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MahaKumbh 2025: क्या है और कौन करते हैं कल्पवास? क्या हैं कल्पवास के कठोर नियम? जानिए इन सभी सवालों के जवाब!

कल्पवासी मुंह अंधेरे ब्रह्म मुहूर्त में जागकर गंगा तट की ओर चल पड़ते हैं. पुण्य सलिला गंगा की धारा में स्नान करते हैं फिर शालिग्राम और पार्थिव शिव की पूजा करते हैं.

Maha Kumbh 2025 Maha Kumbh 2025
हाइलाइट्स
  • पीढ़ियों से चली आ रही कल्पवास की परंपरा

  • कलियुग के 11 कल्प बीत चुके

कल्पवास भारतीय सनातन में तपस्या का वार्षिक पर्व है. कल्पवास के दौरान माघ मास में श्रद्धालु गंगा की रेती पर रहकर गंगा स्नान, हरिहर का ध्यान, जप तप, कीर्तन भजन और प्रभु कथा सुनते हैं. वैदिक काल की तरह फूस की झोंपड़ियों यानी पर्ण कुटी में रहते हैं. गंगाजल से एक वक्त का भोजन बनाकर खाते हैं. रात में फलाहार करते हैं. भजन कीर्तन में समय गुजारते हैं.

लाखों लोग आपस में मिलते हैं
कल्पवासी मुंह अंधेरे ब्रह्म मुहूर्त में जागकर गंगा तट की ओर चल पड़ते हैं. पुण्य सलिला गंगा की धारा में स्नान करते हैं फिर शालिग्राम और पार्थिव शिव की पूजा करते हैं. शिविर में संध्या वंदन, पूजन, जप, धार्मिक ग्रंथों का पाठ और भजन कीर्तन करते हुए वक्त बिताते हैं. लाखों परिवार शिविरों में आपस में मिलते हैं तो अक्सर अपने दुख सुख घर बार को बातें चलती हैं. बच्चों के शादी विवाह भी तय हो जाते हैं यानी कल्पवास से घर बसाने की भी राह निकल जाती है.

कलियुग के 11 कल्प बीत चुके
भारतीय सनातन ज्ञान कहता है कि पृथ्वी पर अभी कलियुग के 11 कल्प बीत चुके हैं. बारहवां कल्प चल रहा है. कई शिविरों में कल्पवासियों की तीन चार पीढ़ियां एक साथ रह रही हैं. बुजुर्ग कल्पवास कर रहे हैं और छोटे बच्चे कल्पवास की प्रैक्टिकल ट्रेनिंग ले रहे हैं. ऐसी मान्यता है कि कल्पवास में किया गया सकारात्मक कार्य का फल एक कल्प में किए गए कार्य के बराबर होता है लेकिन इस दौरान किए गए गलत काम का फल भी वैसा ही मिलता है. फिलहाल श्रद्धा के सैलाब में तैरते प्रयागराज में करोड़ों लोग अलग-अलग मनोरथ लेकर आ रहे हैं और हृदय में भर कर लौट रहे हैं.

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पुराणों में भी मिलता हा कल्पवास का जिक्र
पुराण और स्मृतियां कल्पवास की स्वर्णिम इतिहास कथाओं से भरी पड़ी हैं. विदेशी यात्रियों ने भी अपने यात्रा वृत्तांत में इसका जिक्र किया है. फ़ाहियन, ह्वेनसांग अल बरूनी सहित कई यात्रियों ने इसके बारे में लिखा है. मुगल काल में रानी जोधाबाई ने भी गंगातट पर कल्पवास किया था. इलाहाबाद का किला इसलिए भी बनवाया गया था. आजादी के बाद देश के पहले राष्ट्रपति देशरत्न डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने भी यहां कल्पवास किया था. इसकी साक्षी इलाहाबाद किले में मौजूद पट्टिका है.

पीढ़ियों से चली आ रही कल्पवास की ये सांस्कृतिक गंगा लगातार बह रही है. कल्पवास करने वालों की साल दर साल लगातार बढ़ती संख्या बताती है कि प्रदूषण के बावजूद श्रद्धा की गंगा पर बदलते समय का कोई असर नहीं है.