कैसे लिया जाता है संन्यास? 

आजकल साधु-सन्यासियों के आचरण से गिरने की खबरें आती रहती हैं. हालांकि, संन्यासी बनना इतना आसान नहीं होता है.

 कोई व्यक्ति जब चेतना के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंचता है, तब वो संन्यासी बनने के पद पर अग्रसर होता है.

केवल केसरिया कपड़े धारण कर लेंगे से कोई संन्यासी नहीं बन जाता है.

हिन्दू धर्म में दो तरह के संन्यास होते हैं. विद्वत संन्यास और विद्विशा संन्यास.

विद्वत संन्यास में, व्यक्ति को जब लगता है, कि अब जीवन में कुछ भी बाकी नहीं रह गया है पाने के लिए. वहीं विद्विशा संन्यास में जीवन का परम तत्व पाने की इच्छा होती है.

सबसे पहले व्यक्ति गुरु की खोज करता है. इसके बाद अपने गुरु के पास जाता है और उनसे संन्यास लेने की इच्छा व्यक्त करता है.

गुरु व्यक्ति को संन्यास दीक्षा देते हैं, जिसमें वह विशेष व्रतों, मंत्रों और साधनाओं का पालन करने की प्रतिज्ञा करता है.

गुरु व्यक्ति को एक नया आध्यात्मिक नाम देते हैं, जिसे वह अपना आध्यात्मिक भाव दिखाने के लिए उपयोग करता है.

एक बार संन्यास दीक्षा प्राप्त करने के बाद, व्यक्ति संन्यासी जीवन की शुरुआत करता है और संयम, त्याग और ध्यान से आध्यात्मिक आदर्शों का पालन करता है.

यही कारण है कि पहले के समय में गुरु अपने शिष्यों को इतनी आसानी से संन्यास दीक्षा नहीं देते थे.

संन्यासी को हमेशा असुरक्षा में रहने को कहा गया है. साथ ही संन्यासी किसी एक जगह पर ज्यादा दिन तक नहीं ठहर सकते हैं. 

ज्यादातर लोग संन्यास ले लेते हैं लेकिन वे इसके नियमों का पालन नहीं करते हैं.