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Navratri: चंद्रघंटा... कुष्मांडा... और स्कंदमाता... जानिए मां आदिशक्ति के इन स्वरूपों और इनकी महिमा के बारे में

नवरात्रि में मां आदिशक्ति के अलग-अलग स्वरूपों की पूजा-अर्चना की जाती है. हर दिन मां के अलग रूप की पूजा होती है. जानिए मां आदिशक्ति के तीसरे, चौथे और पांचवे स्वरूप के बारे में.

Navratri Navratri

मां आदिशक्ति के नव रूपों में से उनका तीसरा स्वरूप है चंद्रघण्टा. चंद्रघंटा का अर्थ है– चंद्रमा घंटा के रूप में जिसके मस्तक पर शोभित है. “चंद्र: घंटायां यस्या: सा चंद्रघंटा.” इस रूप के प्रतीक के रूप में मां के 10 हाथ दिखए गए हैं; जो कि 5 कर्मेन्द्रिय और 5 ज्ञानेंद्रिय के प्रतीक हैं. चंद्रमा सौम्य और सुंदरता का प्रतीक है और वायु तत्त्व का भी. इसलिए ज्योतिष-शास्त्र की दृष्टि कि देखा जाता है कि कल्पनाशील व्यक्ति ‘वायु’ प्रधान होते हैं और चंद्रमा की ओर अधिक आकृष्ट होते हैं. योग साधना की दृष्टि से माता के इस रूप की पूजा के दिन साधक का ध्यान मणिपुर चक्र पर होता है, जो नाभि पर अवस्थित होता है.

साधना की दृष्टि से माना जाता है कि चंद्रघंटा की कृपा से अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं, दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है तथा विविध प्रकार की दिव्य ध्वनियाँ सुनाई देती हैं। अतः, ये क्षण साधक के लिए अत्यंत सावधान रहने के होते हैं.

मां चंद्रघंटा

इनका मन्त्र है:
पिण्डजप्रवरारुढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता | प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता ||

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इस रूप में मां शेर की सवारी करती हैं; जो वस्तुतः अंदर की शक्ति है, जिस पर साधक को आरूढ रहना है.
शेर कोई बाह्य जानवर नहीं है, अंदर का बल है जिसे नियंत्रित करना है.

कूष्मांडा : मां का चौथा रूप
माता को शक्ति कहते हैं. शक्ति (power) कार्य करने की क्षमता  (ability) का नाम है:- (power=work/time). भौतिकी का नियम है कि ऊर्जा (energy) जितनी अधिक होगी, कार्य उतना अधिक संपन्न होगा. संक्षेप में शक्ति(दुर्गा) की आराधना से या ऊर्जा-संचय की साधना से आप उर्जावान् (या ऊर्जावती) बनते(ती) हैं. कुछ शाक्त उपासक तो कलश-स्थापन के पश्चात् हिलते भी नहीं हैं. अगर आपने भौतिकी की पढ़ाई की होगी, तो समझ सकते हैं कि वे अपने गतिज ऊर्जा (kinetic energy) के क्षय को रोककर अपनी स्थितिज ऊर्जा(potential energy) को बढ़ा रहे होते हैं...चाहे स्वयं उन्हें इसका बोध न हो.

अस्तु, यह पूरी साधना प्रक्रिया तब सफलीभूत होती है, जब आप इसे सम्यक् रूप से समझकर करते हैं. अगर केवल साधना के नाम पर आडम्बर कर रहे हैं, तो उतना ही फल मिलेगा जितना बिना पथ्य के केवल किसी भी मात्रा में कोई दवाई खा लेने से. यह कहना कि कोई फल नहीं मिलेगा, वैज्ञानिक-बुद्धिसम्मत नहीं है क्योंकि जब हम कोई ऊर्जा व्यय करते हैं, तो वह किसी दूसरे रूप में अवश्य परिवर्तित होती है (law of conservation of energy). ध्यान रहे कि मंत्र 'प्रबल शाब्दिक ऊर्जा' (potent sound energy) को कहते हैं. विस्तार में इन पर न जाते हुए, हम इस दृष्टिबिन्दु से मां के चतुर्थ रूप को समझते हैं:-

मां का चौथा रूप 'कूष्मांडा' है. ‘कू’ का अर्थ छोटा, ‘ऊष्म’ का अर्थ ऊर्जा (heat energy)है. अंडा आकृति (oval shape) है. अर्थात् कूष्मांडा का शाब्दिक अर्थ हुआ– ‘छोटा और अंडाकार ऊर्जा पिंड.’ ध्यान दें कि यह हमारी हृदयस्थ स्थिति का प्रतीक है. ‘पिंड से ही ब्रह्मांड बनता है’ – यह रूप इसका भी प्रतीक है. आश्वस्ति है कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति करने के कारण माता का नाम कूष्मांडा पड़ा है : 
“कुत्सित: ऊष्मा त्रिविधतापयुतः संसार:, स अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्या: सा कूष्मांडा.” 

मां कूष्मांडा

उपर्युक्त श्लोक का साधारण शब्दों में अर्थ है – "त्रिविध-ताप-युक्त संसार जिनके अंदर स्थित है, वे भगवती कूष्मांडा कहलाती हैं." अर्थात्, ब्रह्मांड की उत्पत्ति करने के कारण ये कूष्मांडा हैं. तो, इस दिन पिंड से ब्रह्मांड की यात्रा के लिए कूष्मांडा देवी की विशेष साधना की जाती है.

यहाँ साधक अपनी साधना के बीच में है, पुल पर है. इसमें साधक का ध्यान हृदय तत्त्व (अनाहत चक्र) पर है, जिसका मूल तत्व अग्नि(fire) है. यहाँ देखें कि यह मूल तत्त्व (अग्नि) भी ऊष्म (heat) है।.

शाब्दिक-साधना या नाद-साधना की दृष्टि से
मां कूष्मांडा की उपासना का मंत्र है-
“कूष्मांडा: ऐं ह्री देव्यै नम:
वन्दे वाञ्छित कामार्थे चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
सिंहरूढ़ा अष्टभुजा कूष्माण्डा यशस्विनीम्॥”

आराधना के लिए माना जाता है कि चतुर्थी के दिन मालपुए का नैवेद्य अर्पित किया जाए और फिर उसे योग्य ब्राह्मण को दे दिया जाए. यहां देने का अर्थ प्रतीकात्मक है. हृदय पर अवस्थित चक्र है, तो यह प्रतीक किया गया कि आप देने का अभ्यास करें. आपका हृदय लेने में नहीं, देने में रमण करे। पंडितों ने इस क्रिया को 'अपूर्व दान' मान हर प्रकार के विघ्न के दूर हो जाने की मान्यता दे दी. प्रतीक यह कि हृदय को अगर 'लेने' की जगह 'देने' का अभ्यास हो, तो कोई तनाव या दुःख नहीं होगा. देना विस्तार है और वही काम्य है. 

इस तरह, पूजा पद्धति से अधिक महत्त्वपूर्ण है कि आप आंतरिक रूप से कितने तैयार हैं. सबसे बड़ी बात कि क्या आप समझते भी हैं कि क्या है 'कूष्मांडा', क्या है साधना और सच ही कहाँ पहुँच रहे हैं आप?

स्कंदमाता (आदि शक्ति का पाँचवां रूप) 

या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

माता का पांचवां रूप स्कंदमाता का है. छान्दोग्यश्रुति के अनुसार शिव और पार्वती के पुत्र 'कार्तिकेय' का दूसरा नाम 'स्कंद' है. इस तरह स्कंद की माता होने के कारण ही आदिशक्ति जगदम्बा के इस रूप को स्कंदमाता कहा गया है. प्रतीक के रूप में इसे यहाँ शिव और पार्वती का मांगलिक-मिलन समझना चाहिए. इसे अभिव्यंजित करने के लिए माता को ममतामयी रूप में 'स्कंद' को गोद में एक हाथ से सँभालते हुए दिखाया गया है. स्मर्तव्य है कि भगवान् शंकर (जो शम् या शांति करने वाले हैं) और पार्वती (पर्वत की पुत्री या परिवर्तन के लिए तैयार शक्ति) के इस परिणय प्रसंगोपरांत ही सनातन संस्कृति में संस्कार के रूप में कन्यादान, गर्भधारण आदि की महत्ता सुस्थापित हुई. 

मां स्कंदमाता

संस्कार (सम्+कृ+घञ्) का अर्थ प्रतियत्न, सुधार है, यही अनुभव भी है, यही मानस वृत्ति भी और यही स्वभाव का शोधन भी. अगर हम यह कहें कि संस्कृति शब्द संस्कार का ही विस्तार है तो भी कोई अत्युक्ति नहीं होगी. वस्तुतः मनुष्य के परिमार्जन का आधार संस्कृति है; तो इसका वाहक तत्त्व  संस्कार है. इसी क्रम में देखें तो हमारी संसृति में हर तत्त्व का एक विशेष संस्कार बताया गया है. गर्भ से लेकर मृत्यु पर्यन्त हर आत्मा संस्कारित होती रहती है. अस्तु, पार्वती संस्कारित शक्ति हैं.

किञ्चित् यही कारण है कि आराधना के प्रयोजन से इस रूप को संतान प्राप्ति हेतु अतिफलदायी माना गया है. इस रूप के ध्यान का मंत्र है–
"सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रित करद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कंद माता यशस्विनी॥"

अब इसे प्रतीकों में समझें–
मोक्ष का द्वार खोलने वाली माता सिंह पर आरूढ रहती हैं और परम सुखदायिनी मानी गई हैं. यहां सिंह आभ्यन्तरिक शक्ति को वश में करने का प्रतीक है. उद्दाम ऊर्जा नियंत्रित कहां होती है? इसे नियंत्रित करना शेर की सवारी करने जैसा ही दुस्साध्य है. अस्तु, इस रूप की स्तुति का मंत्र है : “ॐ स्कन्दमात्रै नमः.”

पुराण में यह वर्णन आता है कि मां स्कंदमाता की चार भुजाएं हैं. अपने दो हाथों में मां 'कमल-पुष्प' धारण किए रहती हैं. 'कमल' संस्कृति का प्रतीक है. इस तरह, शिव और शक्ति के मिलन से 'स्कंद' का जन्म और उससे संस्कृति और संसृति की प्रवहमानता का यह प्रतीकात्मक निरूपण है. 

इन कमलों में सोलह दलों (पंखुड़ियों) का होना बस चित्रकार की कल्पना नहीं है. वस्तुतः, यह शाक्त-साधकों के लिए 'विशुद्धि-चक्र' को इंगित करता है. विशुद्धि-चक्र ध्वनि का केन्द्र है और यह केवल संयोग नहीं कि सोलह पंखुड़ियां संस्कृत के सोलह स्वरों को अभिव्यंजित करती हैं. इतना ही नहीं,  ये उन सोलह शक्तिशालिनी-कलाओं (योग्यताओं) को भी प्रतीकों में निरूपित करने की व्यवस्था है, जिनसे एक मानव चेतना के उत्कर्ष को प्राप्त करता है.

साधक के दृष्टिकोण से अभी उसकी साधना 'विशुद्धि-चक्र पर अवस्थित है जिसका मूल स्थान कंठ है. ग्रैव-जालिका में गले के ठीक पीछे स्थित यह चक्र थायराइड ग्रन्थि के पास होता है. इस विशुद्धि में 'वि' का अर्थ विशेष और 'शुद्धि' का अर्थ अवशिष्ट निकालना है. विशुद्धि का रंग बैंगनी है, जो शिव-कंठ का भी रंग है. क्या यह बस ऐसे ही है कि आदियोगी, नीलकंठ, विषकंठ शिव को 'विशुद्धि-चक्र' का सबसे बड़ा साधक माना गया है? 

ऊपर हमने देखा कि आज साधना के पांचवें दिन साधक इस चक्र पर है अर्थात् पांचवें स्तर पर है. इसके नीचे चौथे स्तर पर अनाहत चक्र है और ठीक ऊपर आज्ञा चक्र है. जिज्ञासु पाठकों को यह जानना चाहिए कि अधिकतर लेखक, कवि, चित्रकार, मूर्तिकार आदि चौथे चक्र अथवा अनाहत चक्र(भावनाओं के चक्र) में ही होते हैं. 

ऐसी आश्वस्ति है कि विशुद्धि चक्र पर आने के बाद साधक 'तंत्र-विज्ञान' को समझने लगता है और 'शिव' तो तंत्र के सबसे बड़े विज्ञाता हैं ही. यह चक्र वस्तुतः एक फिल्टर है जिससे अज्ञान और प्रमाद के कई विष छन जाते हैं. इस चक्र की साधना को ही 'नादयोग' कहते हैं. इसकी फलश्रुति शब्द की साधना एवं ज्ञान की प्राप्ति में होती है जिसके अनन्तर ईमानदारी एवं निर्भीकता आदि गुणों का अभ्युदय एवं पल्लवन होता है. आगे आज्ञाचक से मिलकर यह विशुद्धि चक्र 'विज्ञानमय कोष' का निर्माण करता है. शब्दों को ब्रह्म कहने का वस्तुतः यही निहितार्थ है.

लेखक: कमलेश कमल 

(कमलेश कमल हिंदी के चर्चित वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी हैं. कमल जी के 2000 से अधिक आलेख, कविताएं, कहानियां, संपादकीय, आवरण कथा, समीक्षा इत्यादि प्रकाशित हो चुके हैं. उन्हें अपने लेखन के लिए कई सम्मान भी मिल चुके हैं.)