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Olympic ke Kisse: ओलंपिक में जीता गोल्ड मेडल... अंग्रेजों के खिलाफ बुलंद की आवाज और आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ी लड़ाई, जानिए जयपाल सिंह मुंडा के बारे में

भारत ने 1928 में एम्स्टर्डम में आयोजित ओलंपिक में नीदरलैंड को 3-0 से हराकर अपना पहला स्वर्ण पदक जीता और 1932, 1936, 1948, 1952, 1956, 1964 और 1980 के ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतकर अपना दबदबा कायम किया. हॉकी में भारत की पहली जीत का नेतृत्व जयपाल सिंह मुंडा ने किया.

Jaipal Singh Munda (Photo: Wikipedia) Jaipal Singh Munda (Photo: Wikipedia)

यह कहानी है जयपाल सिंह मुंडा की, जिन्होंने ब्रिटिश भारत में अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाई और आजीवन आदिवासियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी. लेकिन क्या आपको पता है कि वह 1928 के ओलंपिक में हॉकी में स्वर्ण पदक (Gold Medal) जीतने वाली पहली भारतीय टीम के कप्तान भी थे. जी हां, उनकी लीडरशिप में भारतीय हॉकी टीम ने ओलंपिक में गोल्ड जीता था. इसके अलावा, वह भारतीय संविधान बनाने वाली संविधान सभा के सदस्य भी थे. 

3 जनवरी, 1903 को रांची जिले (वर्तमान झारखंड में एक अलग जिला) के खूंटी उपखंड में जन्मे, जयपाल का पालन-पोषण तकरा पाहनटोली गांव में हुआ था. उस समय के कई आदिवासी परिवारों की तरह जयपाल के माता-पिता ने भी ईसाई धर्म अपना लिया था. वे साधारण किसान थे. जयपाल ने तब गांव के चर्च स्कूल में पढ़ाई की थी. उन्हें जल्द ही रांची में मिशनरीज के सेंट पॉल कॉलेज में दाखिला मिला. यहां जयपाल की हॉकी प्रतिभा को मौका मिला. 

पास की थी इंडियन सिविल सर्विसेज 
इसके बाद जयपाल सिंह मुंडा को हायर स्टडीज के लिए ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय जाने का मौका मिला. यहीं पर हॉकी के खेल में उनकी प्रतिभा वास्तव में चमकने लगी और कुछ ही समय बाद, उन्हें ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी टीम के लिए चुना गया.

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खेलने के अलावा, जयपाल सिंह मुंडा एक कॉलमनिस्ट भी थे, जो अक्सर विभिन्न ब्रिटिश पत्रिकाओं के लिए हॉकी के बारे में लिखते थे. लेकिन जयपाल के जीवन की दिशा 1928 में हमेशा के लिए बदल गई, जब उन्हें 1928 के एम्स्टर्डम ओलंपिक खेलों में भारतीय हॉकी टीम का नेतृत्व करने के लिए कप्तान के रूप में चुना गया. 

हालांकि, उस समय तक जयपाल सिंह मुंडा ने अपनी इकोनॉमिक्स (ऑनर्स) की डिग्री हासिल कर ली थी और प्रतिष्ठित भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) परीक्षा पास की थी और इंटरव्यू में उन्होंने टॉप किया था. जयपाल आईसीएस के लिए प्रोबेशनर के रूप में प्रशिक्षण ले रहे थे, तब उन्हें भारतीय हॉकी टीम के लिए बुलावा आया. ऐसे में, उन्होंने ब्रिटिश सरकार के भारत कार्यालय से छुट्टी मांगी ताकि वे खेलने जा सकें. 

नौकरी छोड़कर चुना पैशन और जाती गोल्ड 
ब्रिटिश सरकार ने जयपाल की छुट्टी की अर्जी को अस्वीकार कर दिया. ऐसे में, उन्हें भारतीय हॉकी टीम और आईसीएस- दोनों में किसी एक को चुनना था. और जयपाल ने अपने पैशन यानी हॉकी को चुना. उनकी लीडरशिप में भारतीय टीम ने पूरे टूर्नामेंट में शानदार प्रदर्शन किया और दुनिया को पहली बार महान ध्यानचंद के दर्शन हुए. लेकिन फाइनल तक आते-आते कई एंग्लो-इंडियन खिलाड़ियों और टीम प्रबंधन के बीच मतभेद हो गए थे और वजह थी जयपाल यानी एक आदिवासी का सेलेक्शन. टीम प्रबंधन के साथ विवाद के बाद जयपाल ने हॉलैंड के खिलाफ फाइनल मैच नहीं खेलने का फैसला किया. लेकिन फिर भी उनकी टीम ने ओलंपिक गोल्ड जीतकर इतिहास रच दिया. 

ऑक्सफोर्ड से लौटने के बाद भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने व्यक्तिगत रूप से जयपाल को उनके नेतृत्व और टीम के प्रदर्शन के लिए बधाई दी. इस सफलता के बाद भारत कार्यालय ने जयपाल से आईसीएस में फिर से शामिल होने का अनुरोध किया लेकिन शर्त थी कि उन्हें एक साल और प्रोबेशन पर रहना होगा. यह मांग जयपाल को अपमानजनक और भेदभावपूर्ण लगी और उन्होंने नौकरी को मना कर दिया. 

आदिवासियों के अधिकारों की आवाज 
जयपाल ने बहुराष्ट्रीय तेल कंपनी, बर्मा शेल के साथ काम किया, जहां कुछ समय के लिए उन्होंने एक वरिष्ठ कार्यकारी के रूप में काम किया. बाद में उन्होंने 1934 में घाना के अचिमोटा में प्रिंस ऑफ वेल्स कॉलेज में कॉमर्स टीचर के रूप में शामिल होने से पहले, भारत भर के विभिन्न विश्वविद्यालयों में शिक्षण पद संभाला. तीन साल बाद जयपाल भारत लौट आए और राजकुमार कॉलेज रायपुर के प्रिंसिपल बन गए. एक साल बाद जयपाल बीकानेर रियासत के प्रशासन में राजस्व आयुक्त और बाद में विदेश सचिव के रूप में शामिल हुए.

जयपाल सिंह मुंडा ने 1938 में आदिवासी महासभा की स्थापना की, जिसमें अन्य बातों के अलावा, उन्होंने बिहार से अलग एक अलग आदिवासी राज्य झारखंड की मांग उठाई. आदिवासियों के लिए एक स्वतंत्र राज्य की इस मांग ने उन्हें मुंडारी में 'मरंग गोमके' या 'महान नेता' का उपनाम दिया, जो उनकी मुंडा जनजाति के सदस्यों के बीच बोली जाने वाली भाषा है.

जयपाल सिंह मुंडा ने 19 दिसंबर, 1946 को पहली बार इस प्रतिष्ठित सभा को संबोधित करते हुए अपना परिचय एक "जंगली" (वनवासी) के रूप में दिया और बताया कि कैसे आदिवासी "भारत के मूल लोग" थे और भारत को उन्हें जगह क्यों देनी चाहिए. आजादी के बाद भी आदिवासी अधिकारों के लिए प्रयास जारी रखते हुए, 20 मार्च, 1973 को जयपाल का निधन हो गया. लेकिन उनकी उपलब्धियों की वजह से आज भी लोग उन्हें याद रखते हैं.