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3D Films: चश्मे से 3D Movies देखने में क्यों लगती है Real...कैसे काम करता है Polaroid चश्मा? कैसे शूट होती हैं 3D फिल्में, जानिए

3डी फिल्में मोशन पिक्चर्स हैं, जो Three Dimensional होती हैं. इसे देखने के लिए आपको हॉल से एक स्पेशल चश्मा मिलता है. इसे पोलेराइड चश्मा (Polaroid Glasses)कहते हैं. पोलेराइड चश्मा किस तकनीक पर काम करता है और कैसे फिल्म शूट होती है, जानिए.

What is 3D Film What is 3D Film

अगर आप Movie Buff हैं तो सिनेमा हॉल में कभी स्पेशल चश्मे लगाकर कोई मूवी तो आपने भी देखी होगी. पर्दे पर 3D में Avatar,Gravity, Hugo और How To Train Your Dragon जैसी तमाम फिल्में मौजूद हैं. इसकी सबसे बड़ी स्पेशलिटी ये होती है कि ये फिल्म हमें चश्मा पहनकर देखने की वजह से वास्तविक लगती हैं. ऐसा लगता है जैसे सबकुछ हमारी आंखों के सामने घटित हो रहा है और हम उसके बेहद करीब हैं. अब सवाल ये आता है कि ऐसा होता कैसे है? इससे पहले आइए समझ लेते हैं कि 3D फिल्में क्या हैं?

3D फिल्में क्या हैं?
3डी फिल्में मोशन पिक्चर्स हैं, जो Three Dimensional होती हैं. इसे देखने के लिए आपको हॉल से एक स्पेशल चश्मा मिलता है. इसे पोलेराइड चश्मा (Polaroid Glasses)कहते हैं. चश्में के बगैर आप इस फिल्म को नहीं देख सकते, देखने की कोशिश करेंगे भी तो आपको ये बेहद फ्लैट और खराब सा दिखेगा. अमेरिकी सिनेमा में 1950 के दशक में 3डी फिल्मों को दिखाया गया था. दिसंबर 2009 में Avatar मूवी की अपार सफलता के बाद कई सारी 3D फिल्में आईं.

एक स्क्रीन पर प्रोजेक्टेड एक 2डी सिनेमा में केवल चौड़ाई और लंबाई के आयाम होते हैं. लेकिन एक 3डी फिल्म में एक अतिरिक्त आयाम के रूप में डेप्थ होती है. इसे कागज और घन के बीच तुलना के रूप में सोचें. आप प्रोजेक्शन को ऐसे देखते हैं जैसे कि यह वास्तविक जीवन में आपके आसपास हो रहा हो. 3डी सिर्फ एक तकनीक नहीं है, बल्कि एक अनुभव है. 3डी फिल्मों की कार्यप्रणाली जटिल लग सकती है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है.

कैसे शूट होती है 3D फिल्म?
ऐसी फिल्म को आम तौर पर दो दृष्टिकोणों का उपयोग करके शूट किया जाता है जो एक दूसरे से बहुत अलग नहीं होते हैं. यह या तो दो कैमरों का उपयोग करके किया जा सकता है या दोहरे लेंस वाला कैमरा एक दूसरे से एक समान दूरी और कोण सेट करता है. दो एंगल कंप्यूटर जेनरेटेड ग्राफिक्स भी हो सकते हैं.

चूंकि फिल्मों के दो सेट होते हैं, फिल्म को प्रदर्शित करने के लिए विशेष प्रोजेक्शन हार्डवेयर का उपयोग किया जाता है. फिल्म विशेष चश्मे की मदद से सिंगल इमेट के रूप में दिखाई देती है. ऐसा हार्डवेयर न केवल 70 मिमी मूवी स्क्रीन के लिए उपलब्ध है, बल्कि टेलीविजन प्रसारण के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है. कई नई टेक्नोलॉजी हैं जो लागत में कटौती करने वाली वैकल्पिक तकनीकों का उपयोग करती हैं. ऐसी ही एक तकनीक है 'रियलडी 3डी सिनेमा' तकनीक. जानी मानी 3D फिल्म Avatar को Pace Fusion 3D डिजिटल कैमरे की मदद से शूट किया गया था.

क्या होता है पोलेराइड चश्मा?
पोलेराइड चश्मे के एक भाग से एक इमेज और दूसरे भाग से दूसरी इमेज दिखाई देती है. ये दोनों इमेज एक ही जगह पर न होकर दो अलग-अलग जगहों पर होती है जिससे हमारे आंखों पर अलग-अलग एंगल बनते हैं. परिणाम स्वरूप हमारे दिमाग को ऐसा लगता है कि एक ही इमेज को दो अलग-अलग एंगल से देखा जा रहा है. इससे हमें Depth Perseption यानी दूरी का आभास होता है, और चीजें स्क्रीन से बाहर आती/ निकलती दिखती है. साथ ही ऐसा लगता है जैसे घटना पर्दे के बजाय वास्तविकता में घटित हो रही है. इसमें हैरान होने वाली कोई बात नहीं है. असल दुनिया में भी हमारी आंखें और दिमाग यही करते हैं. इसे stereoscopic vision कहा जाता है. यह इस तथ्य पर आधारित है कि मनुष्य दोनों आंखों से देखकर गहराई का अनुभव करता है.

3डी फिल्मों को बनाने में, रंगों के बजाय polarised light का उपयोग किया जाता है क्योंकि इसमें एक orientation होता है, इसलिए दो अलग-अलग ध्रुवीकरण लेंस वाले चश्मे चित्र को पहले की तरह विभाजित कर सकते हैं.

इस ट्रिक को करें ट्राई
आप एक सिंपल ट्रिक से भी binocular vision का परीक्षण कर सकते हैं. दोनों आंखों को खोलकर अपने हाथ को अपने सामने फैलाएं और फिर दोनों आंखों में से किसी एक को बंद करके देखें. बाइनरी विजन की इस सटीक घटना का उपयोग 3डी सिनेमा में किया जाता है.

कैसे काम करती हैं हमारी आंखे?
हम जो भी देखते हैं उसके लिए हमारी आंखे अलग-अलग एंगल बनाती हैं. चीजें जितनी दूर होती है बीच का एंगल उतना छोटा होता जाता है. इसी एंगल से हम ये तय कर पाते हैं कि चीज हमसे कितनी दूर है. अब फिल्में इस तरह सेट की जाती हैं कि जब कोई दर्शक सीन देखे तो वो उसे पास दिखे इसके लिए पर्दे पर दो इमेज के बीच की डिस्टेंस को बढ़ा दिया जाता है, जिससे हमारे आंखों के साथ इमेज के साथ बना हुआ एंगल बढ़ जाता है. इससे हमें अहसास होती है कि वो वस्तु हमारे पास है.