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भारत में बायोडिग्रेडेबल सॉलिड वेस्ट की परेशानी को सुलझाएगी पंजाब यूनिवर्सिटी की ये तकनीक, बायोफर्टिलाइजर फॉर्मूलेशन में बदलने में करेगी मदद 

भारत में बायोडिग्रेडेबल सॉलिड वेस्ट की परेशानी बढ़ती जा रही है. लेकिन इसको कई हद तक सुलझाने के लिए पंजाब यूनिवर्सिटी ने एक तकनीक तैयार की है. ये बायोडिग्रेडेबल सॉलिड वेस्ट को बायोफर्टिलाइजर फॉर्मूलेशन में बदलने को काम करेगी.

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हाइलाइट्स
  • भारत में कई मिलियन टन बायोडिग्रेडेबल म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट पैदा होता है

  • जनसंख्या बढ़ने का दबाव खेती पर भी 

लगातार बढ़ती आबादी दुनिया भर में खेती योग्य भूमि पर जबरदस्त दबाव डाल रही है. उसके साथ साथ बढ़ रही आबादी से बायोडिग्रेडेबल म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट में भी इजाफा हुआ है. लेकिन उसे नियंत्रित करने के लिए अभी तक कोई ठोस तरीका नहीं निकला है, जिसकी वजह से हर शहर में बड़े-बड़े डंपिंग ग्राउंड बन गए हैं. इसकी वजह से वातावरण में जहरीली गैस तो निकलती है, साथ ही हमारे आसपास के वातावरण को प्रदूषित कर रही है. इससे ग्लोबल वार्मिंग का भी खतरा मंडरा रहा है. अब पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के माइक्रोबायोलॉजी विभाग ने स्थायी जैविक खेती के लिए बायोडिग्रेडेबल म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट को बायोफर्टिलाइजर फॉर्मूलेशन में बदलने के लिए एक स्वदेशी कम लागत वाली समेकित बायोप्रोसेसिंग तकनीक विकसित की है. 

भारत पूरे साल करता है 90 मिलियन टन बायोडिग्रेडेबल म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट पैदा 

दरअसल, क्या आपको मालूम है कि भारत पूरे साल में लगभग 90 मिलियन टन बायोडिग्रेडेबल म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट पैदा करता है. वहीं पंजाब राज्य प्रतिदिन लगभग 5000 से 6000 टन और चंडीगढ़ लगभग 400 से 500 टन बायोडिग्रेडेबल म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट पैदा करता है. इतना बायोडिग्रेडेबल म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट पैदा होने के बावजूद ऐसी चुनौतियों का सामना करने के लिए, मंडी और किचन वेस्ट को कैसे नियंत्रण करना है उसके लिए कोई सॉलिड तकनीक की जरूरत है.  इसी दिशा में अब पंजाब यूनिवर्सिटी की माइक्रोबायोलॉजी विभाग ने इसका तोड़ निकाला है.

माइक्रोबायोलॉजी विभाग के प्रोफेसर डॉक्टर एस.के सोनी ने खास बातचीत में बताया कि लगभग मंडी और किचन के कचरे से 50 से 60% जो वेस्ट निकलता है जिसमें फल और सब्जियों का वेस्ट खराब सब्जियां पत्तियां शामिल हैं, पूरी बायोडिग्रेडेबल होती हैं जिसे बायो फर्टिलाइजर के तौर पर प्रयोग किया जा सकता है. 

क्या है बायोप्रोसेसिंग?

डॉक्टर सोनी ने आगे बताया कि बायोप्रोसेसिंग एक ऐसी प्रणाली है जिसमें सूक्ष्मजीवों (Microorganism) के एक संघ द्वारा एंजाइम (Enzyme) उत्पादन, सब्सट्रेट हाइड्रोलिसिस और किण्वन (Fermentation) को एकल प्रक्रिया चरण में पूरा किया जाता है. डॉक्टर सोनी ने बताया कि सबसे पहले जितना किलो सॉलिड बायोडिग्रेडेबल वेस्ट लिया जायगा उसमें तकरीबन उससे 2 से 4 गुना पानी को ब्लेंडर में डाला जाता है और बायोडिग्रेडेबल सॉलिड  को उसमें मिक्सी की की तरह ब्लेंड किया जाता है.

उसके बाद ब्लेंड किया सारा सॉलिड बायोडिग्रेडेबल वेस्ट को दूसरी मशीन जिसे की स्टीम कहा जाता है वहां डाला जाता है जिससे उस सारे वेस्ट को स्टेरलाइज किया जाता है. जिससे अनचाहे बैक्टीरिया को मारा जा सके. उसके बाद उसमें कई तरह के enzymes डाले जाते हैं. जैसे कि सेल्युलेस (Cellulases), हेमीसेल्यूलस (Hemicellulases), एमाइलेज (Amylases), पेक्टिनेज (Pectinases), इनुलिनेज (Inulinases) और प्रोटीज (Proteases) सहित कई हाइड्रोलाइटिक एंजाइमों (Hydrolytic enzymes) शामिल होते हैं. 

जनसंख्या बढ़ने का दबाव खेती पर भी 

1 मिलीलीटर बायोफर्टिलाइजर में लगभग 10 से 20 करोड़ बायोफर्टिलाइजर बैक्टीरिया होते हैं जोकि नाइट्रोजन फास्फोरस पोटेशियम और पौधों की सेहत और पौधों में बढ़ने की क्षमता बढ़ाते हैं. एक टन बायोडिग्रेडेबल सॉलिड वेस्ट प्रक्रिया द्वारा 3,500-4,000 बायोफर्टिलाइजर उत्पन्न किया जा सकता है. बातचीत में रिसर्च स्कॉलर अपूर्व शर्मा ने बताया कि जिस तरह से जनसंख्या बढ़ रही है उसकी वजह से लगातार दबाव खेती पर भी पड़ रहा है और अधिक खेती के लिए केमिकल फर्टिलाइजर प्रयोग में लाए जा रहे हैं जो की सेहत के साथ-साथ वातावरण के लिए हानिकारक हैं. अपूर्व शर्मा ने बताया कि यह बायोफर्टिलाइजर केमिकल रसायन को भी कम करेगा जैसे कि यूरिया और डीएपी और जो डंपिंग का पहाड़ बना है उसको भी कम करने में यह तकनीक कारगर साबित होगी.