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सिर्फ हिंदू ही नहीं यहां मुस्लिम भी मनाते हैं बसंत पंचमी का पर्व, पिछले 800 साल से दरगाह में चल रही है ये परंपरा, जानिए इस साल किस तरह मनाई जाएगी

कहते हैं हजरत निजामुद्दीन के कोई संतान नहीं थी, लेकिन उन्हें अपनी बहन के बेटे ख्वाजा तकीउद्दीन नूंह से गहरा लगाव था. एक दिन बीमारी के कारण ख्वाजा नूंह का देहांत हो गया. नूंह के जाने से हजरत निजामुद्दीन काफी दुखी रहने लगे. उन्हें देखकर उनके अनुयायी अमीर खुसरो भी परेशान रहने लगे.

हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह
हाइलाइट्स
  • दरगाह में पिछले 800 साल से बसंत इसी तरह खेली जाती है.

  • इस साल कोविड-19 प्रोटोकॉल को ध्यान में रखते हुए मनाया जाएगा पर्व

फिज़ाओं में पीले गेंदे की उड़ती पंखुड़ियां…..टोकरियों में गेंदे के फूल…..कंधे पर पीला पटका……सिर पर पीला साफा……ख्वाजा की दरगाह में हरे रंग की नहीं बल्कि पीले रंग की चादर...... और चारों ओर गूंज रहा "'सकल बन फूल रही सरसों उम्बवा बोरे, टेसु फुलाय कोयल बोले दार दारी और गोरी करात सिंगरी मलानिया गढ़वा लाया अयिन कारसो' का गीत' ...... आह! कोई झूमने से खुद को कैसे रोक सकता है भला..

जी हां, जहां पूरे देश में बसंत पंचमी पर मां सरस्वती की पूजा अर्चना की जाती है. वहीं, राजधानी दिल्ली के निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में यह खेली जाती है. दरगाह में पिछले 800 साल से बसंत इसी तरह खेली जाती है.

कौन हैं  हजरत निजामुद्दीन औलिया?

दरअसल, ये कहानी हजरत निजामुद्दीन औलिया के समय की है, उनके नाम पर ही इस दरगाह का नाम पड़ा है. निजामुद्दीन औलिया चिश्तिया सिलसिला के एक संत थे. माना जाता है कि हजरत शेख ख्वाजा सैय्यद मोहम्मद निजामुद्दीन औलिया की पैदाइश 1228 में उत्तर प्रदेश के बदायूं की है. ये भारत में चार प्रमुख सूफी आदेशों में से एक है. इसकी शुरुआत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने की थी, जिनकी दरगाह राजस्थान के अजमेर में है.

दरगाह में क्यों खेली जाती है बसंत?

कहते हैं हजरत निजामुद्दीन के कोई संतान नहीं थी, लेकिन उन्हें अपनी बहन के बेटे ख्वाजा तकीउद्दीन नूंह से गहरा लगाव था. एक दिन बीमारी के कारण ख्वाजा नूंह का देहांत हो गया. नूंह के जाने से हजरत निजामुद्दीन काफी दुखी रहने लगे.  उन्हें देखकर उनके अनुयायी हजरत अमीर खुसरो भी परेशान रहने लगे.

एक दिन अचानक खुसरो ने गांव की महिलाओं के एक समूह को पीले कपड़े पहने, सरसों के फूल लिए और ख्वाजा के चीला-खानकाह के पास सड़क पर गाते हुए देखा. खुसरो ने महिलाओं से पूछा कि वे इस तरह कपड़े पहन कर कहां जा रही हैं? महिलाओं ने उत्तर दिया कि वे अपने भगवान को फूल चढ़ाने के लिए मंदिर जा रही हैं. तब खुसरो ने उनसे पूछा कि क्या इससे उनके भगवान खुश होंगे? जब उन्होंने कहा कि ऐसा होगा, तो खुसरो तुरंत पीली साड़ी पहने, और सरसों के फूल लिए, संत के सामने ‘सकल बन फूल रही सरसों’ गाते हुए गए.

आखिरकार हजरत निजामुद्दीन के चेहरे पर आ गई मुस्कान..... 

उस दिन उनकी वेशभूषा और गीत से प्रसन्न होकर, संत के चेहरे पर आखिरकार मुस्कान आ ही गई. तब से लेकर अभी तक बसंत पंचमी का पर्व हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में मनाया जाता है. इस दिन सभी अनुयायी पीले रंग के कपड़े पहनकर, सरसों के फूल लेकर और कव्वाली गाकर बसंत की शुरुआत का जश्न मनाते हैं. आपको बता दें, करीब 800 साल से यह पर्व इसी तरह मनाया जा रहा है.

(फोटो: निजामुद्दीन दरगाह)
(फोटो: निजामुद्दीन दरगाह)

इस साल कोविड-19 प्रोटोकॉल को ध्यान में रखते हुए मनाया जाएगा पर्व 

GNTTV डिजिटल ने दरगाह शरीफ के इंचार्ज सईद अनीस निज़ामी से बात की. उन्होंने बताया कि इस बार भी बसंत पंचमी का पर्व दरगाह में हर साल की तरह ही मनाया जाएगा. लेकिन इसबार कोरोना महामारी के चलते सभी को कोविड-19 प्रोटोकॉल का पालन करना होगा. इसके लिए दरगाह में किसी को भी 20 मिनट से ज्यादा रुकने की अनुमति नहीं होगी. दरगाह में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन होगा और भीड़ लगाने की अनुमति नहीं दी जाएगी.

उन्होंने बताया की निजामुद्दीन औलिया दरगाह में बसंत पंचमी का पर्व दोपहर 3 बजे से शुरू होगा. जो भी दरगाह शरीफ के दर्शन करना चाहते हैं वे मास्क पहनकर ही आएं. 

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