हौसला हो तो क्या कुछ नहीं पाया जा सकता है. इसी को अपने जीवन में उतार चुके हैं मयंक प्रजापति, जिन्होंने आज एक बेबीसिटर से स्ट्रीट फाइटर तक का सफर पूरा किया है. फ्रीलांस इंटीरियर डिजाइनर मयंक प्रजापति अपने दिन का ज्यादातर समय अपने दो साल के बच्चे की देखभाल में बिताते हैं. पत्नी श्वेता, पास के अमेरिकन एक्सप्रेस ऑफिस में बिजनेस एनालिस्ट हैं. 33 साल के गुड़गांव निवासी एक स्ट्रीट फाइटर हैं. मयंक प्रजापति को अब लोग ई -स्पोर्ट्स एथलीट के रूप में जानते हैं.
इस महीने के आखिर में, वह एशियाई खेलों में मेडल के लिए प्रतिस्पर्धा करने वाले 15 ईस्पोर्ट्स एथलीटों के भारत के पहले दल में शामिल होने वाले हैं.
पत्नी का रहा हमेशा साथ
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, इस सप्ताह मयंक हांगझू के लिए फ्लाइट लेने वाले हैं. इस पूरे सफर में उनकी पत्नी का साथ रहा है, जिनकी वजह से वे इतने महंगे गेम इक्विपमेंट्स खरीद पाए हैं. मयंक कहते हैं, “अगर आप भारत में ई-स्पोर्ट्स खेलना चाहते हैं तो आपके परिवार का सपोर्ट बहुत मायने रखता है. उसके बिना, मुझे नहीं लगता कि यह संभव है. मेरे पत्नी ही हैं जो इंटरनेट, हाई-एंड कंप्यूटर या हाई-एंड मोबाइल जैसी हर चीज के लिए पेमेंट कर रही हैं. हेडफोन की तरह जो मैं अभी उपयोग कर रहा हूं, वे हाई-एंड गेमिंग वाले हैं जिनकी कीमत बहुत ज्यादा है.”
कैसे करते हैं टाइम मैनेजमेंट?
अब बात आती है टाइम मैनेजमेंट को. इसे लेकर मयंक इंडियन एक्सप्रेस से कहते हैं, ''प्रैक्टिस सेशन के लिए भी, आपको परिवार के सपोर्ट की जरूरत होती है. आप कुछ घंटों की प्रैक्टिस के लिए अपने दैनिक जीवन के एक हिस्से का बलिदान कर रहे हैं. हम सिर्फ पति-पत्नी और एक बच्चा हैं जो अकेले रहते हैं. जब मेरी पत्नी काम कर रही हो तो मुझे अपने बच्चे की देखभाल करने की जरूरत होती है. चार-पांच घंटे की प्रैक्टिस के लिए, मुझे आमतौर पर अपनी नींद का थोड़ा त्याग करना पड़ता है. लेकिन यह सब अच्छा है.”
चयन होने पर सबको हुई बहुत खुशी
जब मयंक का एथलीट के रूप में चयन हुआ तो उनकी पत्नी खुशी से उछल गई थीं. इसे याद करते हुए मयंक कहते हैं, “वह बहुत खुश थीं. जो क्वालीफायर हुआ वह ऑनलाइन था. इसलिए मैं अलग कमरे में बैठा था और वह लाइव स्ट्रीम देख रही थी. अपना सेट खत्म करने के बाद मैंने उसकी चीख सुनी. इसलिए मुझे पता था कि उसे पता चल जाएगा कि मैंने एशियाई खेलों के लिए क्वालीफाई कर लिया है.”
पहले नहीं होते थे किसी के पास गेमिंग कंसोल
भारत में 90 के दशक के ज्यादातर बच्चों की तरह, मयंक के पास घर पर गेमिंग कंसोल नहीं था. लेकिन दिल्ली में जन्मे और पले-बढ़े, मयंक घूमते हुए नए आर्केड ढूंढ लिया करते थे. मयंक कहते हैं, “मेरे क्षेत्र के पास एक गेमिंग जोन था और हम वहां जाते थे और लगभग 6-7 घंटे खेलते थे. मैं अपने माता-पिता को बताता था कि मैं ट्यूशन के लिए जा रहा हूं और मैं अपना पूरा समय वीडियो गेम की दुकानों में बिताता था. मैंने पहली बार अपने दोस्तों से सुना था कि वे स्ट्रीट फाइटर नाम का एक गेम खेलते हैं और इसमें मूल रूप से दो लोग एक-दूसरे से लड़ रहे होते थे. मैं वास्तव में रोमांचित था क्योंकि उस समय कॉन्ट्रा और मारियो जैसे गेम्स हुआ करते थे. उस समय बहुत सारे मल्टीप्लेयर कॉम्बैट गेम नहीं थे. यह करीब 1998-99 का समय होगा.”
सरकार का इसको लेकर क्या है रवैया
रिपोर्ट में मयंक भारतीय दल की ईस्पोर्ट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया के साथ हुई बैठक के बारे में बताते हैं. वे कहते हैं, “हमें ऐसा करने के लिए हाई स्पीड इंटरनेट, गेमिंग चेयर, प्रैक्टिस करने के लिए जगह और 20-30 हाई-एंड पीसी की जरूरत पड़ती है. हम चाहते हैं कि सरकार हमें स्पांसर करे. हालांकि, इसके बारे में अभी सरकार नहीं सोच रही है.”
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