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Navratri: कात्यायनी...कालरात्रि... जानिए मां दुर्गा के इन रूपों को बारे में

नवरात्रि में मां दुर्गा के नवरूपों की पूजा की जाती है. माता का छठा रूप कात्यायनी और सातवां रूप कालरात्रि है. जानिए मां इन स्वरूपों के नाम का मतलब और महत्व.

Maa Durga Maa Durga

पराम्बा शक्ति पार्वती के नौ रूपों में छठा रूप कात्यायनी का है. अमरकोष के अनुसार यह पार्वती का दूसरा नाम है. ऐसे, यजुर्वेद में प्रथम बार ‘कात्यायनी’ नाम का उल्लेख मिलता है. ऐसी मान्यता है कि देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए आदि शक्ति देवी-रूप में महर्षि कात्यायन के आश्रम पर प्रकट हुईं. महर्षि ने उन्हें अपनी कन्या माना,  इसलिए उनका अभिधान 'कात्यायनी' हुआ. पाठकों को यह जानना चाहिए कि महिषासुर नामक असुर का वध करने वाली माता भी यही हैं, हालांकि इसका भी प्रतीकात्मक महत्त्व है.

पृथ्वी की ही भांति कात्यायनी को स्थितिज्ञापक संस्कार से युक्त, धरा-सी धीर, प्रेममयी और क्षेममयी माना गया है. वह सत्त्व, दया, ममत्व और शक्ति की पराकाष्ठा है, संभवतः इसीलिए पराम्बा है. पृथिवी सूक्त के प्रथम मंत्र में ही कहा गया- ‘सत्यं बृहदऋतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति। सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्युरूं लोकं पृथिवीः नः कृणोतु।।’(अथर्व. 12.11) अर्थात् सत्य, वृहद ऋतम्,उग्रता, दीक्षा, तप, ब्रह्म,यज्ञ, यह धर्म के सात अंग पृथिवी को धारण करते हैं औऱ यह पृथिवी हमारे भूत-भविष्य औऱ वर्तमान तीनो कालों की रक्षिका व पालिका है. कात्यायनी माता में यही गुण हैं.

प्रतीकात्मक चित्र में मां के हाथ में कमल और तलवार शोभित है. प्रतीकों पर ग़ौर करें, तो तलवार शक्ति का प्रतीक है और कमल संस्कृति का. तात्पर्य यह कि इन दोनों के माध्यम से यह दिखाने कि कोशिश है कि आदिशक्ति संस्कृति से मिल रही हैं; साधक की सांस्कृतिक चेष्टा सफलीभूत हो रही है. 

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इसमें साधक का ध्यान आज्ञा-चक्र पर रहता है, जो दोनों भृकुटियों के मध्य, मस्तक के केंद्र में  अवस्थित है जहाँ तिलक लगाया जाता है. यह आज्ञा चक्र 'आत्म-तत्त्व' का भी परिचायक है. विदित हो कि योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अतीव महत्वपूर्ण स्थान माना गया है. 

मां कात्यायनी (फोटो- विकिपीडिया)

योग साधना और विज्ञान में एक अद्भुत साम्य देखिए कि हज़ारों वर्षों से साधकों ने इसे दो पंखुड़ियों वाले कमल के रूप में अनुभूत किया एवं अब आधुनिक विज्ञान कहता है कि यह स्थान दो अतिमहत्त्वपूर्ण ग्रन्थियों (पीनियल और पिट्यूटरी- pineal and pitutary) के मिलन का बिंदु है. विज्ञान कहता है कि pitutary gland ही master gland है जो सभी ग्रंथियों को आदेश देता है. हमारे युवजनों को यह जानना चाहिए कि साधकों ने सदा से यही कहा है और इसका नाम ही आज्ञा-चक्र रखा है. आर्ष ग्रन्थों को पलटकर तो देखें– यह लिखा है कि आज्ञा-चक्र मन की हलचलों एवं बुद्धि को पूर्णतः प्रभावित करता है. मान्यता है कि परिपूर्ण आत्मदान करने वाले ऐसे मनस्वी साधकों की साधना फलीभूत होती है और दत्तचित्त भक्तों को मां कात्यायनी की कृपा से इस चक्र पर सिद्धि मिलती है.

जो साधक 'शब्द-साधना' या 'मंत्र' का आश्रय लेते हैं, उनके लिए माँ कात्यायनी की आराधना का मंत्र है : 
चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना ।  कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।

'महाकाली या कालरात्रि' : आदिशक्ति का सातवां रूप
'काल' समय को कहते हैं और मृत्यु को भी। सनातन कहता है कि काल(समय) ही काल(मृत्यु) है. यह काल(मृत्यु का कारण) हर काल(क्षण) आपको ग्रास बनाता जाता है... खाता जाता है और एक दिन आप पूरी तरह काल-कवलित(भौतिक देह समाप्त) हो जाते हैं.

अब देखें कि चराचर विश्व की अधीश्वरी, जगत् को धारण करनेवाली, संसार का पालन एवं संहार करने वाली तथा तेज:स्वरूप भगवान विष्णु की अनुपम शक्ति पराम्बा के सातवें रूप को ‘कालरात्रि’ या ‘महाकाली’ कहा गया है. यहा काल की रात्रि का मतलब क्या मृत्यु की रात्रि है? जब हम जागरण कर रहे हैं, तो उसमें यह मृत्यु की रात्रि कहां से आई? या शक्ति को कालरात्रि कहने का कुछ गहरा अर्थ है?? 

कालरात्रि का शाब्दिक अर्थ है–  ‘जो सब को मारने वाले काल की भी रात्रि या विनाशिका हो.’ सनातनी आस्था है कि सत्कर्म से अज्ञान का विनाश होता है और अमरत्व मिलता है. तो, यह साधना की शक्ति से अज्ञान की समाप्ति की कालरात्रि है। साथ ही, ज्ञान की संप्राप्ति की महारात्रि है।

ध्यातव्य है कि यह अमरत्व शरीर का नहीं, शरीरी का होता है, उसके अच्छे कर्मों का होता है। तो, यह सत्कर्मों की कीर्ति का अमरत्व है। विदित हो कि आर्ष ग्रंथों में कुसंस्कार और अज्ञान को मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु के रूप में वर्णित किया गया है, जो उसके रक्त और बीज(वीर्य) के माध्यम से संचरित होते हैं. साधना की अग्नि से ये रक्तबीज रूपी राक्षस विनष्ट होते हैं। इस तरह साधकों को समझना चाहिए कि कालरात्रि क्या है और महारात्रि क्या है.

मां कालरात्रि (फोटो- विकिपीडिया)

कालरात्रि को रूप में भयंकरा, साधकों के लिए अभयंकारा जबकि भक्तों के लिए शुभंकरी कहा गया है, क्योंकि उनके लिए ये समस्त शुभों की आश्रयस्थली हैं. इसे ऐसे समझें कि उद्दाम ऊर्जा का विस्फोट अपने स्वरूप में भयंकर लेकिन निमित्त में शुभ होता है। स्मरण रहे कि सांकेतिक रूप से ही आदि शक्ति (मां) के इस उग्र-स्वरूप में निरूपित किया गया है. जब इन सप्त चक्रों की सुषुप्त ऊर्जा उद्घाटित होती है, तो इस सृष्टि के कण-कण में अपरिमित ऊर्जा का प्रवाह होता है.

कहते हैं साधनारत देवी कुदृष्टि की भाजन ना बन जाए इसीलिए उनका वर्ण श्याम कर दिया गया. इस धार्मिक कथा को अगर तार्किक धरातल पर देखें तो स्त्री शक्ति की सामाजिक स्थिति का भी पता चलता  है. इसका मतलब है कि आशंका और कुत्सित मानसिकता सदैव से हर समाज में रही है जिसे शक्ति की साधना से ही बदला जा सकता है. कदाचित् यही कारण है कि मां अगले रूप में गौरवर्णा हैं. 

ऐसी आश्वस्ति भी है इस दिन तक आते-आते साधक की साधना मूलाधार से सहस्रार तक पहुंच जाती है. परमसत्ता इसी चक्र में अवस्थित होती है;  इसीलिए यह आदिम ऊर्जा ही 'उद्दाम ऊर्जा' या असीम ऊर्जा का स्पंदन कराती है.

सहस्रार का केंद्र सिर के शिखर पर माना गया है. वस्तुतः साधना की यह सर्वोच्च अवस्था है. पिछले चक्रों में हमने देखा कि साधक या कोई भी व्यक्ति मूलाधार से विशुद्धि तक किसी-न-किसी चक्र में अटका होता है; लेकिन सहस्रार वह चक्र नहीं है, जहां कोई साधक हरदम रह सकता है. इस चक्र के जागरण को तो कभी-कभी ही अनुभूत किया जा सकता है. अगर अधिक देर तक इससे तादात्म्य रहे, तो शरीर से तादात्म्य समाप्तप्राय होने लगता है और साधक के शरीर की आयु समाप्त होने लगती है.
 
आदि-शक्ति के गले में मुण्डमाल का क्या अर्थ है?

देखिए कि सहस्रार सम्पूर्ण विकसित चेतना की अवस्था है, इसलिए प्रतीकात्मक रूप से इसे सहस्र-दल कमल कहा गया है. एक कमल में हज़ार से अधिक पंखुड़ियाँ क्या होंगी, भला? तो, इसका मतलब है– अपनी सर्वोत्तम अवस्था और जागरण की संप्राप्ति। इस अवस्था में स्वयं का बोध मिट जाता है. इसलिए, देखिए कि शक्ति के जागरण से सिरों की माला (मुण्डमाल) की निर्मिति हुई है जो मिथ्या-तादात्म्य के कटने और विनष्ट होने का प्रतीक है.

अब तक मां को सिंह की सवारी करते दिखाया गया था, लेकिन इस रूप में मां गर्दभ(गदहे) पर आरूढ हैं. क्या इसका कोई प्रयोजन है? जी, हां. यह एक प्रतीकात्मक व्यवस्था है. यह दिखाया जा रहा है कि जब इस रूप में ऊर्जा का विस्फोट हो जाता है तब अपनी वृत्तियों को संभालना सिंह की सवारी करने जैसा दुस्साध्य नहीं रहता, वरन्  अब गर्दभ(गर्दभी) की सवारी करने की भांति सरल हो जाता है. अभिप्रेत यह कि अब साधक हृषिकेश हो जाता है एवं इन्द्रियां किसी दासिन, किसी गर्दभी की तरह आज्ञाकारिणी हो जाती हैं.

जगन्मयी माता की महिमा को ग्रंथों में कुछ इन विभूषणों से व्याख्यायित किया गया है : आरम्भ में सृष्टिरूपा, पालन-काल में स्थितिरूपा, कल्पान्त के समय संहाररूपा, महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी, महासुरी और तीनों गुणों(सत् रजस् तमस्) को उत्पन्न करनेवाली प्रकृति आदि. इसके अलावा, महामाया को भयंकरा, कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी कहा गया तो श्री, ईश्वरी, ह्री और  बोधस्वरूपा-बुद्धि भी कहा गया है। भाषा के अध्येता इन नामों की व्याख्या सहजता से कर सकते हैं.

निष्पत्ति के रूप में यह कहा जा सकता है कि इन गूढ़ प्रतीकों का चिंतन-अनुचिंतन करने से इनके अर्थ साधक को स्वयं उद्घाटित होते हैं. हां, जो साधक मंत्र द्वारा देवी कालिका (जो शस्त्र के रूप खड्ग धारण करती हैं) की साधना करना चाहते हैं, उनके लिए सरल मंत्र है–
ॐ क्रीं कालिकायै नमः।
ॐ कपालिन्यै नमः।।

लेखक: कमलेश कमल

(कमलेश कमल हिंदी के चर्चित वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी हैं. कमल जी के 2000 से अधिक आलेख, कविताएं, कहानियां, संपादकीय, आवरण कथा, समीक्षा इत्यादि प्रकाशित हो चुके हैं. उन्हें अपने लेखन के लिए कई सम्मान भी मिल चुके हैं.)