मुस्लिम समुदाय के लोग बुधवार को दुनियाभर में आशूरा के दिन का एहतिमाम करेंगे. आशूरा का दिन, यानी पहले इस्लामी महीने 'मुहर्रम' की 10 तारीख. मुसलमानों के दो बड़े पंथ हैं- सुन्नी और शिया. दोनों ही समुदाय इस दिन का एहतिमाम करते हैं लेकिन शिया समुदाय इस दिन विशेष जुलूस निकालता और मातम मनाता है. मुहर्रम के शुरुआती नौ दिनों में शिया मजलिस भी आयोजित होती है. दरअसल, मजलिस और मातम का इतिहास करीब 1400 साल पुराना है.
क्या है आशूरा का इतिहास?
इस्लामिक कैलेंडर के हिसाब से यह साल 1446 हिजरी है. करीब 1385 साल पहले, सन् 61 हिजरी में करबला की घटना पेश आई थी, जिसमें पैगंबर मोहम्मद के नवासे हुसैन और उनके 72 साथियों की हत्या कर दी गई थी. दरअसल, उस वक्त की इस्लामिक रियासत के खलीफा मुआविया (जिन्हें कई लोग बादशाह भी करार देते हैं) के निधन के बाद उनके बेटे यज़ीद ने तख्त पर बैठना चाहा. चूंकी खलीफा सामुदायिक सहमति से चुना जाता है, इसलिए यज़ीद को तख्त पर बैठने के लिए कई अहम शख्सियतों की सहमति की जरूरत थी.
इनमें सबसे बड़ा नाम हुसैन का था. हालांकि हुसैन सहित कई लोग यज़ीद को तख्त का सही हकदार नहीं मानते थे और उसे खलीफा बनाने के लिए राजी नहीं थे. इसी सब के बीच, हुसैन को कूफा (वर्तमान इराक़ का एक शहर) से पत्र आने लगे. इन खतों में कूफा के लोग लिखते थे कि वे यज़ीद को अपना खलीफा नहीं चुनना चाहते और इस पद के लिए हुसैन को सही समझते हैं.
इन पत्रों में हुसैन को कुफा बुलाते हुए लिखा गया था कि वहां के लोग हुसैन को अपना समर्थन देने के लिए तैयार हैं. इस्लामी इतिहासकार बताते हैं कि यज़ीद के गवर्नर अब्दुल्लाह बिन ज़ियाद ने कूफा के लोगों के साथ बेहद सख्त रुख अपनाया, जिसके बाद उन्होंने हुसैन को समर्थन देने का फैसला बदल लिया.
दूसरी ओर, जब हुसैन कूफा की ओर बढ़ रहे थे तब वहां के लोगों ने यज़ीद की फौज में शामिल होकर उनके काफिले को करबला नाम की जगह पर रोक लिया. इतिहासकारों के अनुसार, हुसैन को नौ दिन तक करबला में रोककर यज़ीद को समर्थन देने के लिए मजबूर किया गया. आखिरकार, मुहर्रम की 10 तारीख को उनकी जान ले ली गई.
आशूरा के दिन मातम का इतिहास
करबला की घटना सन् 61 हिजरी में हुई. उसके एक साल बाद से ही मातम और मजलिस का एहतिमाम किया जा रहा है. शिया धर्म गुरू हाफिज मोहम्मद रज़ा जीएनटीटीवी डॉट कॉम से बात करते हुए इसके इतिहास पर रोशनी डालते हैं.
हाफिज रज़ा बताते हैं, "करबला की घटना हुई. इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को शहीद किया गया. इसके बाद उनके घर की महिलाओं और बच्चों को शाम (वर्तमान में सीरिया) की एक जेल में कैद कर लिया गया था. वे एक साल तक वहां बंद रहे. सन् 62 हिजरी में जब उन्हें क़ैद से रिहा किया गया तो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की बहन हज़रत ज़ैनब ने यज़ीद से कहा कि वह अपने भाई की शहादत का मातम मनाना चाहती हैं. इस तरह शाम के क़ैदख़ाने में पहली बार मातम हुआ. तभी से शिया समुदाय मातम मनाता चला आ रहा है."
यहीं से आशूरा के दिन मातम मनाने का सिलसिला शुरू हुआ. हाफिज रज़ा बताते हैं कि शिया समुदाय इमाम हुसैन से वैसी ही मोहब्बत करता है, जैसी किसी अपने से. जैसे इंसान किसी अपने के मरने पर मातम करता है, वैसे ही शिया करबला की घटना को याद कर मातम मनाते हैं. हाफिज रज़ा कहते हैं, "इंसान को जितना गम होता है, वह उसी तरह मातम करता है. किसी को इतना गम होता है कि उसका चेहरा उतर जाता है. किसी को इतना भी गम होता है कि रोते-रोते उसकी आंखें लाल हो जाती हैं. आशूरा के दिन कई लोग हाथों से मातम करते हैं. शिया समुदाय में ज़ंजीरों से भी मातम किया जाता है. आग पर चलकर भी मातम किया जाता है."
आशूरा से पहले नौ दिन होती है मजलिस
आशूरा से पहले नौ दिनों तक मजलिस आयोजित होती है. मजलिस में करबला की घटना थोड़ी-थोड़ी करके सुनाई जाती है. मजलिस का माहौल अकसर इतना सोगवार हो जाता है कि वहां बैठा व्यक्ति अपने आंसुओं को नहीं रोक पाता. मजलिस के बारे में रज़ा बताते हैं, "मजलिस की शुरुआत जनाब-ए-ज़ैनब ने ही की थी.
मजलिस में इमाम हुसैन की याद मनाते हैं और उन पर गुज़री यातनाएं सुनते हैं. इसे ही मजलिस कहा जाता है. मजलिस में पैगाम दिया जाता है कि इमाम हुसैन ने कभी भी यज़ीद के साथ हाथ नहीं मिलाया. यज़ीद ने उनपर जुल्म किया लेकिन इमाम हुसैन उस जुल्म के खिलाफ खड़े हुए और अपने परिवार तक को कुर्बान किया. मजलिस का यही पैगाम है; कि जुल्म चाहे किसी पर भी हो, उसके खिलाफ आवाज उठाना हुसैनियत है."
(नोट: हाफिज रज़ा ने इमाम हुसैन के नाम के साथ 'अलैहिस्सलाम' शब्द का इस्तेमाल किया है. इस शब्द का अर्थ होता है 'उस (व्यक्ति) पर खुदा का करम हो.' अलैहिस्सलाम का इस्तेमाल पैगंबरों के नाम के साथ और पैगंबर मोहम्मद के परिजनों के नाम के साथ किया जाता है.)