नक्सलवाद का दंश झेल रहे छत्तीसगढ़ में सुकमा के एक छोटे से गांव में स्थित राम मंदिर 21 साल बाद दोबारा खुल गया है. माओवादियों (Maoists) ने केरलापेंदा गांव में मौजूद इस मंदिर को 21 साल पहले बंद कर दिया था लेकिन सुरक्षाबलों की कोशिश के बाद यहां एक बार फिर घंटियां बजने लगी हैं.
यह मंदिर केरलापेंदा गांव के बीचोंबीच मौजूद है. यह क्षेत्र माओवादियों का गढ़ रहा है. साल 2010 में यहां से सिर्फ 10 किलोमीटर दूर तादमेतला में सुरक्षाबालों के 76 जवान शहीद हो गए थे, जबकि कुछ दूर मौजूद तेकुलगुड़ा नाम के गांव में 2021 में 22 जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी.
शनिवार को पहली बार मंदिर में हुई पूजा
गांव में नक्सलियों का इतना डर था कि मंदिर बंद होने के बाद कोई भी व्यक्ति वहां जाने की हिम्मत नहीं करता था. अब केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) की सुरक्षा के बीच मंदिर में दोबारा पूजा शुरू हो सकी है. शनिवार को सीआरपीएफ की निगरानी में कई स्थानीय लोगों ने मंदिर में श्रीराम के दर्शन किये.
मंदिर का दरवाजा खुलने के बाद 21 साल में पहली बार परिसर के अंदर सूरज की किरणें पहुंचीं. श्रीराम, लक्ष्मण और सीता माता की संगमरमर की मूर्तियों को साफ किया गया. इसके बाद स्थानीय लोगों ने लंबे इंतजार के मंदिर में पूजा अर्चना की.
कभी लगता था यहां भव्य मेला, आयोध्या से पहुंचते थे साधु संत
गांववालों ने बताया कि मंदिर बंद होने से पहले यहां भव्य मेला भी लगा करता था. अयोध्या से साधु-संन्यासी मेले में हिस्सा लेने आते थे. लेकिन नक्सलियों का प्रकोप बढ़ने और नक्सलियों द्वारा पूजा पाठ बंद करवा देने से सभी आयोजन पूरी तरह से बंद हो गए. बाद में नक्सलियों ने इस मंदिर को अपवित्र कर इसमें ताला मार दिया. नक्सली फरमान के बाद लोगों ने मंदिर जाना बंद कर दिया. मंदिर की हालत जर्जर हो गई और उसके बाहर घास-फूस उग आई.
सीआरपीएफ की बदौलत दोबारा खुल सका मंदिर
गांव पर माओवादियों की पकड़ ढीली होने का सबसे बड़ा कारण यहां खुले सीआरपीएफ के कैंप हैं. सीआरपीएफ ने केरलापेंदा और लखापाल गांव के बीच एक कैंप बनाया है जिससे क्षेत्र की सुरक्षा मजबूत हुई है. यहां मौजूद घने जंगलों की वजह से माओवादियों के लिए इसे अपना गढ़ बनाना आसान था.
सुकमा के एसपी किरण चव्हाण कहते हैं, "साल 2003 में जब माओवादी यहां सबसे ज्यादा एक्टिव थे तब उन्होंने मंदिर को बंद कर दिया था. उन्होंने गांव वालों से कहा था कि कोई भी मंदिर को न खोले न ही वहां पूजा करे. इसका कारण यह था कि यह जगह माओवादियों का गढ़ था. वे यहां कैंप बनाते थे, बैठकें करते थे और इस जगह को आवाजाही के लिए इस्तेमाल करते थे."
सीआरपीएफ की 74वीं वाहिनी का कैंप लगने के बाद ही स्थानीय लोगों ने सुरक्षाकर्मियों से बात की. उन्होंने सुरक्षाबलों को मंदिर के बारे में बताया, जिसके बाद उसे खोलने की तैयारी शुरू हुई.
सीआरपीएफ के सिपाही हिमांशु पांडे बताते हैं, "नया कैंप 11 मार्च को खुला था. गश्त लगाते हुए जवानों ने यह मंदिर देखा. स्थानीय लोगों ने बताया कि माओवादियों ने 2003 में मंदिर को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की थी और उसे जबरन बंद कर दिया था. एक समय पर गांववासी यहां मेला लगाया करते थे. आदिवासियों की सिफारिश पर ही हमने मंदिर को दोबारा खोला और उसे साफ करके यहां पूजा करवाने में मदद की."
लखापाल सीआरपीएफ कैंप के असिस्टेंट कमांडेंट रवि कुमार मीणा बताते हैं कि उनसे एक मेडिकल कैंप के दौरान मंदिर को खोलने की गुजारिश की गई थी. जिला प्रशासन अब मंदिर का इतिहास खंगालने की कोशिश कर रहा है. कोई नहीं जानता कि यह मंदिर कितना पुराना है, लेकिन पत्थर का बना होने के कारण लोगों का मानना है कि यह 200 साल पुराना हो सकता है. अब स्थानीय लोग रामनवमी को मंदिर के बाहर भंडारा आयोजित करने पर विचार कर रहे हैं.
(इनपुट - धर्मेंद्र सिंह)