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बस इक झिजक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में कि तेरा ज़िक्र भी आएगा इस फ़साने में
झुकी झुकी सी नज़र बे-क़रार है कि नहीं दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं
इंसां की ख़्वाहिशों की कोई इंतिहा नहीं दो गज़ ज़मीं भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद
बस्ती में अपनी हिन्दू मुसलमां जो बस गए इंसां की शक्ल देखने को हम तरस गए
रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो
अब जिस तरफ़ से चाहे गुज़र जाए कारवां वीरानियां तो सब मिरे दिल में उतर गईं
मेरा बचपन भी साथ ले आया गांव से जब भी आ गया कोई
मुद्दत के बा'द उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह जी ख़ुश तो हो गया मगर आंसू निकल पड़े