
हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी में हरियाली के बीच होली का अलग ही रंग देखने को मिल रहा है. अबीर गुलाल से सराबोर लोग अपनी परंपराओं को बखूबी निभा रहे हैं. होलाष्टक के दौरान यहाँ विशेष तरीके से होली मनाने का रिवाज है. चलिए आपको कुल्लू की विशेष होली के बारे में बताते हैं.
कुल्लू की विशेष होली-
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में होली का त्योहार विशेष तरीके से मनाया जाता है. इसमें लोग डफली बजाते हैं और नाचते गाते हैं. लोगों में होली को लेकर खास उत्साह है. लोग रंगों की मस्ती में डूब जाते हैं. कुल्लू में होली का उत्साह शबाब पर है. अबीर गुलाल के रंगों में सराबोर लोग भरपूर उमंग के साथ इस त्योहार की परंपरा को निभा रहे हैं.
बैरागी समुदाय करता है पूजा-
कुल्लू में होली का उत्सव परंपराओं और संस्कृति का अद्भुत संगम है. होलाष्टक के दौरान जब देश के कोने कोने में होली की तैयारी होती है तो कुल्लू में अलग ही तरीके से होली मनाने का रिवाज है. ऐसे तो बसंत में 40 दिन में गुलाल उड़ता है, घर-घर में बैरागी समुदाय के लोग होली गीत गाते हैं. बैरागी समुदाय के लोग भगवान रघुनाथ के मंदिर में पूजा अर्चना भी करते हैं.
होलिका दहन के बाद कुल्लू में होली समाप्त हो जाती है. भले ही इस बार देशभर में 14 मार्च को होली पर्व मनाया जाएगा. लेकिन हिमाचल प्रदेश की देवभूमि कुल्लू में होली परंपरानुसार बसंत पंचमी से शुरू हो गई है. इस दरमियां कुल्लू में होलाष्टक के दौरान बैरागी समुदाय के लोग भगवान रघुनाथ के मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं और इसके साथ ही बसंत से होली गायन शुरू हो जाता है. बसंत वाले दिन रघुनाथ जी को होली पेश की जाती है और उनके साथ पीले रंग की होली खेली जाती है.
बैरागी समुदाय के लोग रघुनाथजी से आशीर्वाद लेते हैं. इस समुदाय के जहां-जहां मंदिर हैं, वहां-वहां होली का कार्यक्रम होता है.
होली में संस्कृति की खास झलक-
कुल्लू की होली में लोग संस्कृति की खास झलक देखने को मिलती है. लोग पारंपरिक रीति रिवाजों के अनुसार होली का त्योहार मनाते हैं, ताकि नए जमाने के बदलते दौर में भी रस्म रिवाज और जीवन शैली के तौर तरीके उसी तरह बरकरार रहें. यह समुदाय सैकड़ों सालों से इस संस्कृति को जिंदा रखे हुए हैं. उनका कहना है कि बुजुर्गों ने जिस संस्कृति को संजो कर रखा है, उसमें आनंद की अनुभूति होती है. इसमें एक एहसास है. उनका कहना है कि पाश्चात्य संस्कृति का हमारी संस्कृति पर प्रभाव पड़ रहा है. पाश्चात्य संस्कृति से खुद को दूर रखने के लिए बच्चों अपने साथ लाते हैं. ये परंपरा ब्रज और अवध यानी भगवान कृष्ण और भगवान राम की भूमि से जुड़ी हुई है. इसलिए यहां के गीतों में ब्रज और अवधि के बोल बखूबी सुने जा सकते हैं.
इस होली के पीछे धार्मिक मान्यता-
बैरागी समाज का कहना है कि हम ढोलक, हार्मोनियम या जो बड़ा बाजा होता है उसे नहीं बजाते है. हम सिर्फ यही इस्तेमाल करते हैं और हमारी ब्रजभाषा की और अवध की होली होती है और होलियों में भगवानों का ही जैसे रामचंद्रन जी का, कृष्ण भगवान जी का, शिव जी का वर्णन मिलता है.
कुल्लू में बैरागी समुदाय के लोगों के बीच होली का ये उत्सव काफी मायने रखता है. सातवीं शताब्दी से मनाया जा रहा है. इसके पीछे खास धार्मिक मान्यता भी है कि आपको पता है कुल्लू के अधिष्ठाता द्वीप रघुनाथ जी का सातवीं शादी में यह आगमन हुआ. 1650 के आसपास क्यों हुआ था, वो सब आप जानते हैं. राजा जगत सिंह के कुष्ठ निवारण के लिए आदि संग कृष्णदास सुहारी महाराज के सुझाव से अयोध्या से ये मूर्तियां लाई गई थीं. इसे स्थापित किया गया था और उनके चरणामृत से राजा के रोग का निवारण हुआ था. तब से वो सब पर्व जो अयोध्या में आयोजित होते थे, वो सब वैष्णव पर्व यहाँ मनाया जाता था. और उसमें से होली का अपना विशेष महत्व है. यह 40 दिनों तक चलने वाला पर्व है.
बैरागी समाज का कहना है कि खास बात ये है कि यहाँ पर होली खेलने के दौरान लोग अपने से बड़ों के मुँह और सिर में गुलाल नहीं लगाते, बल्कि वे रिश्तों की मर्यादाओं का सम्मान करते हुए बड़ों के चरणों में गुलाल अर्पित करते हैं और बड़े लोग कम उम्र के लोगों के सिर पर गुलाल फेंककर आशीर्वाद देते हैं, जबकि हम उम्र के लोग एक दूसरे के मुँह पर गुलाल लगाकर होली मनाते हैं. त्योहार में रिश्तों का ये सम्मान यहाँ भारतीय संस्कृति की अनूठी तस्वीर पेश कर रहा है.
(कुल्लू से मनमिंदर अरोड़ा की रिपोर्ट)
ये भी पढ़ें: