15 अगस्त को देश की आजादी का जश्न मनाया जाता है लेकिन यह दिन अपने साथ एक दर्द भी लेकर आता है- बंटवारे का दर्द.
बंटवारे से जुड़ी कुछ कहानियों को अमृतसर के Partition Museum में चीजों के रूप में सहेजा गया है. आज इन्हीं किस्सों को हम आप तक पहुंचा रहे हैं.
कांसे की यह थाली-कटोरी और पीतल से बना लस्सी का गिलास, देश के बंटवारे से पहले कमल बम्मी के परिवार के हुआ करते थे. ये चीजें साल 1949 में पाकिस्तान से उनके एक मुस्लिम मित्र दिल्ली लेकर आए थे. बाद में, कमल बम्मी ने इन्हें म्यूजियम को दान कर दिया.
उस समय महिलाओं के लिए सिलाई मशीनों का बहुत महत्व था, और आज भी बहुत से लोग अपनी पहली मशीन को याद करते हैं. यह सिलाई मशीन विभाजन के दौरान बहावलपुर से लाई गई थी. श्रीमती भाटिया ने इसे म्यूजियम तक पहुंचाया.
यह पॉकेट घड़ी नौशेरा (अब पाकिस्तान में) के पंडित देवी दास की थी. वह अपने परिवार से अलग हो गए थे और कई हफ्तों तक उनकी कोई खबर नहीं मिली. एक दिन, देवी दास के एक परिचित, किशोरी लाल लावारिस शवों के सामूहिक दाह संस्कार में मदद कर रहे थे, जब उन्होंने देवी दास के शव को पहचान लिया. उन्होंने उनकी जेब से घड़ी निकाली और बाद में एक दैनिक समाचार पत्र में विज्ञापन दिया, जिसमें परिवार के किसी भी जीवित सदस्य से घड़ी लेने के लिए कहा गया था. इस प्रकार परिवार को पता चला कि वह नहीं रहे. सुदर्शना कुमारी ने इसे दान दिया है.
यह चश्मा 1934 का है और इसका इस्तेमाल अमल शोम के पिता करते था, जो अब बांग्लादेश में का हिस्सा बन चुके मैमनसिंह के रहने वाले थे. उनका परिवार 1951 में पश्चिम बंगाल, भारत चला आया. अमल शोम ने यह दान किया है.
पूर्वी पाकिस्तान से भारत आने के लिए मजबूर सुनील चंद्र घोष का अपनी मां के साथ बहुत गहरा रिश्ता था. जब वह जीवित थीं तो जाप करने के लिए वह इस माला का उपयोग करती थीं. उन्होंने इसे अपनी मां की याद के रूप में सुरक्षित रखा. सुनील चंद्र घोष ने बहुत प्रेम से यह माला म्यूजियम को डोनेट की.
यह पदक गौहर सिंह वड़ैच को जूनियर कमीशन अधिकारी के रूप में ब्रिटिश भारतीय सेना में उनकी सेवा के लिए दिया गया था. जनवरी 1947 में सेवानिवृत्त होने के बाद वह अपने परिवार के पास लौट आए. लेकिन एक बार दंगे शुरू होने के बाद, उन्हें शरणार्थी शिविरों में सेवा करने के लिए बुलाया गया. उनकी बीमार पत्नी और पांच बच्चों ने रेडियाला (अब पाकिस्तान में) से अमृतसर तक की यात्रा अकेल तय की. उनकी पत्नी की टीबी से मृत्यु हो गई और नवंबर 1947 में जब वह अपने परिवार के साथ फिर से मिले तो वह जीवित नहीं थीं. उनके परपोते, गुरशमशीर वड़ैच ने यह दान किया.
30 वर्षीय भगवान सिंह मैनी और 22 वर्षीय प्रीतम कौर का एक-दूसरे से परिचय 1947 में हुआ था. मैनी मियांवाली से थे और वह गुजरांवाला से थीं. लेकिन बंटवारे में उनके परिवारों का संपर्क टूट गया. भगवान सिंह के तीन भाई पश्चिमी पंजाब से भागते समय मारे गये. प्रीतम कौर के परिवार ने उन्हें अमृतसर जाने वाली ट्रेन में बैठा दिया. उन्होंने अपने दो साल के भाई को गोद में लेकर यात्रा की और रेलवे स्टेशन पहुंचने के बाद, वह शरणार्थी शिविर में चली गईं. यहां भगवान सिंह और प्रीतम कौर की दोबारा मुलाकात हुई. बाद में उनकी शादी हो गई. पाकिस्तान से प्रीतम कौर जो कुछ ला पाईं उन चीजों में यह फुलकारी कोट भी था.