक उन्हें अपना विचार बदलने के लिए कहा गया, लेकिन वे दृढ़ रहे. 1784 में, गुरुद्वारा सीस गंज साहिब उस स्थान पर बनाया गया था जहां गुरु तेग बहादुर ने शहादत दी. इस महान शहादत के कारण ही उन्हें हिंद की चादर कहा गया.