महागौरी, दुर्गा माता का आठवां रूप है. महागौरी के बारे में जानने से पहले एक बार माता के पहले सात प्रतीकात्मक रूपों का पुनर्स्मरण कर सकते हैं. पहला रूप–शैलपुत्री (शिला से शैल) – हमारे संकल्प की शक्ति शिला की भाँति हो. दूसरा रूप– ब्रह्मचारिणी – साधना में हम ब्रह्मचारी की तरह हों या हमारी शक्ति ब्रह्मचारिणी हो. जिस रूप की पूजा कर रहे हैं, उसका गुण लें. तीसरा रूप– चन्द्रघण्टा– ऊपर (मन में) चन्द्रमा सी शीतलता रहे और नीचे (अंदर) सिंह सी उद्दाम शक्ति को नियंत्रित करें.
चौथा रूप– कूष्माण्डा– जल सा निर्मल, विमल रहें, साधना में प्रवहमान रहें. पांचवां रूप–स्कंदमाता– साधना से 'ममता' और 'समता' की उत्पत्ति. छठा रूप–कात्यायनी– जब साधना फलीभूत होने लगती है, तब 'आज्ञाचक्र' खुलता है. सातवाँ रूप– महाकाली– उद्दाम ऊर्जा का विस्फोट, देह से परिचय का टूटकर(गले में मुण्डमाल) परम सत्ता से परिचय.
अब कड़वत रूप में आठवां रूप है– साधना की सिद्धि, दिव्यता, पाप, संताप, पूर्व-संचित पापों का विनष्ट होना. नवरात्र का आठवां दिन पूर्वसंचित पापों को धोने वाली पराम्बा के आठवें रूप महागौरी की स्तुति और उपासना का दिन है. भक्तों के सभी कल्मष(पाप) धोने वाली, अमोघ-शक्ति प्रदात्री, आशुफलदायिनी ‘महागौरी’ का शाब्दिक अर्थ है– ‘महती गौर वर्ण की.'
ऐसी आश्वस्ति है कि शिव को पति के रूप में पाने की तपस्या में आदिशक्ति सांवल-वर्णी हो गईं. महादेव ने प्रसन्न होकर उनके इस स्वरूप को दिव्य गौर वर्ण युक्त कर दिया. ऐसे भी समझ सकते हैं कि जब साधना सिद्ध होती है, तब तन दीप्त होता है, चरित्र में औज्ज्वल्य आता है. ग्रंथों में माता की इस गौरता की उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से की गई है. माता का परिधान और आभूषण भी श्वेत-शुभ्र ही दिखाया गया है जो किंचित् अंदर की ज्योति के प्राकट्य का बाह्य निदर्शन है.
एक विस्मित करने वाला तथ्य है कि महागौरी की आयु मात्र आठ वर्ष की मानी गई है– 'अष्टवर्षा भवेद् गौरी.' शायद यह प्रतीक है कि साधना फलीभूत होने पर शक्ति भी बालिका की तरह निष्पाप और पवित्र हो जाती है.
चित्र में देखें, तो माता श्वेत-वृषभ पर आरूढ हैं. इसका क्या अर्थ है? इसके लिए हमें यह जानना चाहिए कि वृषभ का अर्थ क्या है और यह किसको रूपायित करता है. संस्कृत शब्दकोशों के अनुसार वृषभ के कई अर्थ हैं, यथा:
1. गौ का नर
2.धर्म जिसके चार पैर माने गए हैं
3. ग्यारहवें मन्वंतर के इन्द्र का नाम
4. विष्णु का एक नाम (विष्णु को वृषभेक्षण भी कहा जाता है!)
5. साहित्य में वैदर्भी रीति का एक भेद। इसी अर्थ में वृष 'वेद' का भी पर्यायवाची है।
6. एक तीर्थ..आदि।
अब सामान्य बुद्धि से यह समझा जा सकता है कि यहां वृषभ धर्म का प्रतीक है. इसका श्वेत वर्ण औज्ज्वल्य एवं औदात्य को अभिव्यंजित करता है. ध्यान दें कि चार भुजाओं वाली मां का दाहिना हाथ अभय मुद्रा में है। शक्ति जब साधित हो जाती है तब अभय घटित होता है. विदित हो कि 'अभयं सर्वभूतानां' और 'अद्वेष्टा सर्वभूतानां' सनातन संस्कृति में दो अतीव समादृत आर्ष-उद्घोष हैं. इन दोनों की संप्राप्ति हेतु साधना का साफल्य आवश्यक है.
मां गौरी के नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल दिखाया गया है. त्रिशूल को ग़ौर से देखें, तो तीन शूल एक दंड पर टिके हैं. ये तीन शूल सत्त्व, रजस् और तमस् के प्रतीक हैं, जबकि दंड आर्जव(सीधापन या ऋजुता), मार्दव, 'साधना' और 'संतुलन' को दर्शाता है. यह संयोग नहीं है कि सबसे बड़े योगी या 'आदियोगी' शिव के साथ सदा त्रिशूल दिखाया जाता है, जिसका दंड उनके हाथ में होता है. यह दर्शाता है कि योग की शक्ति से आदियोगी ने तीनों गुणों को साध लिया, उनमें संतुलन स्थापित किया.
इसके अलावा, ऊपरवाले बाएं हाथ में डमरू है. डमरू भी गायन, लयबद्धता, स्वर-संगति और संगीत को दर्शाता है. भाषा-विज्ञान में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि संस्कृत का प्राणतत्त्व, (इसकी वर्णमाला) माहेश्वर-सूत्र से उद्भूत हुआ है, जो कि शिव की डमरू के बजने से निकला है. आज भी साधनारत अवस्था में एकनिष्ठ भाव से डमरू की ध्वनि सुनें, आभ्यंतर में कुछ प्रतिध्वनित-प्रतिनिनादित होने लगेगा.
माता के नीचे के बाएं हाथ को वर-मुद्रा दिखाया गया है. जब वर का मूल अर्थ श्रेष्ठ है. जब हम साधना से वर(श्रेष्ठ) हो जाते हैं, तो परम शक्ति हमें दान भी 'वर' (श्रेष्ठ) ही देती है, जिसे वरदान(श्रेष्ठदान) कहते हैं. ध्यातव्य है कि इस रूप में साधक की शक्ति साधित होकर दिव्य हो जाती है. किञ्चित् यही कारण है कि माता का यह रूप अत्यंत शांत और सर्वांग-सौम्य है.
साधक के दृष्टिकोण से देखें, तो साधना सफलीभूत हुई, अंदर का कमल विकसित हुआ और ज्योत जली जिससे रंग स्याह से सफेद हो गया. एक प्रतीक यह भी कि साधक के सभी दुःख-दैन्य को हरने वाली माता उनके जीवन में सिर्फ उजाला ही उजाला करती हैं.
जो शब्द-साधना करते हैं, उनके लिए महागौरी की आराधना का मन्त्र है –
श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।
सिद्धिदात्री- माता का नौवां रूप
या देवि सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
– तंत्रोक्त देवीसूक्त
भक्तवत्सला जगदंबा : 'माँ दुर्गा' की उपासना की उत्तमावस्था है– महानवमी! पूर्ण निष्ठा से की गई साधना इस दिन सिद्धि में परिणत होती है.
मान्यता है कि इस दिन तक आते-आते साधक साध ही लेता है और नौवें रूप में जीवनमुक्तता की अवस्था प्रदान करनेवाली 'मोक्षदा-शक्ति'– मां सिद्धिदात्री के रूप में प्रकट होती हैं. समस्त चर-अचर जगत् को संचालित करनेवाली, सर्वविधात्री देवी दुर्गा 'सिद्धि' और 'मोक्ष' प्रदात्री हैं और ऐश्वर्यप्रदायिनी भी. आश्वस्ति है कि दीनवत्सला दयामयी देवी का आश्रय ग्रहण करने पर इस संसार में कुछ भी अलभ्य नहीं रहता!!
चार भुजाओं वाली कमलासना मां के दाहिनी ओर के नीचे वाले हाथ में खिला हुआ कमल है, जो देखें तो सुषुप्त चक्रों के खुलने का प्रतीक है. इससे पहले के आठ दिनों में साधक अष्टसिद्धि प्राप्त करता है. मार्कण्डेय पुराण में इन अष्ट सिद्धियों का उल्लेख भी मिलता है– अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व.
भाषा-विज्ञान की दृष्टि से देखें, तो नवरात्र से संबद्ध सभी प्रतीकों की महत्ता स्वयंमेव यह सिद्धिदात्री माँ ही समुद्घाटित करने में पूर्णत: सक्षम हैं. यहां तक कि इस अवसर पर होने वाले रास, डांडिया आदि नृत्य, लास्य आदि प्रतीक स्वरूपात्मक ही हैं.
यह बाहर खेला जाना वाला रास वस्तुतः मनुष्य के मन, बुध्दि, चित्त, अहंकार की रसात्मक अनुभूति है जो कि वस्तुतः किसी भी साधक के परम तप की परिणति होती है.
समष्टि रूप में ये हमारी आंतरिक शक्तियों के प्रतीकात्मक चिह्न हैं जो कि भौतिक उपादानों से अभिव्यंजित होते हैं, जैसे– रास अंदर के ‘रस’ की, रसात्मक-अनुभूति और साधना की चरम परिणति से आये संगति का प्रतीक है. इसी तरह, डांडिया में जो डंडे लयपूर्वक मिलाए जाते हैं, वे अंदर की शक्तियों के सुमेल के प्रतीक हैं.
द्रष्टव्य है कि मां महिमामय गुणव्यंजक चरित्र को प्रकाशित करनेवाले 16 वेदोक्त नामों के संकीर्तन द्वारा वेदवेत्ता महर्षियों ने भी इनकी उपासना की है, जो निम्नवत् हैं–
(१) दुर्गा, (२) नारायणी, (३) ईशाना, (४) विष्णुमाया, (५) शिवा, (६)सती, (७) नित्या, (८) सत्या (९) भगवती, (१०) सर्वाणी, (११) सर्वमंगला, (१२)अंबिका, (१३) वैष्णवी, (१४) गौरी, (१५) पार्वती और (१६) सनातनी.
उपासना की दृष्टि से ये नाम इतने महत्वपूर्ण हैं कि इन्हें पुलकित भाव से अर्थ सहित हृदयंगम कर लेने मात्र से सर्वसिद्धिदायिनी दुर्गा देवी के गुण-स्मरण-कीर्तन के रूप में मानो इनकी पूजा संपन्न हो जाती है. अपने इन्हीं सुदुर्लभ गुणों के कारण ये सर्वसमर्थ- सनातनी देवी 'अमोघ-फलदायिनी', 'ममतामयी- माता' – सर्वाधारा, सर्वमंगल-मंगला, सर्वेश्वरी, सर्वऐश्वर्य-विधायिनी, शुभप्रदा, जयप्रदा, नित्यानंद-रूपिणी, सर्वसंपत्-स्वरूपिणी इत्यादि अनेक रूपों में बहुप्रशंसित हैं, जिनकी प्रशंसा में महादेव ने कहा है - 'महालक्ष्मी-स्वरूपासि किम् असाध्यं तवेश्वरी.'
इस जगत्-आराध्या, सर्वपूजिता, सर्वशक्तिस्वरूपिणी, मंगलकारी और परमानंदस्वरूपा के लिए उचित ही कहा गया है :
सर्वमंगलमांगल्यै शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।
लेखक- कमलेश कमल
(कमलेश कमल हिंदी के चर्चित वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी हैं. कमल जी के 2000 से अधिक आलेख, कविताएं, कहानियां, संपादकीय, आवरण कथा, समीक्षा इत्यादि प्रकाशित हो चुके हैं. उन्हें अपने लेखन के लिए कई सम्मान भी मिल चुके हैं.)