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Parshuram Jayanti 2023: भगवान परशुराम का पहले था नाम राम, कैसे पड़ा ये नाम, क्यों किया था 21 बार क्षत्रियों का संहार, जानें इसके पीछे का कारण

भगवान परशुराम जी महादेव भोलेनाथ के परम भक्त थे. उन्होंने शिवजी की कठोर तपस्या की थी तब शंकर जी ने प्रसन्न होकर उन्हें दिव्य अस्त्र परशु यानी फरसा दिया था. आइए आज भगवान परशुराम से जुड़ी कथा के बारे में जानते हैं.

भगवान परशुराम भगवान परशुराम
हाइलाइट्स
  • भगवान विष्णु के छठवें अवतार हैं परशुराम जी

  • धरती पर जन्म मानव कल्याण के लिए हुआ

भगवान परशुराम विष्णु जी के  छठवें अवतार माने जाते हैं. उनका धरती पर जन्म मानव कल्याण के लिए हुआ. हिंदी पंचांग के अनुसार हर वर्ष वैशाख माह में शुक्ल पक्ष की तृतीया को परशुराम जयंती मनाई जाती है. इस साल 22 अप्रैल को परशुराम जयंती धूमधाम से मनाई जा रही है. आइए जानते हैं शुभ मुर्हूत, पूजा विधि और भगवान परशुराम से जुड़ी कथा.

शुभ मुहूर्त 
1.वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि प्रारंभ- सुबह 7 बजकर 49 मिनट पर (22 अप्रैल 2023)
2. वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि समाप्त- सुबह 7 बजकर 47 मिनट तक (23 अप्रैल 2023)

पूजा विधि
इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर सबसे पहले भगवान श्रीहरि विष्णु को प्रणाम करें. इसके बाद गंगाजल युक्त पानी से स्नान करें. अब आचमन कर नया वस्त्र पहनें. इसके बाद सूर्यदेव को जल का अर्घ्य दें और भगवान परशुराम की पूजा उपासना करें. भगवान को पीले रंग के पुष्प और पीले रंग की मिठाई अर्पित करें. अंत में आरती कर परिवार के कुशल मंगल की कामना करें. इस दिन व्रत करने वाले साधक को निराहार रहना चाहिए. संध्या काल में आरती-अर्चना करने के बाद फलाहार करें. अगले दिन पूजा-पाठ के पश्चात भोजन ग्रहण करें.

ऐसे पड़ा नाम परशुराम 
भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि के पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न होकर देवराज इंद्र ने उन्हें वरदान दिया था. तब जाकर माता रेणुका के गर्भ से भगवान परशुराम का जन्म हुआ था. परशुराम जी महादेव भोलेनाथ के परम भक्त थे. उन्होंने शिवजी की कठोर तपस्या की थी तब शंकर जी ने प्रसन्न होकर उन्हें दिव्य अस्त्र परशु यानी फरसा दिया था. परशु को धारण करने के बाद ही वह परशुराम कहलाए. भगवान परशुराम को चिरंजीवी रहने का वरदान मिला था. उनका वर्णन रामायण और महाभारत दोनों काल में होता है. उन्होंने ही श्री कृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध करवाया था और महाभारत काल में भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण को अस्त्र-शस्त्र का ज्ञान दिया था.

क्यों किया क्षत्रियों का संहार
महिष्मती नगर के क्षत्रिय हैहय वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक का पुत्र सहस्त्रार्जुन था. उसने भगवान दत्तात्रेय को अपनी तपस्या से प्रसन्न करके 10,000 हाथों का आशीर्वाद प्राप्त किया था. कहा जाता है महिष्मती सम्राट सहस्त्रार्जुन अपने घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लांघ चूका था. उसके अत्याचारों से जनता त्रस्त हो चुकी थी. एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ जंगलों से होता हुआ जमदग्नि ऋषि के आश्रम में विश्राम करने के लिए पहुंचा. महर्षि जमदग्रि ने सहस्त्रार्जुन का स्वागत किया. ऋषि जमदग्रि के पास देवराज इंद्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु नामक चमत्कारी गाय थी. सहस्त्रार्जुन ने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु को मांगा, लेकिन उन्होंने देने से मना कर दिया. सहस्त्रार्जुन ने क्रोध में आकर ऋषि जमदग्नि के आश्रम को उजाड़ दिया और कामधेनु गाय को अपने साथ ले जाने लगा, लेकिन तभी कामधेनु सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई.

सहस्त्रार्जुन और उसकी सेना को नाश करने का लिया संकल्प
 इसके बाद जब भगवान परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तो अपने आश्रम को तहस-नहस देखकर और अपने माता-पिता के अपमान की बातें सुनकर क्रोध में आ गए और उन्होंने उसी वक्त सहस्त्रार्जुन और उसकी सेना का नाश करने का संकल्प लिया. भगवान परशुराम ने सहस्त्रार्जुन की हजारों भुजाएं और धड़ परशु (फरसा) से काटकर कर उसका वध कर दिया.  सहस्त्रार्जुन के वध के बाद परशुराम अपने पिता ऋषि जमदग्नि के आदेशानुसार प्रायश्चित करने के लिए तीर्थ यात्रा पर चले गए, लेकिन तभी मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से तपस्यारत ऋषि जमदग्रि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर उनका वध कर दिया. सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का भी वध करते हुए, आश्रम को जला दिया. 

पिता के शरीर पर देखे 21 घाव 
माता रेणुका ने सहायतावश अपने पुत्र परशुराम को विलाप स्वर में पुकारा. जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे तो माता को विलाप करते देखा और वहीं पास ही पिता का कटा सिर और उनके शरीर पर 21 घाव देखे. यह देखकर परशुराम बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शपथ ली कि वह हैहय वंश का ही नहीं बल्कि समस्त क्षत्रिय वंशों का 21 बार संहार कर भूमि को क्षत्रिय विहिन कर देंगे और उन्होंने अपने इस संकल्प को पूरा भी किया था, जिसका उल्लेख पुराणों में भी मिलता है. उस समय भगवान परशुराम के क्रोध को महर्षि ऋचीक ने शांत किया था.