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वैज्ञानिकों ने खोजा दुनिया का नया रंग 'Olo', ऐसा रंग जो पहले कभी नहीं देखा गया

कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, बर्कले के वैज्ञानिकों ने एक ऐसी तकनीक विकसित की है जिससे इंसान की आंख एक अल्ट्रा सैचुरेटेड (बहुत तेज और गहरा) रंग को देख सकती है. इसे ‘Olo’ नाम दिया गया है. वैज्ञानिकों के मुताबिक, यह रंग दिखता तो नीला-हरा (blue-green) ही है.

Olo color (Representative Image/Unsplash) Olo color (Representative Image/Unsplash)

क्या आपने कभी कोई ऐसा रंग देखा है, जिसे न तो किसी पेंट बॉक्स में पाया जा सकता है, न ही इंद्रधनुष में, और न ही किसी डिजिटल स्क्रीन पर ठीक से दिखाया जा सकता है? नहीं देखा? अब देख सकते हैं! वैज्ञानिकों ने ऐसा ही एक रंग “आविष्कार” किया है, जो दिखता तो है नीला-हरा लेकिन उसकी चमक (saturation) इतनी तेज है कि इसे देखकर लोग चौंक जाते हैं.

जी हां, इस नए रंग का नाम है ‘Olo’ और इसका दावा है कि यह एक ऐसा विजुअल एक्सपीरियंस है जो आपने पहले कभी महसूस नहीं किया होगा.

क्या है 'Olo'?
कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, बर्कले के वैज्ञानिकों ने एक ऐसी तकनीक विकसित की है जिससे इंसान की आंख एक अल्ट्रा सैचुरेटेड (बहुत तेज और गहरा) रंग को देख सकती है. इसे ‘Olo’ नाम दिया गया है. वैज्ञानिकों के मुताबिक, यह रंग दिखता तो नीला-हरा (blue-green) ही है, लेकिन इसकी चमक और तेज इतना ज्यादा है कि यह हमारे नॉर्मल रंग अनुभव से परे है.

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यह रंग नई खोज क्यों माना जा रहा है?
दरअसल, रंगों को तीन चीजें तय करती हैं- Hue (रंग का प्रकार), Saturation (चमक या तीव्रता) और Value (उजाला या गहरापन). ‘Olo’ का ह्यू पारंपरिक blue-green के दायरे में आता है, लेकिन इसकी saturation इतनी तेज है कि इसे मौजूदा रंगों से मिलाना मुश्किल है. वैज्ञानिकों ने बताया कि जब लोगों को 'Olo' दिखाया गया, तो वे इसे पहचानने में झिझकते रहे. किसी ने इसे teal कहा, किसी ने "थोड़ा नीला-सा हरा", तो किसी ने "गहरे रंग का ब्लू-ग्रीन".

लेकिन यह असल में दिखता कैसा है?
कल्पना करें कि एक गहरा समुद्री हरा रंग हो, जो इतना सजीव और चमकदार हो कि आपकी आंखें उसी पर टिक जाएं. जिन लोगों ने इस रंग को देखा, उन्होंने कहा कि उन्हें इसे पहचानने के लिए इसमें सफेद रोशनी मिलानी पड़ी, ताकि वे इसे किसी परिचित रंग से तुलना कर सकें. यह अपने-आप में इस बात का सबूत है कि Olo आम रंगों के दायरे से बाहर है.

कैसे दिखाया गया ये अनदेखा रंग?
अब सवाल उठता है, भला नया रंग दिखाया कैसे गया? तो इसका जवाब है लेजर और स्पेशल तकनीक का जादू. वैज्ञानिकों ने एक लेजर सिस्टम विकसित किया है जिसे उन्होंने Oz नाम दिया है. इस तकनीक की खास बात ये है कि यह आंखों की रेटिना में मौजूद केवल एक फोटोरिसेप्टर सेल्स (कोन सेल) को टार्गेट करके लाइट डालती है. खासतौर पर उन्होंने M-cone (मिडल वेवलेंग्थ रिसेप्टर) को टारगेट किया, जो आमतौर पर हरे रंग के प्रति संवेदनशील होता है.

नतीजा? एक ऐसा अनुभव जिसे ‘unprecedented saturation’ कहा गया यानि इससे पहले इतना गाढ़ा नीला-हरा रंग कभी नहीं देखा गया.

क्या केवल 1 कोन सेल को टारगेट करना नई बात है?
नहीं, इससे पहले भी रिसर्च में एकल कोन सेल को टारगेट किया गया है, लेकिन इस बार जो बात इसे खास बनाती है, वो है हजारों Cone Cells को एक साथ टारगेट कर रंगीन इमेज बनाना. मतलब, अब यह तकनीक केवल एक बिंदु नहीं दिखाती, बल्कि पूरी तस्वीर बना सकती है. ये वही तकनीक है जिसका इस्तेमाल खगोलशास्त्री (Astronomers) तारे देखने के लिए करते हैं – जिसे Adaptive Optics कहा जाता है.

आम स्क्रीन से कैसे अलग है यह तकनीक?
आप अभी जो स्क्रीन पढ़ रहे हैं फोन या लैपटॉप उसमें रंग तीन बेसिक लाइट्स को मिलाकर बनते हैं: Red, Green, Blue. इसे कहते हैं Spectral Metamerism. लेकिन ‘Oz’ टेक्नोलॉजी इनसे अलग है. यह रंग बनाने के लिए स्पेक्ट्रम को एडजस्ट नहीं करती, बल्कि आंख की रेटिना पर लाइट का स्थान (spatial position) बदलती है, जिससे एक ही रंग की रोशनी से अलग-अलग रंग उत्पन्न किए जा सकते हैं. इसी प्रक्रिया को Spatial Metamerism कहा जाता है.