ज़िंदगी भर कर्ज़ में रहे ग़ालिब, अब जमाने पर उनका कर्ज़ है
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By: Nisha
मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम उर्दू शायरी का पर्याय है. उनका असल नाम असदुल्लाह खान था.
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बादशाह बहादुर शाह जफर ने उन्हें मिर्ज़ा की उपाधि दी और ग़ालिब उनका उपनाम था.
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आगरा में जन्मे ग़ालिब की जिंदगी दिल्ली में बीती और यहीं पर उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली.
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ग़ालिब ने 11 साल की उम्र में अपनी पहली कविता लिखी थी और वह उर्दू, फ़ारसी और तुर्की जैसी कई भाषाओं के ज्ञाता थे.
दो चीज़ें उनकी कमज़ोरी थीं - शराब पीना और जुआ खेलना. इस कारण ग़ालिब पर बहुत कर्ज़ था.
बताते हैं कि मिर्ज़ा पर जमानेभर का कर्ज़ था. पर आज उनके लेखन का हर कोई ऐसा मुरीद है कि पूरा जमाना उनका कर्ज़ नहीं चुका सकता.
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हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त
लेकिन दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता